रविवार, 10 सितंबर 2017
पं.मुकुटधर पांडेय लेखक डाँ. बलदेव
पं. मुकुटधर पांडेय
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डाँ. बलदेव
पं. मुकुटधर पांडेय का.जन्म 30 सितंबर सन् 1895 को बिलासपुर जिले बालपुर ग्राम में हुआ था। किंशुक-कानन-आवेष्टित चित्रोत्पला के तट - प्रदेश में बसा यह गाँव रायगढ़ - सारंगढ़ मार्ग पर चन्द्रपुर (जमींदारी) की पूर्व में स्थित है। और महानदी के पुल या किसी टीले से घनी अमराइयों से झाकता हुआ दिखाई देता है। सूर्यास्त के समय यहाँ की छटा निराली होती है।
एक बालक पत्रिकाओं को उलट-पुलट कर देख रहा है, किस पन्ने में किन चित्रों के साथ भैया की कविता छपी है। उधर ममतामयी मां देवहुती रसोई से टेर लगा रही है..... इसी वातावरण में लुका-छिपी ... तुकबंदी होने लगती है। पितृशोक से वह और भी प्रबल हो जाती है। खेल ही खेल में ढेर-सी कविताएं रजत और स्वर्ण-पदकों की उद्घोषणा के साथ 'हितकारिणी', 'इन्दु', 'स्वदेश-बान्धव', आर्य महिला', 'सरस्वती', -जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपने लगती है। देखते ही देखते सन् 1916 में मुरली मुकुटधर पाण्डेय के नाम से इटावा के ब्रह्म प्रेस से सज-धज के साथ "पूजाफूल" का प्रकाशन होता है। उसी वर्ष प्रयाग विश्वविद्यालय से किशोर कवि प्रवेशिका में उत्तीर्ण भी हो जाता है। प्रयाग के क्रिश्चियन काँलेज में प्रवेश के साथ ही बचपन जैसे दूर-बहुत दूर छूटने लगता है.... कवि अधीर हो कर पुकार उठता है-
बालकाल! तू मुझसे ऐसी
आज विदा क्यों लेता है।
मेरे इस सुखमय जीवन को
दुःख भय से भर देता है।
इलाहाबाद में रहते हुए दो-तीन माह मजे में गुजरे, फिर वहां से एक दिन अचानक ही टेलिग्राम और फिर सदा के लिए काँलेज का रास्ता बंद। बालपुर में पिताश्री व्दारा स्थापित विद्यालय में अध्ययन.... बाकी समय में हिन्दी, अँग्रेजी, बँगला और उड़िया साहित्य का गम्भीर अध्ययन, अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। अब उनका ध्यान गाँव के काम करने वाले गरीब किसानों की ओर गया। उन्होंने श्रम की महिमा गाईः-
छोड़ जन-संकुल नगर निवास
किया क्यों विजन ग्राम में गेह
नहीं प्रासादों की कुछ चाह
कुटीरों से क्या इतना नेह
फिर तो मानवीय करुणा का विस्तार होता ही गया और वह करुणा पशु-पंक्षियों और प्रकृति में भी प्रतिबिंबित होने लगी...... कुछ कुछ अँग्रेजी रोमांटिसिज्म की शुरुआत-जैसी। हिन्दी काव्य में एक नई ताज़गी पैदा हुई। स्थूल की जगह सूक्ष्म ने ली। व्दिवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता फीकी पड़ने लगी। प्रेम और सौंदर्य का एक नया ताना-बाना बुना जाने लगा, जिसमें वैयक्तिक रागानुभूति के साथ ही रहस्यात्मक प्रवृतियां बढ़ने लगीं और पद्यात्मकता की जगह प्रगीतात्मकता प्रमुख होती गई। इसी धारा पर मैथिली शरण गुप्त, ब्रदीनाथ भट्ट, और जयशंकर प्रसाद भी अग्रसर हो रहे थे। इस समय तो पांडेय जी प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण हो उठे। इतना ही नहीं, "सरस्वती" की फ्री लिस्ट में उनका नाम दर्ज हो गया। पहले तो उन्होंने विशुद्ध मानवीय प्रेम का गीत गायाः-
हुआ प्रथम जब उसका दर्शन
गया हाथ से निकल तभी मन
फिर यह पार्थिव प्रेम अपार्थिव प्रेम में बदल गयाः-
देखेंगे नक्षत्रों में जा उनका दिव्य प्रकाश
किसकी नेत्र ज्योति है अद्भुत
किसके मुख का हास
"कुटिल केश-चुंबित मुखमंडल का हास" कवि के मलिन लोचनों में.सदा के लिए दिव्य प्रकाश बन गया।
लेकिन यह अलौकिक सत्ता निवृत्तिमूलक नहीं प्रवृत्तिमूलक है। इसीलिए कवि उसे स्पष्ट भी कर देता है :- हुआ प्रकाश तमोमय जग में
मिला मुझे तू तत्क्षण जग में
तेरा बोध हुआ पग पग में
खुला रहस्य महान
साहित्य - संसार में युवा कवि मुकुटधर पांडेय का जीवन आनंद से बीत रहा था- कि एक दिन इधी रात किसी पक्षी के करुण विलाप से वें नींद से जाग उठे, करुणा से उनके हृदय के तार झनझना उठे। उन्होंने कविता लिखी -"कुररी के प्रति'।तब क्या उन्हें मालूम था कि छायावादी कविता आप से आप लिख जाती है। अकेली इस अमर रचना से छायावाद की भूमि निर्दिष्ट हो जाती है।
अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप?
ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप?
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग
और तब तक स्वच्छन्दावादी काव्यधारा आवेग में आ चुकी थी। समस्या उठी नामकरण की, पुराने आचार्य उसे मान्यता देना नहीं चाहते थे। नई कविता उनकी समझ में आती नहीं थी। तब इस नूतन पध्दति पर चलने वाली कविता पर चर्चाएँ होने लगीं। पं. मुकुटधर पांडेय ने सर्वप्रथम अपनी तर्कपूर्ण शैली में इस कविता-धारा को "छायावाद" नाम दिया। स्पष्ट विवेचना के कारण यह नाम सभी को उपयुक्त जान पड़ा। फिर शीध्र ही "छायावाद"नाम प्रचार में आ गया। लोगों ने उसे जितना ही दबाने का प्रयत्न किया, उतना ही वह उभरने लगा। "श्रीशारदा" में प्रकाशित उनके चार निबन्धों की यह लेखमाला हिन्दी साहित्य की अनुपम धरोहर है। युग -प्रर्वतक के साथ ही सब कुछ धुँधलाने लगा और पीड़ा से कवि का मुखर उद्गार अवरुध्द सा हो गया। एक लम्बे मौन के बाद .....मध्याह्न में बादलों में छिपा मार्तण्ड अपनी मोहक मुस्कान से पश्चिम की ओर एक बार फिर झाँकने लगा।
अखबारों में उ.प्र. "हिन्दी संस्थान" व्दारा प्रकाशित सम्मानित साहित्यकारों की सूची में वयोवृद्ध साहित्यकार मुकुटधर पांडेय का नाम देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। अपनी प्रसन्नता न रोक पाने के कारण मैं उनके पास तुरन्त पहुंचता हूँ। बधाई देने पर वे क्षण भर कुछ चकित-से होते हैं, फिर मुस्कुरा कर पूछते हैं- मैं संकोच मिश्रित हर्ष से कहता हूँ, "तीन अन्य साहित्यकार जगन्नाथ मिलिन्द, सोहनलाल व्दिवेदी, आदि प्रसिद्ध कवियों के सहित हिन्दी संस्थान लखनऊ आपको सम्मानित करने जा रहा है, तो वे कुछ संकोच में पड़ जाते हैं। पांडेय जी जितने सरल और निश्छल थे, उतने ही संकोची। इस सम्मान में उक्त प्रत्येक साहित्यकार को पन्द्रह हजार की राशि भेंट की गई थी।
मुकुटधर पाण्डेय की अब तक प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं :-
1- पूजाफूल, 1916, ब्रह्म प्रेस,इटावा
2- हृदयदान(कहानी-संग्रह) , 1918, गल्पमाला,बनारस
3- परिश्रम(निबंध-संग्रह) , 1917, हरिदास एवं कम्पनी, कलकत्ता।
4- लच्छमा (अनुदित उपन्यास), 1917 , हरिदास एण्ड कम्पनी, कलकत्ता
5- शैलबाला, 1916
6- मामा, 1924, रिखवदास वाहिनी एण्ड कम्पनी, कलकत्ता।
7- छायावाद एवं अन्य निबंध, 1979, म.प्र. हि. सा. सम्मेलन, भोपाल
8- स्मृति-पुंज , 1983, तिरुपति प्रकाशन, हापुड़
9- विश्वबोध (काव्य-संग्रह) 1984, श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़
10- छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध, 1984, श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़
11-मेघदूत1984 छत्तीसगढ़ लेखक संघ, रायगढ़
मुकुटधर पाण्डेय उन यशस्वी साहित्यकारों में हैं , जो दो चार रचनाओं से ही अमर हो जाते हैं। एक बार आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने उन्हें लिखा था "आप वर्ष में कोई तीन रचनाएँ भेज दिया करें। उनकी सीख , कम लिखिए पर अच्छा लिखने की कोशिश कीजिए। दो चार कविताएं लिखकर ही आदमी अमर हो सकता है और यों बहुत लिखने पर सौ-पचास वर्षों के बाद लोग नाम तक याद नहीं रखते", ये वाक्य उनके लिए गुरुमंत्र सिध्द हुए। हिंदी में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, सरदार पूर्णासिंह और पण्डित मुकुटधर पांडेय ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिन्हें लोग उनकी दो-चार रचनाओं पर ही वर्षों से ससम्मान स्मरण करते आ रहे हैं और करते रहेंगे। काल की बेला ने मनीषी पं. मुकुटधर पांडेय को 6 नवंबर 1989 को हमसे छीन लिया।
कुररी के प्रति
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बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात
पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात
निद्रा में जा पड़े कवि के ग्राम -मनुज स्वच्छंद
अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते है सानन्द
इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात
पिछड़ा था तू कहाँ , हुई क्यों तुझको इतनी रात?
देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल?
क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीँ था भूल?
क्या उसकी सौंदर्य-सुरा से उठा हृदय तब ऊब?
या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब?
या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल?
किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल?
अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप
ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप?
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग?
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप?
बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप?
यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद?
या तुझको निज-जन्म भूमि की सता रही है याद?
विमल ब्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप
इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप
यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद?
नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद?
कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास
विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास
वहाँ कौन नक्षत्र - वृन्द करता आलोक प्रदान?
गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान?
कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास
किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास?
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कुररी के प्रति
............................
विहग विदेशी मिला आज तू बहुत दिनों के बाद
तुझे देखकर फिर अतीत की आई मुझको याद
किंशुक-कानन-आवेष्टित वह महानदी-तट देश
सरस इक्षु के दण्ड, धान की नव मंजरी विशेष
चट्टानों पर जल-धारा की कलकल ध्वनि अविराम,
विजन बालुका-राशि , जहाँ तू करता था विश्राम
चक्रवाक दंपत्ति की पल पल कैसी विकल पुकार
कारण्डव-रव कहीं कहीं कलहंस वंश उद्गार
कठिनाई से जिसे भूल पाया था हृदय अधीर
आज उसी की स्मृति उभरी क्यों अन्तस्तल को चीर?
किया न तूने बतलाने का अब तक कभी प्रयास
किस सीमा के पार रुचिर है तेरा चिर-आवास
सुना, स्वर्णमय भूमि वहाँ की मणिमय है आकाश
वहाँ न तम का नाम कहीं है, रहता सदा प्रकाश
भटक रहा तू दूर देश में कैसे यों बेहाल?
क्या अदृष्ट की विडंबना को सकता कोई टाल
अथवा तुझको दिया किसी ने निर्वासन का दण्ड?
बता अवधि उसकी क्या , या वह निरवधि और अखण्ड?
ऐसा क्या अक्षम्य किया तूने अपराध अमाप?
कथ्य रहित यह रुदन , तथ्य का अथवा है अप्रलाप?
या अभिचार हुआ कुछ, तुझ पर या कि किसी का शाप?
प्रकट हुआ यह या तेरे प्राक्तन का पाप-कलाप?
कोई सुने न सुने , सुनता कुछ अपने ही आप,
अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप?
शरद सरोरुह खिले सरों में, फूले वन में कास
सुनकर तेरा रुदन हास मिस करते वे परिहास।
क्रौंच, कपोत, कीर करते हैं उपवन में अलाप
सुनने को अवकाश किसे है तेरा करुण - विलाप?
जिसे दूर करने का संभव कोई नहीं उपाय,
निःसहाय , निरुपाय उसे तो सहना ही है हाय!
दुःख -भूल , इस दुःख की स्मृति को कर दे तू निर्मूल,
पर जो नहीं भूलने का है , सकता कैसे भूल?
मंडराता तू नभो देश में, अपने पंख पसार,
मन में तेरे मंडराते हैं, रह रह कौन विचार?
जिसके पीछे दौड़ रहा तू, अनुदिन आत्म-विभोर
जाने वह कैसी छलना है, उसका ओर न छोर
ठिठक पड़ा तू देख ठगा सा सांध्य क्षितिज का राग
जगा चुका वह कभी किसी के भग्न हृदय में आग
परदेशी पक्षी , चिंता की धारा को दे मोड़
अंतर की पीड़ा को दे अब अन्तर-तर से जोड़।
प्रियतम को पहचान उसे कर अपर्ण तन-मन-प्राण
उसके चरणों में हो तेरे क्रन्दन का अवसान।
सुना, उसे तू अपने. पीड़ित -व्यक्ति हृदय का हाल
भटक रहा तू दूर देश में, क्यों ऐसा बेहाल?
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(छायावाद और पं. मुकुटधर पांडेय लेखक डाँ०बलदेव)
(कुररी के प्रति :- " विश्वबोध " काव्य संग्रह से संपादक:- डाँ०बलदेव, श्रीशारदा साहित्य सदन,स्टेडियम के पीछे, श्रीराम काँलोनी, रायगढ़, छ.ग, मो.नं. 9039011458)
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शुक्रवार, 1 सितंबर 2017
मुकुटधर पांडेय :- लेख
छायावाद के प्रर्वतक पं. मुकुटधर पांडेयः -
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(विश्वबोध कविता संग्रह से, संपादक -डाँ०बलदेव)
प्रकाशकीय:-
युग प्रवर्तक कवि पं. मुकुटधर पांडेय की श्रेष्ठ और विलुप्त प्राय रचनाओं को प्रथम बार पुस्तकाकार प्रकाशित करते हुए हमें आपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। पांडेय जी के नाम पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से जिज्ञासा भरे पत्र आते रहे हैं। जिनमें हिन्दी के समर्थ आलोचकों से लेकर सामान्य पाठकों तक ने उनकी रचनाओं को पढ़ने की बार बार इच्छा प्रकट की है। हिन्दी के अनेक शोधकर्ताओं को भी उनकी प्रमाणित सामग्री के अभाव में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। इस अभाव को पूर्ण करने की दृष्टि से सीमित साधनों के बीच यह छोटा सा प्रयास है। ये कविताएं व्दिवेदी युग और छायावाद युग की कविताओं के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। इनसे खड़ी बोली काव्य धारा के इतिहास को समझने में मदद मिलेगी।
आशा ही नहीं हमें पूर्ण विश्वास है हिन्दी संसार इस कविता-संग्रह का स्वागत करेगा। हम पांडेय जी के ऋणी हैं जिन्होंने कृपा पूर्वक हमें यह सुन्दर अवसर प्रदान किया।
बसन्त राघव
1983
श्रीराम
दो शब्द
ये कविताएं अधिकांश व्दिवेदी युग की उपज हैं। कविता के क्षेत्र में खड़ी बोली अपने पैर जमा चुकी थी। ब्रजभाषा के पूर्ण कवि, हरिऔध आदि जो दो चार समर्थ कवि थे। नवयुवकों में मैथिलीशरण गुप्त, लोचन प्रसाद पाण्डेय (मेरे अग्रज), आदि प्रासादिक शैली में राष्ट्रीय और आख्यानक कविताएं लिख रहे थे। हमारे घर के लघु पुस्तक-संग्रह में बंगला और ओड़िया के सामयिक काव्य साहित्य -मधुसूदन दत्त, हेमचन्द्र और राधानाथ की ग्रंथावलियों का प्रवेश हो चुका था। तब पूर्व में रव्युदय नहीं हुआ था, पर शीध्र ही रवीन्द्र नाथ और उनके समानांतर व्दिजेन्द्रनाथ राय भी पहुँच गए थे। इन सबका एक मिला जुला प्रभाव मुझ पर पड़ा था।
तत्कालीन मासिक पत्र-पत्रिकाओं में मेरी छोटी - छोटी कविताएँ छपा करती थीं, पर 'पूजा फूल"के बाद उनका कोई संग्रह नहीं हो पाया था और वे इधर दुष्प्राप्य भी हो रही थी। डाँ० बलदेव के प्रयत्न से उनका जो संग्रह प्रस्तुत किया जा रहा है, वही इस पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके प्रकाशन का सम्पूर्ण श्रेय उन्हीं को है, जिसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ।
मुकुटधर पाण्डेय
रायगढ़, मकर संक्रांति, सं २०४० वि
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पं. मुकुटधर पांडेय का जन्म सन् 1895 ई० को बिलासपुर जिले के बालपुर ग्राम में हुआ था। किंशुक-कानन आवेष्टित चित्रोत्पला के तट - प्रदेश में बसा गांव रायगढ़-सारंगढ़ मार्ग पर चन्द्रपुर (जमींदारी) की पूर्व दिशा में स्थित हैं और महानदी के पुल या किसी टीले से घनी अमराइयों से झांकता दिखाई देता है। सूर्योदय हो या सूर्यास्त दोनों ही समय यहाँ की छटा निराली होती है।
अपने अच्छे दिनों में चाहे ग्रीष्म हो, चाहे भरी बरसात, सर्द हवाओं के दिन , अंधेरी रात हो या उजेली, उसकी श्री सुषमा में कहीं कोई अन्तर नहीं पड़ता, खेत धान की नवमंजरियों से भरे हों या तीसी के नीले उजले फूलों से। मेंड़ों पर निहारिकाओं से विमल प्रकाश फेंकते दूर्वादल हों या सरस इक्षु के दण्ड वाले खेत या वातावरण में भूख को बढ़ाती हुई औंटते रसों से छनकर आती हुई गुड़ की गंध, ये रंगरूप , ये गंध ध्वनियाँ आज भी पाण्डेय जी के किशोर मन को ललचाते हैं। पांडेय जी की कविताओं में बाग - बागीचों और पलाशवन से घिरा छोटा सा गाँव बालपुर अपने अतीत की स्मृतियों में खो जाता है। महानदी के सुरम्य तट पर मंजरित आम्रतरुओं में छिपकर गाती हुई कोयल, अंगारे से दहकते ठंडे पलाशवन, नदी के सुनील मणिमय आकाश में उड़ते कल -हंसों की पांत.....लहरों पर दूर तक जाती उनकी परछाइयां..... जल पंखियाँ का शोर, चक्रवाक दम्पति की प्रतिफल विकल पुकार, कारण्डवों का कल-कूंजन-चट्टानों पर जलधारा की अविराम कल-कल ध्वनि और दूर दूर तक विजन बालुकाओं का विस्तार , नौका बिहार करते.... फिरते अंधेरे के झुरमुट में जगमगाते जुगनुओं के बीच से गुजरते कवि का मन जब घर लौटता तो आंगन में उतर आई चांदनी में पुनः खो जाता.... न भूख न प्यास ... तब कवि की सुकुमार कल्पना एक अज्ञात रहस्य की ओर इंगित करती.... कच्चे धागे से वह कौन-सा पट बुनती यह भावानुभूति की चीज है।
समूचा परिवार साहित्य साधना में आकंठ डूबा हुआ। पं. लोचन प्रसाद पांडेय की रचनाओं का सुलेख करते, आगन्तुक कवियों और सन्यासियों का गीत-संगीत सुनते, पार्वती लायब्रेरी में अध्ययन करते या रहंस बेड़ा में अभिनय करते, कवि मुकुटधर पांडेय का बचपन लुकाछिपी में कविता रचते बीत जाता है। पितृशोक से रचना कर्म गतिशील हो उठता है। चौदह वर्ष की उम्र में पहली कविता "स्वदेश बान्धव" में प्रकाशित होती है। खेल ही खेल में ढेर-सी कविताएँ रजत और स्वर्ण पदकों की उद्घोषणा के साथ हितकारिणी, इन्दु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत तथा सरस्वती जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर छपने लगती हैं। देखते ही देखते सन् 1916 में सन् 1909 से 15 तक की कविताएं मुरली-मुकुटधर पाण्डेय के नाम से इटावा के ब्रह्म-प्रेस से सज-धज के साथ "पूजा फूल'" शीर्षक से प्रकाशित होती है। उसी वर्ष किशोर कवि प्रवेशिका में प्रयाग विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण भी हो जाता है। बालपुर और रायगढ़ कुछ दिनों के लिए छूट-सा जाता है-- कवि अधीर हो पुकार उठता है--
"बालकाल तू मुझसे ऐसी आज बिदा क्यों लेता है,
मेरे इस सुखमय जीवन को दुःखमय से भर देता है।"
इलाहाबाद में रहते हुए दो तीन माह मजे में गुजरे, फिर वहाँ से एक दिन अचानक ही टेलिग्राम.... और तीसरे दिन अस्वस्थता की हालत में रायगढ़। यहाँ महामारी फैली हुई है। पूज्याग्रज पं० लोचन प्रसाद पांडेय ने जीप की व्यवस्था कर दी है। शाम होते-होते घर लौट आते हैं। फिर सदा के लिए काँलेज का रास्ता बन्द। वहीं बालपुर में पिता श्री व्दारा स्थापित विद्यालय में अध्ययन/ बाकी समय हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला और उड़ीया साहित्य के गंभीर अध्ययन, अनुवाद और स्वतंत्र लेखन में।अब उनका ध्यान गाँव के काम करने वाले गरीब किसानों की ओर गया। उन्होंने श्रम की महिमा गायी।
"छोड़ जन-संकुल नगर निवास किया. क्यों विजन ग्राम
में गेह ,
नहीं प्रसादों की कुछ चाह - कुटीरों से क्यों इतना
नेह ।
फिर तो मानवीय करुणा का विस्तार होता ही गया और वह करुणा पशु-पंक्षियों और प्रकृति में भी प्रतिबिंबित होने लगी..... कुछ कुछ रोमाटिज्म की शुरूआत जैसी। हिन्दी काव्य में एक नई ताजगी पैदा हुई। स्थूल की जगह सूक्ष्म ने लिया, व्दिवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता फीकी पड़ने लगी। प्रेम और सौंदर्य का नया ताना-बाना बुना जाने लगा, जिसमें वैयक्तिक रागानुभूति के साथ ही रहस्यात्मक प्रवृत्तियां बढ़ने लगी और पद्यात्मकता की जगह प्रगीतात्मकता प्रमुख होती गयी। इस धारा पर मैथिली शरण गुप्त, बद्रीनाथ भट्ट और जय शंकर प्रसाद भी अग्रसित हो रहे थे। इस समय पांडेय जी प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण हो उठे। हितकारिणी के सम्पादक श्री नर्मदा मिश्र ने 5/10/1913 को एक पत्र लिखा था, जिसका एक अंश यहाँ उद्धृत है। - "आपकी एक कविता इस अंक में छप रही है। कृप्या दूसरी कोई अच्छी-सी कविता भेजियेगा। कृतज्ञ होउंगा। मेरी दृढ़ इच्छा रहती है कि प्रत्येक अंक में आपकी एक न एक लेख अवश्य रहे, पर यह आपकी कृपा और इच्छा के अधीन है। " इतना ही नहीं "सरस्वती" की फ्रि लिस्ट में उनका नाम दर्ज हो गया। "किसान"जैसी कविता के लिए सम्पादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा था-" ऐसी कोई चीज बन जाय तो रजिस्टर्ड डाक से सीधे "विशाल भारत" को भेजने की कृपा करेंगे।"
"पूजा फूल" के प्रकाशन के बाद पहले-पहल तो उन्होंने विशुद्ध मानवीय प्रेम का गीत गाया:-
हुआ प्रथम जब उसका दर्शन
गया हाथ से निकल तभी मन।
फिर यह पार्थिव प्रेम अपार्थिव प्रेम में बदल गया-:-
"देखेंगे नक्षत्रों में जा उनका दिव्य प्रकाश,
किसकी नेत्र ज्योति है अद्भुत किसके मुख का हास।"
"कुटिल-केश चुंबित मुख मंडल का हास" कवि के मलिन लोचनों में सदा के लिए दिव्य प्रकाश बन गया। लेकिन यह अलौकिक सत्ता निवृत्ति मूलक नहीं, प्रवृत्ति मूलक है। इसीलिए कवि उसे स्पष्ट भी कर देता है:-
हुआ प्रकाश तमोमय जग में
मिला मुझे तू तत्क्षण जग में
तेरा बोध हुआ पग पग में
खुला रहस्य महान।
कविता लेखन के साथ ही गद्य लेखन भी समान गति से चल रहा था। इस बीच एक घटना घटी, उनके किसी मित्र ने ऐसी भंग खिलाई कि उसकी खुमारी आज भी दिलों-दिमाग को बैचेन कर बैठती है। जन्म कुंडली में किसी उत्कली ज्योतिषी ने चित्त विभ्रम और हिन्दी -भाषी ज्योतिषी ने 'चित्तक्षत' लिखा था। यह घटना 1918 की है जो सन् 1923 में चरम सीमा में पहुंच गयी। मानसिक अशान्ति से साहित्य - साधना एकदम से छिन्न-भिन्न हो गई। शोध-प्रबन्धों ने गलत - सलत बातें लिखीं। कतिपय सज्जनों ने उन आलोचकों को मुह-तोड़ जवाब भी दिया, लेकिन कवि ने उन्हें क्षमा कर दिया। "बात यह थी कि सन् 1923 के लगभग मुझे एक मानसिक रोग हुआ था। मेरी साहित्यिक साधना छिन्न भिन्न हो गयी, तब किसी ने मुझे स्वर्गीय मान लिया हो तो वह एक प्रकार से ठीक ही था। वह मुझ पर दैवी प्रकोप था, कोई देव - गुरु - शाप या कोई अभिचार था। यह मेरे जीवन का अभी तक एक रहस्य ही बना हुआ है।"
पांडेय जी ने मानसिक अशान्ति के इन्हीं क्षणों में "कविता "और "छायावाद" जैसे युगांतरकारी लेख और "कुररी के प्रति" जैसे अमर रचनाएँ लिखीं।
पंडित मुकुटधर पांडेय संक्रमण काल के सबसे अधिक सामथ्यर्वान कवि हैं। वे व्दिवेदी युग और छायावाद युग के बीच की ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी हैं जिनकी काव्य-यात्रा को समझे बिना खड़ीबोली के दूसरे-तीसरे दशक तक के विकास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता, उन्होंने व्दिवेदी-युग के शुष्क उद्यान में नूतन सुर भरा तथा बसन्त की अगवानी कर युग प्रवर्तन का ऐतिहासिक कार्य किया।
वे जीवन की समग्रता के कवि हैं।उनके काव्य में प्रसन्न और उदास दोनों भावों के छाया चित्र हैं। उन्हें प्रकृति के सौंदर्य में अज्ञात सत्ता का आभास मिलता है,
उसके प्रति कौतूहल उनमें हर कहीं विद्यमान है। यदि एक ओर उनके काव्य में अन्तर-सौंदर्य की तीव्र एवं सूक्ष्मतम अनुभूति , समर्पण और एकान्त साधना की प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति है तो दूसरी ओर व्दिवेदी युगीन प्रासादिकता और लोकहित कि आदर्श।
सन् 1915 के आस पास स्वच्छन्दतावादी काव्य-धारा चौड़ा पाट बनाने में लगी थी, व्दिवेदी युगीन तट -कछार उसमें ढहने लगे थे। इस धारा के सबसे सशक्त हस्ताक्षर थे जयशंकर प्रसाद और मुकुटधर पांडेय । इसके समानांतर सन् 1920 तक व्दिवेदी युग भी संघर्षरत रहा कहा जा सकता है, उसका प्रभाव सन् 1935 तक रहा। मुकुटधर पांडेय में स्वच्छन्दतावादी और व्दिवेदी -युगीन काव्य की गंगा-जमुनी धारा यदि एक साथ प्रवाहित दिखे तो आश्चर्य नहीं। लेकिन तय है उस युग के काव्य का प्रवर्तन उन्हीं से होता है। उन्हीं की प्रगीत रचनाओं से होकर छायावादी कविताएं यात्रा करती हैं, और उन्होंने ही सर्वप्रथम उस युग की कविताओं को व्दिवेदी युग से अलग रेखांकित किया। "कविता" (हितकारिणी1919) तथा "छायावाद"
(श्रीशारदा 1920) जैसी सशक्त लेखमाला व्दारा ही उस युग की कविता की पहचान होती है। इस कविता धारा को सांकेतिक शैली के अर्थ विशेष में पांडेय जी ने "छायावाद" नाम दिया था।
वैसे छायावाद का प्रथम प्रयोग श्रीशारदा की लेखमाला के प्रकाशन के पूर्व मार्च 1920 की हितकारिणी में प्रकाशित उनकी कविता "चरण प्रसाद"
में हुआ है:-
भाषा क्या वह छायावाद
है न कहीं उसका अनुवाद
मेरे विचार से यह छायावाद की एक सुन्दर व्याख्या है। और इसका प्रयोग हिन्दी में आप्त वाणी जैसा ही हुआ है। स्वतः स्फूर्त और परम पूर्ण।
कवि मुकुटधर पांडेय अपनी सहजात प्रवृत्तियों के साथ ही युग बोध से भी जुड़े, और यही वजह है कि वे आज भी प्रासंगिक हैं। उनके रचना संसार में व्दिवेदी युग और छायावाद के काव्य संस्कार मौजूद हैं। इसी अर्थ में मैंने उन्हें संक्रमण काल का कवि कहा है। वे सन् 1909 से 1923 तक अत्यधिक सक्रिय रहे। हिन्दी प्रदेश के वे शायद अकेले निर्विवाद और.लोकप्रिय कवि थे, जो उस समय की प्रायः सभी साहित्यिक पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ में ससम्मान स्थान पाते रहे।
पं. मुकुटधर पांडेय की कविताएं सन् 1909 से 1983 तक फैली हुई हैं। उन्होंने बारह वर्ष की उम्र में लिखना शुरू किया था। इकहत्तर वर्षों की प्रदीर्घ साधना को कुछ पृष्ठों में मुद्रित नहीं किया जा सकता। पूजा-फूल में कुल 74कविताएं हैं। तीन पं. मुरलीधर पांडेय की तथा इकहत्तर मुकुटधर पांडेय जी की। यह महज संयोग है कि इतनी ही रचनाएँ इस संकलन में अनजाने आ गयी हैं। पुस्तक का शीर्षक उनकी प्रसिद्ध कविता "विश्वबोध"के नाम पर रखा गया है, कोई आग्रह नहीं आखिर एक शीर्षक ही तो देना था।
पं. मुकुटधर पांडेय जी की करीब तीन सौ कविताएं मेरे पास संकलित हैं। पिछले एक दशक से मैं साहित्य मनीषी पं. मुकुटधर पांडेय"शीर्षक एक स्वतंत्र पुस्तक लिख रहा था, इसी दौरान ये कविताएँ पुरानी पत्र-पत्रिकाओं, कुछ पुस्तकों और कुछ पांडेय जी से प्राप्त हो गयी, उन्हीं में से यह चयन है। कविता के नीचे विवरण दे दिया गया है। अतः अलग से उल्लेख करना औपजारिकता ही है। क्रमांक चार से अठारह "पूजा फूल" से ली गयी है। जीवन साफल्य "काल की कुटिलता"और शोकांजलिक कविता-कुसुम माला में भी संकलित है। व्दिवेदी युग में वे अनुवादक के रुप में लोकप्रिय थे। अंग्रेजी और बंगला की अनूदित रचनाओं ने खड़ी बोली कविता धारा को प्रभावित किया हो तो आश्चर्य नहीं, यहां बंगला की चार अनूदित रचनाएँ भी शामिल हैं। अन्तिम ग्यारह कविताएं सन् 60 के बाद की है। कविताएं एक क्रम में है ताकि कवि.के विकास क्रम को देखा-परखा जा सके।
और अन्त में , इस संकलन के लिए पांडेय जी ने जिस औदार्य से अनुमति दी, इस आभार को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। हिन्दी के नये पुराने पाठकों तक पांडेय जी की अन्य रचनाएं भी मैं पहुँचा सकूँ यह मेरी एकान्त कामना है।
डाँ०बलदेव
रायगढ़:-दिनांक19/11/83
कविता
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मुकुटधर पांडेय
कविता सुललित पारिजात का हास है,
कविता नश्वर जीवन का उल्लास है ।
कविता रमणी के उर का प्रतिरूप है,
कविता शैशव का सुविचार अनूप है।
कविता भावोन्मतों का सुप्रलाप है,
कविता कान्त -जनों का मृदु आलाप है।
कविता गत गौरव का स्मरण- विधान है,
कविता चिर-विरही का सकरुण गान है।
कविता अन्तर उर का बचन-प्रवाह है,
कविता कारा बध्द हृदय को आह है।
कविता मग्न मनोरथ का उद्गार है,
कविता सुन्दर एक अन्य संसार है।
कविता वर वीरों का स्वर करवाल है,
कविता आत्मोध्दरण हेतु दृढ़ ढाल है।
कविता कोई लोकोत्तर आल्हाद है,
कविता सरस्वती का परम प्रसाद है।
कविता मधुमय -सुधा सलित की है घटा,
कविता कवि के एक स्वप्न की है छटा।
चन्द्रप्रभा,1917
( बिश्वबोध कविता संग्रह से पृ.9 )
चरण-प्रसाद
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कण्टक- पथ में से पहुँचाया चारु प्रदेश
धन्यवाद मैं दूँ कैसे तुझको प्राणेश!
यह मेरा आत्मिक अवसाद?
हुआ मुझे तब चरण-प्रसाद ।
छोड़ा था तूने मुझपर यह दुर्ध्दर-शूल,
किन्तु हो गया छूकर मुझको मृदु-फूल
यह प्रभाव किसका अविवाद?
आती ठीक नहीं है याद।
जी होता है दे डालूँ तुझको सर्वस्व,
न्यौछावर कर दूँ तुझ पर सम्पूर्ण निजस्व।
उत्सुकता या यह आह्वाद?
अथवा प्रियता पूर्ण प्रमाद ?
लो निज अन्तर से मम आन्तर -भाषा जान,
लिख सकती लिपि भी क्या उसके भेद महान।
भाषा क्या वह छायावाद,
है न कहीं उसका अनुवाद।
* *
हितकारिणी, मार्च1920
(विश्वबोध कविता संग्रह पृ. 40)
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शुक्रवार, 25 अगस्त 2017
लेखःराजा चक्रधर सिंह : साहित्यिक अवदान
राजा चक्रधर सिंह साहित्यिक अवदान:-
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लेखक:- डाँ०बलदेव
रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी और उर्दू भाषा साहित्य के विव्दान ही नहीं बल्कि रचनाकार भी थे, चक्रप्रिया के नाम से उन्होंने बहुत सी सांगीतिक रचनाएं दी।
संस्कृत, उर्दू एवं हिंदी में उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं:-
1 रत्नहार
2 काव्य कानन
3 रम्यरास
4 बैरागढ़िया राजकुमार
5 निगारे फरहत
6 अलकापुरी -तीन भागों में
7 जोशे फरहत
8 माया चक्र
9 प्रेम के तीर
1:- रत्नहारः- यथा नाम तथा रुपम् को चरितार्थ करने वाला संस्कृत काव्य संग्रह रत्नहार सचमुच काव्य रसिकों का कंठहार है। इसका प्रकाशन साहित्य समिति, रायगढ़ ने किया , लेकिन मुद्रण कलकत्ता से संवत् 1987 में हुआ था। इसमें संस्कृत के ख्यात -अख्यात कवियों के 152 चुनिंदा श्लोक राजा चक्रधर सिंह ने संकलित किये हैं। इस संकलन के पीछे संस्कृत भाषा के काव्य रसिक होने का प्रमाण मिलता है। इस बात को उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है- " जब मैं राजकुमार काँलेज रायपुर में पढ़ रहा था, उस समय से ही मुझे संस्कृत साहित्य से विशेष अनुराग हो चला था। संस्कृत काव्य काल की कितनी ही कोमल घड़ियां व्यतीत हुई थी।उन घड़ियों की मधुर स्मृति आज भी मेरे मानस पटल पर वर्तमान की भांति स्पष्ट रेखांओं में अंकित है। "रत्नहार" उसी मधुर स्मृति का स्मारक स्वरूप है।"
संकलनकर्ता ने संस्कृत के श्लोकों का गद्यानुवाद न कर भावानुवाद किया है। अनुवाद की यांत्रिकता से राजा साहब वाकिफ थे। उन्हीं के शब्दों में " गद्यानुवाद में न तो काव्य का रहस्यपूर्ण स्वर्गीय आंनद ही रह जाता है, और न ही उसकी अनिर्वचनीय रस-माधुरी। सूक्ष्म से सूक्ष्म कवितापूर्ण कल्पनाएं गद्य रूप में आते ही कथन -मात्र सी रह जाती हैं।" इसीलिए चक्रधर सिंह जी ने, जो स्वयं एक अच्छे कवि-शायर थे, श्लोकों के आंतरिक कवित्वपूर्ण भावों को सुरक्षित करने के लिए अनुवाद में पूरी स्वच्छंदता से काम लिया है। जहाँ स्पष्टीकरण में अवरोध आया है, वहाँ उन्होंने स्वतंत्र टिप्पणीयों से उसे स्पष्ट करने का भरसक प्रयास किया है।
"रत्नहार" पढ़ने से लगता है, राजा साहब सचमुच रस-आखेटक थे। उन्होंने नायिकाओं के रूप वर्णन के साथ ही उनके आंतरिक भावों को व्यंजित करनेवाले श्लोकों का खास कर चुनाव किया है। नेत्रों के बहाने उन्होंने
आभ्यंतर और बाह्मंतर दोनों को, याने रुप और भाव दोनों को इस श्लोक के बहाने रेखांकित करने का यत्न किया है-
श्याम सितं च सदृशो: न दृशोः स्वरुपं
किन्तु स्फुटं गरलमेतदथामृतं च ।
नीचेत्कथं निपतनादनयोस्तदैव
मोहं मुदं च नितरां दधते युवानः ।।
राजा साहब ने इस सौंदर्य को अक्षुण्ण रखते हुए इसका सरल अनुवाद इन शब्दों में किया है - नेत्रों की श्यामलता और धवलता को शोभा मात्र न समझना चाहिए। इस श्यामलता और धवलता के समागम का रहस्य और ही है। श्यामलता विष है और धवलता सुधा। यदि ऐसा न होता तो मृगनयनी के कटीले कटाक्ष की चोट लगते ही रसिक युवक मादक मूच्छर्ना और स्वर्गीय आन्नद का अनुभव एक साथ ही कैसे करते?
"रत्नहार" में रीति सम्प्रदाय का अनुगमन होता दिखाई देता है। यहाँ अंग-प्रत्यंग सभी प्रकार की संचारी-व्यभिचारी भाव प्रधान रचनाएँ शामिल की गई हैं।
अवाप्तः प्रागल्भ्य परिणत रुचः शैल तनये
कलग्डों नैवायं विलसित शशांकस्य वपुषि।
अमुष्येयं मन्ये विगलदमृतस्यन्द शिशिरे
रति श्रान्ता शेते रजनिरमणी गाढमुरसि ।।
- हे पार्वती , पूर्णिमा के चांद में बड़ा धब्बा सा दिखलाई पड़ता है। वह कलंक नहीं है तो फिर क्या है? निशा नायिका रतिक्रीड़ा से शिथिल हो कर अपने प्रियतम के अमृत प्रवाह से शीतल अंक में गाढ़ी नींद सो रही है। संयोग के बाद वियोग श्रृंगार का एक अनूठा उदाहरण दृष्टव्य है-
सखि पति - विरह -हुताश:
किमिति प्रशमं न याति नयनोदैः ।
श्रृणु कारणं नितम्बिनि
मुञ्चसि नयनोदकं तु ससँनेहम्।।
हे सखी मेरे नेत्रों से इतना जल टपक रहा है तो भी यह प्रबल विरहानल क्यों नहीं बुझता? चतुर सखी का उत्तर है- हे सखी मैं मानती हूँ कि तेरी आँखों से अविरल वारिधारा बह रही है। परंतु एक बात तू भूली जाा रही है- यह जल साधारण जल नहीं है। इसमेँ तो स्नेह के कारण आग बुझने के बदले और भी भभक उठती है।
"रत्नहार" का गेटअप रत्नहार जैसा ही है- रंगीन बेलबूटों के बीच दो परियां इनके बीच नायिका आभूषणों से लदी हुई। इसमें अन्य आकर्षक चित्र हैं- रति श्रान्ता शेते रजनि रमणी गाढ़ मुरसी कृतं मुखं प्राच्या, व्दीपाद दीपं भ्रमति दधाति चन्द्र मुद्रा कपाले । इसी प्रकार श्लोकों के आधार पर चटक रंगों में चित्रकारी की गई है। इन चित्रों के चित्रकार है एम.के.वर्मा, जो दरबार के ही कलाकार थे।
काव्य-कानन:-
काव्य कानन में एक हजार एक रचनाएँ है, जिसमें सैकड़ों कवियों की बानगी दिखाई पड़ती है। विशेषतः कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, पद्माकर, सेनापति, मतिराम, ठाकुर, बोधा, आलम, नंददास, रसलीन, बिहारी, भूषण, धनानंद, रसखान, रत्नाकर, मीर, गिरधर जैसे ख्यात कवियों से ले कर वे कवि भी शामिल हैं जिन्हें उतनी लोकप्रियता उस दौर में नहीं मिली थी। जाहिर है इतने बड़े संकलन के लिए कई सहायकों की जरुरत पड़ी होगी।
"काव्य शास्त्र विनोदन कालोगच्छति धीमताम्" की उक्ति रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह के संबंध में सटीक बैठती है। ब्रजभाषा की बढ़ती हुई उपेक्षा से चिंतित रायगढ़ नरेश ने उसकी उत्कृष्ट रचनाधर्मिता के महत्व को ही दिखाने के लिए खड़ी बोली और पड़ी बोली (ब्रजभाषा) के पाठकों याने दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों के लाभ के लिए "काव्य कानन' नामक ग्रंथ का प्रकाशित किया।
रम्यरास:-
रम्यरास का आधार श्रीमद्भागवत पुराण का दशम स्कंध है। रम्यरास राजा चक्रधर सिंह की अक्षय कीर्ति का आधार है। इसका प्राक्कथन राजा साहब की गहन आस्तिकता, भक्ति और अध्यवसाय का परिचायक है। इस उच्चकोटि. के काव्य ग्रंथ में शिखरणी छंद का सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है। यह 155 वंशस्थ वृत्त का खंडकाव्य है। आरंभ में मंगलाचरण है और समापन भगवान कृष्ण के पुनर्साक्षात्कार की कामना से होता है।
रम्यरास को पढ़ते हुए कभी आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी की "सुरम्य रुप , रस राशि रंजित। विचित्र वर्णा भरणे कहाँ गई" जैसी कविता का स्मरण हो आता है तो कभी हरिऔध की "रुपोद्यान प्रफुल्ल प्राय कलिका राकेन्दु बिंबानना" जैसी संस्कृत पदावली की याद हो आती है।
जिस समय "रम्यरास" लिखा जा रहा था उस समय छायावाद उत्कर्ष पर था, और छायावाद के प्रवर्तक कवि मुकुटधर पांडेय उनके ही सानिध्य में थे। डाँ० बलदेव प्रसाद मिश्र दीवान तो और भी करीब थे। तब "रीति" का इतना आग्रह क्यों हुआ? शायद इसके लिए 'दरबार' ही जिम्मेदार है। प्रकाशन के पूर्व इसे संशोधन के लिए पंडित महावीर प्रसाद व्दिवेदी के पास भेजा गया था, परन्तु उन्होंने कतिपय दोष के कारण मिश्रजी का अनुरोध स्वीकार नहीं किया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की चर्चा आगे की जाएगी। इसका प्रकाशन सितंबर 1934 में साहित्य समिति रायगढ़ ने किया था, तब इसकी कीमत मात्र सवा और अढ़ाई रुपए थी।
निगारे फरहत:-
राजा चक्रधर सिंह के दरबार में शेरो-शायरी का बेहतरीन चलन था। अरबी और फारसी के नामवर विव्दवानों की नियमित आवाजाही थी। राजा साहब ने उर्दू में गजलों की चार किताबें लिखी:- 1. निगारे फरहत 1930, 2. जोशे फरहत 1932, 3. इनायत-ए-फरहत, 4. नगमा-ए-फरहत। इसमें निगारे फरहत एवं जोशे फरहत ही प्रकाशित हो पाई। निगारे फरहत और दूसरी किताब जोशे फरहत की एक समय बड़ी चर्चा थी, लेकिन आजकल ये पुस्तकें दुर्लभ हो गई हैं। निगारे फरहत की भूमिका लेखन भगवती चरण वर्मा ने राजा साहब का समग्र मूल्यांकन करते हुए कहा था राजा चक्रधर सिंह फरहत दाग स्कूल के शायर हैं। उनकी विशेषता है सरलता, स्पष्टता और साथ ही सुन्दर श्रृंगार। यह पुस्तक कविता के भण्डार का एक रत्न है।
सन् 1977 में डाँ. हरिसिंह जी ने मुझे प्रथम दो पुस्तकें पढ़ने को दी थीं । अभी हाल में ठाकुर वेदमणी सिंह के प्रयत्न से अजीत सिंह ने निगारे फरहत उपलब्ध कराई हैं, जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है और जिसमें से अंतिम सौ पृष्ठ करीब -करीब गायब हैं।
जोशे फरहत :-
जोशे फरहत का प्रकाशन गुरू पूर्णिमा संवत 1989 को हुआ था। इसमें कुल 178 गजलें हैं। गजलों की प्रथम पंक्तियाँ सूची में दी गई हैं, लेकिन 28 गजलों के चुनिंदा शेर जिन पर रंगीन चित्र दिये गए हैं सूची के बाद के क्रम में दिये गए हैं। चित्रों में कहीं धीर ललित नायक की अधीरता, तो कहीं अंकुरित यौवना, मुग्धा, प्रेषित पतिका, अभिसारिका, कृष्णाभिसारिका, ज्योत्स्नाभिसारिका, अधीरा, रमणी आदि के रूप में एक ही नायिका के कहीं नायक के साथ, तो कहीं अकेली तो कहीं सहेलियों के साथ भाव-प्रधान चित्र हैं, जो गजलों के भावानुरूप अंकित हैं। दो-तीन को छोड़ प्रायः सभी चित्र रंगीन हैं। बेशकीमती जिल्दसाजी बेलबूटों के बीच राजा साहब का शायराना अंदाज , मनमोहक चित्रों से सुसज्जित यह कृति भी नायाब उदाहरण है।
बैरागढ़िया राजकुमार:-
बैरागढ़िया राजकुमार राजा चक्रधर सिंह का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। उनके दीवान बलदेव प्रसाद मिश्र ने उसका नाट्य रूपांतरण कर उसे और भी लोकप्रिय बना दिया था। सरस्वती सन् 1933 के एक सूची में छपे हुए विज्ञापन के अनुसार सचित्र ऐतिहासिक उपन्यास पृ. संख्या लगभग 250 । चित्र संख्या 23 तिरंगे, 13 दुरंगे, 5 इकरेंगी, सुन्दर सुनहरी छपी हुई रेशमी जिल्द। यदि आप संगीत के साहित्य तथा इतिहास और उपन्यास का एक साथ मजा लेना चाहें, तो एक बार इस उपन्यास को अवश्य पढ़े। इस उपन्यास में यर्थाथ कम, कल्पना की उड़ानें अधिक हैं। राजा साहब के अनुसार राजकुमार बैरागढ़िया अपने बाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु के कारण राजा है गए थे, अस्तु इसका नाम राजकुमार बैरागढ़िया और उपन्यास में उसे ही ज्यों का त्यों रखा गया है। उपन्यास में वर्णित कथापात्र हृदय शाह ऐतिहासिक है, और उसका समय भी यही है।
अलकापुरी ;-
आर्चाय महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने सरस्वती में अलकापुरी की निम्न शब्दों में तारीफ की है - "आज घर बैठे नयनाभिराम पुस्तक की प्राप्ति हुई।'" आर्चाय महावीर प्रसाद के अनुसार यह ऐतिहासिक उपन्यास (पृ.300) आदि से अंत तक अद्भुत मनोरंजक और वीरतापूर्ण घटनाओं से भरा हुआ है। अनेक आश्चर्य-पूर्ण वैज्ञानिक यंत्रों का हाल पढ़ कर आप चकित हो जाएंगे। अलकापुरी भी तिलस्मी उपन्यास है, इसमे अनेक लोमहर्षक घटनाएं वर्णित हैं । ऐसा लगता है इसका काव्य नायक रायगढ़ राजवंश का संस्थापक मदनसिंह है। इसमेँ रायगढ़ के आसपास की पहाड़ियों, घने जंगलों, नदी-नालों की प्राकृतिक छटा, निराली है। पदलालित्य से इसके वाक्य विन्यास स्पर्धा करते दिखाई देते हैं।
माया चक्रः-
माया चक्र भी रायगढ़ के र्पूव पुरुषों का समवेत चित्रण है, भले ही नाम और स्थान अलग हैं, फिर भी इसे पढ़ने के बाद जुझार सिंह का चित्र आँखों के सामने आ जाता है।
(विस्तार से जानने के लिए देखे "रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव"लेखक:-डाँ. बलदेव) प्रकाशक:- छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी ।
श्रीशारदा साहित्य सदन,स्टेडियम के पीछे
श्रीराम काँलोनी, जूदेव गार्डन, रायगढ़
छत्तीसगढ़, मो.नं. 9039011458
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फास्ट Notepad से भेजा गया
बुधवार, 23 अगस्त 2017
रायगढ़ दरबार:-
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डाँ०बलदेव
रायगढ़
दरबार का संगीत साहित्य का असली उत्कर्ष रायगढ़ का गणेशोत्सव है, जो सन् 1905 से एक माह तक राजमहल के दरबार और परिसर में होता था। राजा भूपदेव सिंह शास्त्रीय कलाओं के साथ लोक-कला के भी महान सरक्षक थे। दरबार में तो शास्त्रीय संगीत का आयोजन होता था, और परिसर में नाचा, गम्मत ,सुआ , डंडा , करमा की शताधिक पार्टियां रात भर राज महल परिसर को मशाल के प्रकाश में झांझ और घुंघरुओं की झनकार से गुलजार किए रहती थी।
राजा भूपदेव सिंह अपने भाई नारायण सिंह के संयोजकत्व में इनकी प्रतियोगिताएं रखवाते थे, और विजेता पार्टी को पुरस्कृत करते थे। राजा भूपदेव सिंह काव्य रसिक भी कम न थे। उनके गणेशोत्सव में देश के कोने कोने से जादूगर, पहलवान, मुर्गे-बटेर लड़ाने वाले , यू.पी. की नृत्यांगनाएं खिंची चली आती थीं। एक बार राजा साहब इलाहाबाद गए, वही उन्होंने प्रसिद्ध गायिका जानकी बाई से ठुमरी, गजल, खमसा सुनीं। उनकी मीठी आवाज से वे मुग्ध हो गए। राजा साहब ने बन्धू खां नाम के एक गवैये को गणेश मेला के अवसर पर इलाहाबाद भेजा। एक बार मशहूर नृत्यांगना आई और कहा जाता हैं विदाई में उसे लाख रुपये दिए गए। बिन्दादीन महाराज की शिष्या सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान पहले अकेले आई, फिर उन्हीं की ही शिष्या ननुआ और बिकुवा भी आने लगी।
राजा भूपदेव सिंह के दरबार में सीताराम महाराज (कत्थक-ठुमरी भावानिभय) मोहम्मद खाँ (बान्दावाले दो भाई , ख्याल टप्पा ठुमरी के लिए प्रसिद्ध) कोदउ घराने के बाबा ठाकुर दास (अयोध्या के पखावजी) संगीताचार्य जमाल खाँ, सादिर हुसैन(तबला) अनोखे लाल , प्यारे लाल (पखावज) चांद खाँ(सांरगी) , कादर बख्श आदि राजा भूपदेव सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये कलाकार लम्बे समय तक रायगढ़ दरबार में संगीत गुरू के पद पर नियुक्त रहे। उनके शिष्य कार्तिकराम , कल्याण दास मंहत, फिरतू महाराज, बर्मनलाल (कथक) , कृपाराम खवास (तबला) , बड़कू मियाँ (गायन) , जगदीश सिंह दीन, लक्ष्मण सिंह ठाकुर आदि ने दरबार में ही दीक्षित हो कर हिन्दुस्तान के बड़े शहरों में यहाँ का नाम रोशन किया।
दरबार के रत्न :-
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बीसवीं सदी से ही यहाँ नृत्य संगीत की सुर-लहरियां गूंजने लगी थी । पं. शिवनारायण , सीताराम, चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, चिरंजीलाल, झंडे खाँ, (कथक) , जमाल खाँ, चांद खाँ, (सांरगी) , सादिर हसन (तबला) , करामतुल्ला खां, कादर बख्श, अनोखेलाल, प्यारेलाल, (गायन) , ठाकुर दास महन्त , पर्वतदास (पखावज), जैसे संगीतज्ञ , नन्हें महाराज के बचपन में ही आ गये थे, जो रायगढ़ दरबार में नियुक्त थे। सन् 1924 में चक्रधर सिंह का राज्याभिषेक हुआ तो रायगढ़ नगरी धारा नगरी के रूप में तब्दील हो गई जिसके राजा स्वयं चक्रधर सिंह थे। उनकी योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने उन्हें 1931 में राज्याधिकार दिया और तब रायगढ़ के गणेश मेला में चार चांद लग गए। उनके जमाने में गणेशोत्सव को राष्ट्रव्यापी प्रसिद्ध मिली, जिसमें विष्णु दिगम्बर पुलस्कर, ओंकारनाथ ठाकुर, मनहर बर्वे, अल्लार खां, अलाउद्दीन खां, मानसिंह, छन्नू मिश्र, फैयाज खां साहेब, कृष्णकाव शंकर राव, (पंडित) ,करीम खां,.सीताराम(नेपाल) , गुरु मुनीर खां, अनोखेलाल(बनारस), बाबा ठाकुर दास, करामततुल्ला खां, कंठे महाराज(पखावज एवं तबला), जैसे उस्तादों ने अपनी -अपनी उपस्थिति से रायगढ़ के गणेशोत्सव को अविस्मरणीय बनाया।
रायगढ़ गणेशोत्सव में पं. विष्णु दिग्म्बर पुलस्कर अपने दस शिष्यों के साथ ग्यारह दिन रहे। शहनाई नवाज बिस्मिल्ला खां ने कई आयोजनों में शिरकत की थी, उन्होंने राजा साहब के विवाह में भी शहनाई की धुनों से रायगढ़ और सारंगढ़ के राजमहलों को रोमांचित कर दिया था। ओंकारनाथ ठाकुर भी कई बार गणेशोत्सव में शामिल हुए।
अच्छन महाराज, अलकनन्दा, बिहारीलाल, चिरौंजीलाल, चौबे महाराज, हीरालाल (जैपुर), जयलाल महाराज, कन्हैयालाल, लच्छू महाराज, रामकृष्ण वटराज (भारतनाट्यम), जैसे महान नर्तक और बिस्मिल्ला खां(शहनाई) इनायत खां, (सितार), जैसी हस्तियों ने रायगढ़ गणेशोत्सव में भाग लिया।
भारतीय संगीत में रायगढ़ नरेश का योगदान:-
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रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह का जन्म भारतीय नृत्य संगीत के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इनका जन्म भाद्र पक्ष चतुर्थी संवत 1962 अर्थात 19 अगस्त, 1905 को हुआ था। इनकी माताश्री का नाम रानी रामकुंवर देवी था। वे 1931 में सम्पूर्ण सांमती शासक घोषित किये गये। उनकी मृत्यु आश्विन कृष्ण चतुर्थी संवत 2004 अर्थात 07 अक्टूबर 1947 को हुई। राजा चक्रधर सिंह सर्वगुण सम्पन्न पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था। 40-44 साल की उम्र बहुत कम होती है पर अल्पायु में ही राजा साहब ने जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में बड़ी ऊंचाइयां छू ली थी जिन्हें सुनकर चकित होना पड़ता है।उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजमहल में हुई थी । इन्हें नन्हें महाराज के नाम से पुकारा जाता था। आठ वर्ष की उम्र में नन्हे महाराज को राजकुमार कालेज , रायपुर में दाखिला दिलाया गया था। वहाँ शारीरिक, मानसिक , दार्शनिक और संगीत की शिक्षा दी जाती थी। अनुशासन नियमितता और कभी कठिन परिश्रम के कारण नन्हे महाराज प्रिंसिपल ई.ए. स्टाँव साहब के प्रिय छात्र हो गये। वहाँ उन्हें बाक्सिंग, शूटिंग, घुडसवारी, स्काउट आदि की अतिरिक्त शिक्षा दी गई थी। नन्हे महाराज जनवरी 1914 से 1923 तक काँलेज में रहे। उसके बाद एक वर्ष के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए उन्हें छिंदवाड़ा भेजा गया था। प्रशिक्षण के दौरान इनका विवाह छुरा के जमींदार की कन्या डिश्वरीमती देवी से हुआ। राजा नटवर सिंह के देह - पतन के बाद 15 फरवरी 1924 को उनका राज्यभिषेक हुआ। ललित सिंह का जन्म भी इसी दिन हुआ। 1929 में उनकी दूसरी शादी सांरगढ़ नरेश जवार सिंह की पुत्री बंसतमाला से हुई, उनसे अगस्त 1932 में सुरेंद्र कुमार सिंह पैदा हुए। विमाता होने के कारण छोटी रानी लोकेश्वरी देवी ने इनका लालन -पालन किया। कुंवर भानुप्रताप सिंह बड़ी रानी की कोख से 14 मई 1933 को पैदा हुए। राजा चक्रधर सिंह को राज्य प्राप्त करने में बड़ी कठिनाईयां थी। विव्दानों की मदद से उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं तब कहीं सरकार ने उन्हें योग्य समझकर पूर्ण राजा घोषित किया।
राजा साहब प्रजा वत्सल थे। प्रजा हित में उन्होंने अनेक कार्य किये। उन्होंने बेगारी प्रथा बंद की। स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने राज्य की सर्वांगीण उन्नति के लिए सन् 1933 से रायगढ़ समाचार का भी प्रकाशन कराया था। राजा साहब को पशु-पक्षियों से प्यार था। उनके अस्तबल में पहाड़ी टट्टू और अलबक घोड़ा आकर्षण केंद्र थे। शेर के शिकार के लिए राजकुंवर गजमा नाम की हथनी विशेष रूप से प्रशिक्षित की गई थी। राजा साहब को पतंग- बाजी का भी शौक कम न था । उनके समय रोमांचक कुश्तीयां होती थीं। दरबार में पूरन सिंह निक्का, गादा चौबे जैसे मशहूर पहलवान भी रहते थे।
रायगढ़ घराने का अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा
साहब व्दारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार परण
हैं, जो नर्तन सर्वस्व, तालतोयनिधि, रागरत्न, मंजूषा,
मूरज परण पुष्पाकर और तालबल पुष्पाकर में
संकलित है। उनके शिष्य अधिकांशयता उन्हीं की
रचनायें प्रदर्शित करते हैं। इस उपक्रम के व्दारा गत-
भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुये। यहां कड़क
बिजली, दलबादल, किलकिलापरण जैसे सैकड़ों बोल,
प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पंक्षी आदि के
रंग ध्वनियों पर आधारित है। जाति और स्वभाव के अनुसार इनका प्रदर्शन किया जावे तो ये मूर्त हो उठते हैं।
चक्रप्रिया नाम से रचनाएँ की:-
छायावाद के प्रर्वतक कवि मुकुटधर पांडेय लंबे समय तक राजा साहब के सानिध्य में थे। उन्होंने एक जगह लिखा है आंखों में इतना शील वाला राजा शायद कोई दूसरा रहा होगा। राजा की उदारता, दानशीलता और दयालुता भी प्रसिद्ध है। लेकिन इन सबसे बढ़कर वे संगीत, नृत्य के महान उपासक थे। वे कला पारखी ही नहीं अपने समय के श्रेष्ठ वादक और नर्तक भी थे।तबला के अतिरिक्त हारमोनियम, सितार और पखावज भी बजा लेते थे। तांडव नृत्य के तो वे जादूगर थे। एक बार अखिल भारतीय स्तर के संगीत समारोह में वाईसराय के समक्ष दिल्ली में कार्तिकराम एवं कल्याण दास मंहत के कत्थक नृत्य पर स्वयं राजा साहब ने तबले पर संगत की थी। उनका तबलावादन इतना प्रभावशाली था कि वाईसराय ने उन्हें संगीत सम्राट से विभूषित किया। राजा साहब की संगीत साधना के कारण ही उन्हें सन् 1936 तथा 1939 म़े अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन, इलाहाबाद का अध्यक्ष चुना गया था। वे वाजिदली शाह और सवाई माधव सिंह की तरह कथक नृत्य के महान उन्नायकों में थे।
राजा चक्रधर सिंह को नृत्य की विधिवत शिक्षा तो किसी विशेष गुरु से नहीं मिली, लेकिन चाचा लाला नारायण सिंह की प्रेरणा और विलक्षण प्रतिभा के कारण उन्होंने तबला वादन और कथक नृत्य में महारत हासिल कर ली थी। पंडित शिवनारायण, झण्डे खान, हनुमान प्रसाद, जयलाल महाराज, अच्छन महाराज से दरबार में नृत्य की और भी बारीकियों और कठिन कायदों को सीख लिया था। उनके दरबार में जगन्नाथ प्रसाद , मोहनलाल, सोहनलाल, जयलाल, अच्छन, शंभू, लच्छू महाराज, नारायण प्रसाद जैसे कथकाचार्य नियुक्त थे। जिनसे उन्होंने अनुजराम, मुकुतराम, कार्तिक , कल्याण, फिरतू दास, बर्मनलाल और अन्य दर्जनों कलाकारों को नृत्य की शिक्षा दिलाई, जो आगे चलकर समूचे देश में मशहूर हुए। जय कुमारी और रामगोपाल की नृत्य शिक्षा रायगढ़ दरबार में ही हुई थी। राजा साहब ने संगीत और नृत्य के पराभव को देखते हुए उसके स्थान की ठान ली। राजा चक्रधर सिंह साहित्य रचना में भी पांरगत थे।
वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, बंगला, उड़िया आदि भाषाओं के
जानकार थे। उन्होंने चक्रप्रिया के नाम से हिन्दी में और-
फरहत के नाम से उर्दू में रचनाएं की। जिनमें रम्यरास,
जोशे फरहत, निगारे फरहत काफी प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ
हैं। बैरागढ़िया राजकुमार और अलकापुरी अपने समय
के बहुत लोकप्रिय उपन्यास हैं।
उन्होंने प्रेम के तीर नामक नाटक का भी प्रणयन किया था, जिसकी कई प्रस्तुतियां हुई थी। रायगढ़ दरबार में भानु कवि को पिंगलाचार्य की उपाधि मिली थी। आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी को पचास रुपया मासिक पेंशन दी जाती थी। उनके दरबार में कवि लेखकों का जमघट लगा रहता था। माखनलाल चतुर्वेदी , रामकुमार वर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, भगवती चरण वर्मा, दरबार में चक्रधर सम्मान से पुरस्कृत हुए थे। राजा चक्रधर सिंह के दरबार में संस्कृत के 21 पंडित समादृत थे। पंडित सदाशिवदास शर्मा, भगवान दास, डिलदास, कवि भूषण, जानकी वल्लभ शास्त्री, सप्ततीर्थ शारदा प्रसाद, काशीदत्त झा, सर्वदर्शन सूरी, दव्येश झा, आदि की सहायता से उन्होंने अपार धनराशि खर्च करके संगीत के अनूठे ग्रंथ नर्तन सर्वस्वम्, तालतोयनिधि, तालबलपुष्पाकर, मुरजपरणपुस्पाकर और रागरत्न मंजूषा की रचना की थी। प्रथम दो ग्रंथ मंझले कुमार सुरेन्द्र कुमार सिंह के पास सुरक्षित है जिनका वजन क्रमशः 8 और 28 किलो है। कथक को उनके मूल संस्कार और नये जीवन संदर्भो से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरुप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है। रायगढ नरेश चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने फूलने का यथेष्ट अवसर मिला। रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू और बर्मन लाल जैसे महान नर्तक तैयार हुये। उन्होंने अपने शिष्यों के व्दारा देश में कथक रायगढ़ का विकास किया। आज भी नृत्याचार्य रामलाल , राममूर्ति वैष्णव, बांसती वैष्णव, सुनील वैष्णव, शरद वैष्णव, मीना सोन, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के बाहर सराहनीय योगदान दे रहे हैं। कथक रायगढ़ घराने पर सबसे पहले हमने 1977-78 में बहस की शुरुआत की थी, जिसका समर्थन और विरोध दोनों हुआ, लेकिन आज तो कथक रायगढ़ घराना एक सच्चाई बन चुकी है। कुमार देवेंद्र प्रताप सिंह , नये सिरे से राजा साहब की फुटकर रचनाओं को सुश्री उवर्शी देवी एवं अपने पिता महाराज कुमार सुरेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में संकलित कर रहे हैं। कुंवर भानु प्रताप सिंह ने भी विरासत संजोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
डाँ०बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे,
जूदेव गार्डन, रायगढ़, छत्तीसगढ़
मो.नं. 9039011458
--
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रायगढ़ दरबार:-डाँ. बलदेव
रायगढ़ दरबार:-
------------------- डाँ०बलदेव
रायगढ़ दरबार का संगीत साहित्य का असली उत्कर्ष रायगढ़ का गणेशोत्सव है, जो सन् 1905 से एक माह तक राजमहल के दरबार और परिसर में होता था। राजा भूपदेव सिंह शास्त्रीय कलाओं के साथ लोक-कला के भी महान सरक्षक थे। दरबार में तो शास्त्रीय संगीत का आयोजन होता था, और परिसर में नाचा, गम्मत ,सुआ , डंडा , करमा की शताधिक पार्टियां रात भर राज महल परिसर को मशाल के प्रकाश में झांझ और घुंघरुओं की झनकार से गुलजार किए रहती थी।
राजा भूपदेव सिंह अपने भाई नारायण सिंह के संयोजकत्व में इनकी प्रतियोगिताएं रखवाते थे, और विजेता पार्टी को पुरस्कृत करते थे। राजा भूपदेव सिंह काव्य रसिक भी कम न थे। उनके गणेशोत्सव में देश के कोने कोने से जादूगर, पहलवान, मुर्गे-बटेर लड़ाने वाले , यू.पी. की नृत्यांगनाएं खिंची चली आती थीं। एक बार राजा साहब इलाहाबाद गए, वही उन्होंने प्रसिद्ध गायिका जानकी बाई से ठुमरी, गजल, खमसा सुनीं। उनकी मीठी आवाज से वे मुग्ध हो गए। राजा साहब ने बन्धू खां नाम के एक गवैये को गणेश मेला के अवसर पर इलाहाबाद भेजा। एक बार मशहूर नृत्यांगना आई और कहा जाता हैं विदाई में उसे लाख रुपये दिए गए। बिन्दादीन महाराज की शिष्या सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान पहले अकेले आई, फिर उन्हीं की ही शिष्या ननुआ और बिकुवा भी आने लगी।
राजा भूपदेव सिंह के दरबार में सीताराम महाराज (कत्थक-ठुमरी भावानिभय) मोहम्मद खाँ (बान्दावाले दो भाई , ख्याल टप्पा ठुमरी के लिए प्रसिद्ध) कोदउ घराने के बाबा ठाकुर दास (अयोध्या के पखावजी) संगीताचार्य जमाल खाँ, सादिर हुसैन(तबला) अनोखे लाल , प्यारे लाल (पखावज) चांद खाँ(सांरगी) , कादर बख्श आदि राजा भूपदेव सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये कलाकार लम्बे समय तक रायगढ़ दरबार में संगीत गुरू के पद पर नियुक्त रहे। उनके शिष्य कार्तिकराम , कल्याण दास मंहत, फिरतू महाराज, बर्मनलाल (कथक) , कृपाराम खवास (तबला) , बड़कू मियाँ (गायन) , जगदीश सिंह दीन, लक्ष्मण सिंह ठाकुर आदि ने दरबार में ही दीक्षित हो कर हिन्दुस्तान के बड़े शहरों में यहाँ का नाम रोशन किया।
दरबार के रत्न :-
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बीसवीं सदी से ही यहाँ नृत्य संगीत की सुर-लहरियां गूंजने लगी थी । पं. शिवनारायण , सीताराम, चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, चिरंजीलाल, झंडे खाँ, (कथक) , जमाल खाँ, चांद खाँ, (सांरगी) , सादिर हसन (तबला) , करामतुल्ला खां, कादर बख्श, अनोखेलाल, प्यारेलाल, (गायन) , ठाकुर दास महन्त , पर्वतदास (पखावज), जैसे संगीतज्ञ , नन्हें महाराज के बचपन में ही आ गये थे, जो रायगढ़ दरबार में नियुक्त थे। सन् 1924 में चक्रधर सिंह का राज्याभिषेक हुआ तो रायगढ़ नगरी धारा नगरी के रूप में तब्दील हो गई जिसके राजा स्वयं चक्रधर सिंह थे। उनकी योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने उन्हें 1931 में राज्याधिकार दिया और तब रायगढ़ के गणेश मेला में चार चांद लग गए। उनके जमाने में गणेशोत्सव को राष्ट्रव्यापी प्रसिद्ध मिली, जिसमें विष्णु दिगम्बर पुलस्कर, ओंकारनाथ ठाकुर, मनहर बर्वे, अल्लार खां, अलाउद्दीन खां, मानसिंह, छन्नू मिश्र, फैयाज खां साहेब, कृष्णकाव शंकर राव, (पंडित) ,करीम खां,.सीताराम(नेपाल) , गुरु मुनीर खां, अनोखेलाल(बनारस), बाबा ठाकुर दास, करामततुल्ला खां, कंठे महाराज(पखावज एवं तबला), जैसे उस्तादों ने अपनी -अपनी उपस्थिति से रायगढ़ के गणेशोत्सव को अविस्मरणीय बनाया। ,
रायगढ़ गणेशोत्सव में पं. विष्णु दिग्म्बर पुलस्कर अपने दस शिष्यों के साथ ग्यारह दिन रहे। शहनाई नवाज बिस्मिल्ला खां ने कई आयोजनों में शिरकत की थी, उन्होंने राजा साहब के विवाह में भी शहनाई की धुनों से रायगढ़ और सारंगढ़ के राजमहलों को रोमांचित कर दिया था। ओंकारनाथ ठाकुर भी कई बार गणेशोत्सव में शामिल हुए।
अच्छन महाराज, अलकनन्दा, बिहारीलाल, चिरौंजीलाल, चौबे महाराज, हीरालाल (जैपुर), जयलाल महाराज, कन्हैयालाल, लच्छू महाराज, रामकृष्ण वटराज (भारतनाट्यम), जैसे महान नर्तक और बिस्मिल्ला खां(शहनाई) इनायत खां, (सितार), जैसी हस्तियों ने रायगढ़ गणेशोत्सव में भाग लिया।
भारतीय संगीत में रायगढ़ नरेश का योगदान:-
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रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह का जन्म भारतीय नृत्य संगीत के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इनका जन्म भाद्र पक्ष चतुर्थी संवत 1962 अर्थात 19 अगस्त, 1905 को हुआ था। इनकी माताश्री का नाम रानी रामकुंवर देवी था। वे 1931 में सम्पूर्ण सांमती शासक घोषित किये गये। उनकी मृत्यु आश्विन कृष्ण चतुर्थी संवत 2004 अर्थात 07 अक्टूबर 1947 को हुई। राजा चक्रधर सिंह सर्वगुण सम्पन्न पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था। 40-44 साल की उम्र बहुत कम होती है पर अल्पायु में ही राजा साहब ने जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में बड़ी ऊंचाइयां छू ली थी जिन्हें सुनकर चकित होना पड़ता है।उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजमहल में हुई थी । इन्हें नन्हें महाराज के नाम से पुकारा जाता था। आठ वर्ष की उम्र में नन्हे महाराज को राजकुमार कालेज , रायपुर में दाखिला दिलाया गया था। वहाँ शारीरिक, मानसिक , दार्शनिक और संगीत की शिक्षा दी जाती थी। अनुशासन नियमितता और कभी कठिन परिश्रम के कारण नन्हे महाराज प्रिंसिपल ई.ए. स्टाँव साहब के प्रिय छात्र हो गये। वहाँ उन्हें बाक्सिंग, शूटिंग, घुडसवारी, स्काउट आदि की अतिरिक्त शिक्षा दी गई थी। नन्हे महाराज जनवरी 1914 से 1923 तक काँलेज में रहे। उसके बाद एक वर्ष के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए उन्हें छिंदवाड़ा भेजा गया था। प्रशिक्षण के दौरान इनका विवाह छुरा के जमींदार की कन्या डिश्वरीमती देवी से हुआ। राजा नटवर सिंह के देह - पतन के बाद 15 फरवरी 1924 को उनका राज्यभिषेक हुआ। ललित सिंह का जन्म भी इसी दिन हुआ। 1929 में उनकी दूसरी शादी सांरगढ़ नरेश जवार सिंह की पुत्री बंसतमाला से हुई, उनसे अगस्त 1932 में सुरेंद्र कुमार सिंह पैदा हुए। विमाता होने के कारण छोटी रानी लोकेश्वरी देवी ने इनका लालन -पालन किया। कुंवर भानुप्रताप सिंह बड़ी रानी की कोख से 14 मई 1933 को पैदा हुए। राजा चक्रधर सिंह को राज्य प्राप्त करने में बड़ी कठिनाईयां थी। विव्दानों की मदद से उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं तब कहीं सरकार ने उन्हें योग्य समझकर पूर्ण राजा घोषित किया।
राजा साहब प्रजा वत्सल थे। प्रजा हित में उन्होंने अनेक कार्य किये। उन्होंने बेगारी प्रथा बंद की। स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने राज्य की सर्वांगीण उन्नति के लिए सन् 1933 से रायगढ़ समाचार का भी प्रकाशन कराया था। राजा साहब को पशु-पक्षियों से प्यार था। उनके अस्तबल में पहाड़ी टट्टू और अलबक घोड़ा आकर्षण केंद्र थे। शेर के शिकार के लिए राजकुंवर गजमा नाम की हथनी विशेष रूप से प्रशिक्षित की गई थी। राजा साहब को पतंग- बाजी का भी शौक कम न था । उनके समय रोमांचक कुश्तीयां होती थीं। दरबार में पूरन सिंह निक्का, गादा चौबे जैसे मशहूर पहलवान भी रहते थे।
रायगढ़ घराने का अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा
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साहब व्दारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार परण -------------------------------------------------------------------हैं, जो नर्तन सर्वस्व, तालतोयनिधि, रागरत्न, मंजूषा,
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मूरज परण पुष्पाकर और तालबल पुष्पाकर में
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संकलित है। उनके शिष्य अधिकांशयता उन्हीं की
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रचनायें प्रदर्शित करते हैं। इस उपक्रम के व्दारा गत-
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भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुये। यहां कड़क
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बिजली, दलबादल, किलकिलापरण जैसे सैकड़ों बोल,
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प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पंक्षी आदि के
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चक्रप्रिया नाम से रचनाएँ की:-
छायावाद के प्रर्वतक कवि मुकुटधर पांडेय लंबे समय तक राजा साहब के सानिध्य में थे। उन्होंने एक जगह लिखा है आंखों में इतना शील वाला राजा शायद कोई दूसरा रहा होगा। राजा की उदारता, दानशीलता और दयालुता भी प्रसिद्ध है। लेकिन इन सबसे बढ़कर वे संगीत, नृत्य के महान उपासक थे। वे कला पारखी ही नहीं अपने समय के श्रेष्ठ वादक और नर्तक भी थे।तबला के अतिरिक्त हारमोनियम, सितार और पखावज भी बजा लेते थे। तांडव नृत्य के तो वे जादूगर थे। एक बार अखिल भारतीय स्तर के संगीत समारोह में वाईसराय के समक्ष दिल्ली में कार्तिकराम एवं कल्याण दास मंहत के कत्थक नृत्य पर स्वयं राजा साहब ने तबले पर संगत की थी। उनका तबलावादन इतना प्रभावशाली था कि वाईसराय ने उन्हें संगीत सम्राट से विभूषित किया। राजा साहब की संगीत साधना के कारण ही उन्हें सन् 1936 तथा 1939 म़े अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन, इलाहाबाद का अध्यक्ष चुना गया था। वे वाजिदली शाह और सवाई माधव सिंह की तरह कथक नृत्य के महान उन्नायकों में थे।
राजा चक्रधर सिंह को नृत्य की विधिवत शिक्षा तो किसी विशेष गुरु से नहीं मिली, लेकिन चाचा लाला नारायण सिंह की प्रेरणा और विलक्षण प्रतिभा के कारण उन्होंने तबला वादन और कथक नृत्य में महारत हासिल कर ली थी। पंडित शिवनारायण, झण्डे खान, हनुमान प्रसाद, जयलाल महाराज, अच्छन महाराज से दरबार में नृत्य की और भी बारीकियों और कठिन कायदों को सीख लिया था। उनके दरबार में जगन्नाथ प्रसाद , मोहनलाल, सोहनलाल, जयलाल, अच्छन, शंभू, लच्छू महाराज, नारायण प्रसाद जैसे कथकाचार्य नियुक्त थे। जिनसे उन्होंने अनुजराम, मुकुतराम, कार्तिक , कल्याण, फिरतू दास, बर्मनलाल और अन्य दर्जनों कलाकारों को नृत्य की शिक्षा दिलाई, जो आगे चलकर समूचे देश में मशहूर हुए। जय कुमारी और रामगोपाल की नृत्य शिक्षा रायगढ़ दरबार में ही हुई थी। राजा साहब ने संगीत और नृत्य के पराभव को देखते हुए उसके स्थान की ठान ली। राजा चक्रधर सिंह साहित्य रचना में भी पांरगत थे।
वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, बंगला, उड़िया आदि भाषाओं के
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जानकार थे। उन्होंने चक्रप्रिया के नाम से हिन्दी में और-------------------------------------------------------------------
फरहत के नाम से उर्दू में रचनाएं की। जिनमें रम्यरास,
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जोशे फरहत, निगारे फरहत काफी प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ -------------------------------------------------------------------
हैं। बैरागढ़िया राजकुमार और अलकापुरी अपने समय -------------------------------------------------------------------
के बहुत लोकप्रिय उपन्यास हैं।
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उन्होंने प्रेम के तीर नामक नाटक का भी प्रणयन किया था, जिसकी कई प्रस्तुतियां हुई थी। रायगढ़ दरबार में भानु कवि को पिंगलाचार्य की उपाधि मिली थी। आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी को पचास रुपया मासिक पेंशन दी जाती थी। उनके दरबार में कवि लेखकों का जमघट लगा रहता था। माखनलाल चतुर्वेदी , रामकुमार वर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, भगवती चरण वर्मा, दरबार में चक्रधर सम्मान से पुरस्कृत हुए थे। राजा चक्रधर सिंह के दरबार में संस्कृत के 21 पंडित समादृत थे। पंडित सदाशिवदास शर्मा, भगवान दास, डिलदास, कवि भूषण, जानकी वल्लभ शास्त्री, सप्ततीर्थ शारदा प्रसाद, काशीदत्त झा, सर्वदर्शन सूरी, दव्येश झा, आदि की सहायता से उन्होंने अपार धनराशि खर्च करके संगीत के अनूठे ग्रंथ नर्तन सर्वस्वम्, तालतोयनिधि, तालबलपुष्पाकर, मुरजपरणपुस्पाकर और रागरत्न मंजूषा की रचना की थी। प्रथम दो ग्रंथ मंझले कुमार सुरेन्द्र कुमार सिंह के पास सुरक्षित है जिनका वजन क्रमशः 8 और 28 किलो है। कथक को उनके मूल संस्कार और नये जीवन संदर्भो से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरुप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है। रायगढ नरेश चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने फूलने का यथेष्ट अवसर मिला। रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू और बर्मन लाल जैसे महान नर्तक तैयार हुये। उन्होंने अपने शिष्यों के व्दारा देश में कथक रायगढ़ का विकास किया। आज भी नृत्याचार्य रामलाल , राममूर्ति वैष्णव, बांसती वैष्णव, सुनील वैष्णव, शरद वैष्णव, मीना सोन, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के बाहर सराहनीय योगदान दे रहे हैं। कथक रायगढ़ घराने पर सबसे पहले हमने 1977-78 में बहस की शुरुआत की थी, जिसका समर्थन और विरोध दोनों हुआ, लेकिन आज तो कथक रायगढ़ घराना एक सच्चाई बन चुकी है। कुमार देवेंद्र प्रताप सिंह , नये सिरे से राजा साहब की फुटकर रचनाओं को सुश्री उवर्शी देवी एवं अपने पिता महाराज कुमार सुरेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में संकलित कर रहे हैं। कुंवर भानु प्रताप सिंह ने भी विरासत संजोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
डाँ०बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे,
जूदेव गार्डन, रायगढ़, छत्तीसगढ़
मो.नं. 9039011458
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मंगलवार, 1 अगस्त 2017
लेख
राजा चक्रधर सिंह प्रणीत अनूठे संगीत ग्रंथः संगीत नृत्य संबंधी पाँच चर्चित ग्रंथ_ ___________________________
रायगढ़ घराने के चार कीर्ति स्तंभ:-डाँ. बलदेव
रायगढ़ घराने के चार कीर्ति स्तंभ:--
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लेखक:-डाँ. बलदेव
राजा चक्रधर सिंह को कथक नृत्य के विकास के लिए योग्य शिष्यों की तलाश थी। अक्सर गणेशोत्सव के समय जो गम्मत या नाचा पार्टियां आती, उन्हीं में से बाल कलाकारों का चुनाव किया जाता था। बाकायदा इन बाल कलाकारों का खर्चा , आवास व्यवस्था समेत 25 रूपये माहवारी छात्रवृति भी दी जाती थी। दरबार में प्रथम नृत्य गुरु जगन्नाथ प्रसाद थे और उनका पहला शिष्य थे अनुजराम मालाकार । वे रायगढ़ के पूर्व नेपाल दरबार में नियुक्त थे। कालांतर में पं. कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतू महाराज एवं बर्मनलाल जी इस घराने से दीक्षित होकर चार कीर्ति स्तंभ के रुप में सामने आये।
पं. कार्तिकरामः-
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अपने जीवन में कथक.नृत्य का पर्यायवाची बन गये कार्तिकराम का जन्म चांपा-जांजगीर के एक छोटे से गाँव भंवरमाल में सन् 1910 में हुआ था। वे अपने चाचा माखनलाल की गम्मत नाचा पार्टि में बतौर बाल कलाकार के रुप में हिस्सा लिया करते थे। एक दफा गणेश मेला के दौरान परी के रूप में राजा चक्रधर सिंह ने उन्हें देख लिया। बालक जितना सुन्दर था उसका पद चालन उतना ही सघन। राजा साहब ने तुरंत उन्हें दरबार के लिए चुनकर खान-पान और 25 रूपये मासिक वजीफे की व्यवस्था कर दी। कार्तिकराम की प्रारंभिक शिक्षा स्व. शिवनारायण, सुन्दरलाल, मोहनलाल और अच्छन महाराज के जरिये हुईं। उन्हें अच्छन महाराज से लास्य एवं शंभू महाराज से गति की तालीम मिली जबकि लच्छू महाराज से भाव पक्ष। कार्तिकराम जी को पहली प्रसिध्दि मिली इलाहाबाद म्यूजिक काँन्फेंस में वहां रायगढ़ दरबार की धूम मच गई, और कार्तिक समुचे देश में प्रसिद्ध हो गये। एक बार पुनः राजा साहब ने इलाहाबाद के उसी आखिर भारतीय संगीत समारोह मे कार्तिक राम के साथ कल्याणदास को मंच पर उतारा। स्वयं तबले पर संगति भी की।
1938 (रायगढ़ टाउन हॉल),1940(जालंधर),1940(मेरठ),1942(बिहार बैजनाथ धाम), 1943(मिरजापुर), 1945(कराची), इटावा 1954 के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में अपना एवं अपने साथ रायगढ़ दरबार का नाम रोशन करने वाले कार्तिकराम जी ने देश का कोई ऐसा समारोह न था जहाँ दस्तक न दी हो।अपने समय के इस महान नर्तक को सन् 1978 में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप एवं 1981 मे शिखर सम्मान (भोपाल) समेत अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे।
पं. कल्याण दासः-
प्रो. कल्याण दास देश के महान नर्तकों में से एक थे।उनका जन्म जांजगीर जिला के नवापारा गांव में 10अक्टूबर, सन् 1921 को हुआ था।पिता कुशलदास महन्त स्वयं संगीतज्ञ थे।वे इसराज, सारंगी आदि बजाने में प्रवीण थे।कल्याण दास बचपन से ही नृत्य की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनकी आवाज. भी बड़ी मीठी थी। संयोग से एक बार राजा चक्रधर सिंह ने सांरगढ़ दरबार में बालक कल्याणदास को नाचते हुए देख लिया, वे इस कदर प्रभावित हुए कि अपने ससुर से कल्याण दास को मांग कर उसे शिष्य बना लिया।कल्याणदास दरबार में अनुजराम, कार्तिकराम, और फिरतू महाराज के बाद आए। उन्हें कथक नृत्य की शिक्षा पं. जयलाल महाराज, अच्छन महाराज(भाव), लच्छू महाराज(अभिनय),शंभू महाराज (तीन ताल एंव खूबसूरती), नारायण प्रसाद(एक ताल), आदि गुरुओं से मिली। ख्याल, टप्पा, ठुमरी और गजल की तालीम हाजी मोहम्मद से प्राप्त की और नत्थू खाँ से उन्होंने तबले की उच्च शिक्षा ली। मुनीर खाँ, कादर बख्श और अहमद जान थिरकवा से तबले के कठिन कायदे सीखें। राजा साहब उन पर खास ध्यान दिया करते थे। नृत्य सम्राट कल्याणदास को पहली बार 1936 में इलाहाबाद म्यूजिक काँन्फेंस में उतारा गया। इसके बाद मेरठ, बरेली1934,रायगढ़1942,दिल्ली1944,खैरागढ़ आदि के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलनों में भाग लेकर पुरस्कार प्राप्त किया। 1964 में वे इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ में प्रोफेसर नियुक्त हुए। मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग से शिखर सम्मान प्राप्त कल्याण दास ने अपने अंतिम दिनों में भाव नृत्य नाम का एक सुंदर ग्रंथ भी लिखा।
पं. बर्मनलाल:-
कथक नृत्य के शिखर पुरूष पं. बर्मनलाल स्वयंसिध्द कलाकार थे। उनका जन्म वर्तमान चांपा-जांजगीर जिला में 24 अप्रेल, सन् 1916 को हुआ था और देहावसान 86 वर्ष की उम्र में 2 फरवरी,2005 को । पिता अजुर्नलाल किसान थे। वे चिकारा (सारंगी) के कुशल वादक थे। जैजैपुर निवासी उनके मातुल शिवप्रसाद एवं मुकुतराम इस अंचल के चर्चित गम्मतकार थे। बर्मनलाल जी को संगीत की आरंभिक शिक्षा पिता एवं मातुल श्री से प्राप्त हुई। बचपन से नाचा के कलाकार थे। उनके मातुल श्री मुकुतराम और घुरमिनदास राजा भूपदेव सिंह तथा चक्रधर सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये दो कलाकार , जयपुर घराने के गुरु नारायण प्रसाद और सीताराम जी व्दारा पहली बार कथक में दीक्षित हुए। जब राजा चक्रधर सिंह गद्दीनशीन हुए तो उन्होंने मुकुतराम जी को दरबार में फिर से बुला लिया। उन्हीं के साथ मात्र आठ नौ वर्ष की उम्र में बर्मनलाल जी रायगढ़ आए। दुबारा वे 1929 में रायगढ़ आए। किशोर बर्मनलाल जी के नृत्य से प्रभावित हो कर राजा चक्रधर सिंह ने उन्हें नृत्य संगीत की ऊंची तालीम दिलाई।
इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने राजा चक्रधर सिंह के नेतृत्व में अपने गुरु भाईयों पं. कार्तिकराम , पं. कल्याण दास महन्त, पं. फिरतू महाराज के साथ साथ एक नूतन नृत्य शैली को जन्म दिया। बर्मनलाल जी को कथक की शिक्षा जयपुर घराने के जयलाल महाराज, सीताराम, नारायण प्रसाद और लखनऊ घराने के उस्ताद अच्छन महाराज, लच्छू महाराज, शंभू महाराज से गणितकारी (ताल-वाद्य) और नारायण प्रसाद से गायन की शिक्षा मिली। प्रसिद्ध तबलावादक कादर बख्श और नत्थू खाँ से तबले की शिक्षा ली।
बर्मनलाल जी उन भाग्यवान शिष्यों में थे, जिन्हें जयपुर और लखनऊ दोनों घरानों की शिक्षा मिली।
बर्मनलाल जी रायगढ़ दरबार में सन् 1932 से 1947 तक नृत्य की कठिन साधना करते रहे। सन् 1936 में इलाहाबाद और कानपुर के सम्मेलनों में वे प्रथम आए। इससे राजा चक्रधर सिंह इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें केलो तट पर रहने के लिए पर्याप्त जगह दे दी और फिर बर्मनलाल जी रायगढ़ निवासी हो कर रह गए। राजा चक्रधर सिंह की चर्चा मात्र से वे रोमांचित हो जाते थे। वे होठों से ही बांसुरी का ऐसा मधुर स्वर निकालते थे कि लोग चकित हो जाते थे। वे शायरी का भी शौक रखते थे। मौके पर शेर कह देना उनके लिए बाँए हाथ का खेल था। बर्मनलाल जी को सबसे पहले 26 जनवरी, 1954 को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश राज्य सरकार की ओर से माननीय मंडलोई जी ने उन्हें प्रशस्ति पत्र दे कर सम्मानित किया। गांधर्व महाविद्यालय देहली, प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद, श्रीराम संगीत महाविद्यालय रायपुर, भातखम्डे संगीत महाविद्यालय बिलासपुर और अनेक निजी तथा शासकीय सांस्कृतिक संस्थाओं ने भी उन्हें सम्मानों, पुरस्कारों से नवाजा था। पं. बर्मनलाल जी के चलनेे-फिरने की हर अदा में नृत्य संगीत प्रकट होता था।
पं. फिरतू महाराज:-
फिरतू महाराज का जन्म मेरे गाँव नरियरा के ही पास के गाँव बुंदेला मे 7जुलाई, 1921 को एक मंदिर के पुजारी के यहाँ हुआ था। रायगढ़ दरबार के हारमोनियम मास्टर मुकुतराम जी अक्सर अपने रिश्तेदार के यहाँ. बुंदेला जाते थे, और फिरतू महाराज के पिता त्रिभुवन दास वैष्णव के पास बैठते थे। उन्होंने रायगढ़ दरबार के लिए फिरतू और भाई घासी को उनके पिता से मांग लिया। फिरतू महाराज 1929 में मुकुतराम के साथ रायगढ़ आए। कार्तिकराम के बाद जयलाल महाराज के दूसरे शिष्य के रूप में फिरतू महाराज की शिक्षा शुरू हुई। पंडित जी इन दोनों बालकों को एक साथ नृत्य सिखलाते थे। पं. फिरतू महाराज ने जयलाल महाराज से तबले की भी शिक्षा ली। अच्छन महाराज, सीताराम जी और हरनारायण से गायन की, जगन्नाथ महाराज से भाव-नृत्य की, और मुहम्मद खाँ और छुट्टन भाई से गायन की तालीम पाई।
फिरतू महाराज स्वतंत्र विचारों के कलाकार थे। अपने गाँव में उन्होंने भागवतदास नाम के एक लड़के को कथक में इतना योग्य बना दिया कि वह बड़े मंचों में भी प्रशंसित और पुरस्कृत होने लगा। एक बार फिरतू महाराज ने स्वयं उसे रायगढ़ गणेशोत्सव की प्रतियोगिता में उतारा। पं. जयलाल महाराज वहाँ उपस्थित थे। राजा साहब भागवतदास का नृत्य देख कर चमत्कृत हो गए और सोचने लगे कि फिरतू दास इसी तरह लड़को को गाँव में तालीम देते रहे तो दरबार के नौनिहालों का क्या हाल होगा? राजा साहब ने उन्हें रायगढ़ में फिर नियुक्त करना चाहा , पर वे नहीं माने और सीधे गाँव लौट गए।. उन्हें सबसे पहले 1933 में कार्तिकराम और जयकुमारी के साथ म्यूजिक काँन्फेंस आँफ इलाहाबाद (विश्वविद्यालय हाल) में उतारा गया।वहाँ उन्हें पुरस्कार एवं प्रमाण पत्र हासिल हुआ। दूसरी बार वे 1936 में इलाहाबाद के संगीत सम्मेलन में भाग लिए जहाँ राजा साहब स्वयं उपस्थित थे। तीसरी बार वे राजा चक्रधर सिंह के साथ कानपुर के संगीत सम्मेलन में गए। उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में उन्होंने शिष्य तैयार किए। फिरतू महाराज में ताण्डव की प्रमुखता थी। वे पढ़न्त में माहिर थे।
पं. रामलाल:-
दरबार की प्रमुख हस्तियों में अनुजराम, कार्तिकराम, मुकुतराम, फिरतू दास, कल्याण दास और बर्मनलाल के बाद पं. कलागुरु रामलाल नृत्याचार्य का नम्बर आता है। रामलाल को नृत्य की प्रारंभिक शिक्षा उनके पिता कार्तिकराम जी , फिर पं. जयलाल एवं दर्जनों गुरुओं से रायगढ़ दरबार में मिली थी। रामलाल जी का जन्म 6मार्च, 1936 को हुआ था। उनकी शैक्षणिक शिक्षा भले ही मिडिल स्कूल तक हो पाई , परन्तु उन्हें नृत्य संगीत की ऊंची शिक्षा मिली है, जो संगीत विद्यालयों में उस समय दुर्लभ थी। रामलाल जी ने 4 वर्ष की उम्र से नृत्य संगीत की शिक्षा 11वर्षों तक ली। कार्तिकराम जी के अनुसार वे उनके साथ करीब -करीब देश के सभी बड़े बड़े शहरों में कार्यक्रम दे चुके हैं। रामलाल नृत्य के अलावा तबला वादन और ठुमरी गजल गायकी में विख्यात हैं। राजा साहब कृत निगाहें-फरहत और जोशे फरहत के सैकड़ों शेर उन्हें आज भी कण्ठस्थ हैं। म.प्र. के भोपाल स्थित चक्रधर नृत्य केन्द्र में लम्बी अवधि तक नृत्य गुरु के रूप में सेवाएं देने का सुदीर्घ अनुभव रहा है।
आपके प्रमुख शिष्यों में सुचित्रा डाकवाले, अल्पना वाजपेयी, रुपाली वालिया, मोहिनी पूछवाले, विजया शर्मा, भूपेन्द्र बरेठ , दादूलाल, अनुराधा सिंह आदि है।
1995 में संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली से से पुरस्कृत एवं छत्तीसगढ़ शासन संस्कृति विभाग का चक्रधर सम्मान 2006 प्राप्त हुए है।
लेखक:- डाँ.बलदेव
श्री शारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे, श्रीराम काँलोनी,चक्रधर नगर, रायगढ़ मो.नं.9826378186
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बुधवार, 26 जुलाई 2017
रायगढ़ का कथक घराना:-लेखक-डाँ. बलदेव
रायगढ़ का कथक घराना:-लेखक:-डाँ बलदेव
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कथक को उसके मूल संस्कार और नये संदभों से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरूप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है। रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने फूलने का खूब अवसर मिला। इस दरबार ने कार्तिक, कल्याण, फिरतू, बर्मन और रामलाल जैसे श्रेष्ठ कथक नर्तक तैयार किये। इसकी अपनी विशिष्ट शैली रही उसी शैली से निखरकर काफी शिष्य कालांतर में तैयार हुए। राजा साहब विशुद्ध कला पारखी थे। वे कला का संबंध आत्म कल्याण के साथ ही जन रूचि के परिष्कार से जोड़ते थे।उन्होंने नित नवीन प्रयोगशील कथक को शास्त्रीय स्वरूप देना चाहा । इसके लिए उन्होंने लखनऊ एंव जयपुर दोनोँ घरानों के आचार्यों का सहयोग आवश्यक समझा ।
नृत्य-संगीत के प्रायः सभी घरानों के गंभीर अध्ययन और विद्वानों के साथ चिन्तन -मनन के पश्चात यह नृत्य शैली रायगढ़ कथक घराना के नाम से 1978 में प्रचारित-प्रसारित की गई ।
विशेषताएं:-
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रायगढ़ घराने के कथक ने इन दोनों घरानों की मिश्र शैली का नायाब उदाहरण नजर आता है। यहाँ जयपुर जैसी तैयारी है तो लखनऊ जैसा भाव प्रदर्शन और खूबसूरती । यहाँ का ठाठ न तो जयपुर घराने सा बड़ा न लखनऊ सा छोटा। यहाँ हवा में लहराते केतु के प्रतीक त्रिपटाकहस्त का अधिक महत्व है, इसलिए राजा साहब ठाठ की जगह त्रिपटाकहस्त कहना अधिक पंसद करते थे। उस समय जयपुर में विलंबित का काम अधिक होता था । लखनऊ में कम, लेकिन अति विलंबित का यहीं से प्रारंभ हुआ। यहाँ की अति विलंबित लय उस समय 64 मात्राओं तक की होती थी । संकीर्ण, खण्ड, मिश्र, तिश्र एंव पाँच जातियों का प्रयोग यहाँ की खासियत है । चक्करदार परण यहीं की उफज है। रायगढ़ घराने की कथक की सबसे बड़ी विशेषता है - उसका शास्त्र सम्मत होना और शास्त्र का अप्रतिम और अप्रकाशित ग्रंथ है। - नर्तक सर्वस्वम्। इस प्रकार रायगढ़ घराने का कथक अभिनय, समस्त रसों, भावों-अनुभावों से युक्त मुद्राओं से परिपूर्ण है।
दिग्गजों का दस्तक:-
वस्तुतः कथक का देश में आज जो स्वरूप है उसका विकास रायगढ़ दरबार में ही हुआ। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में रायगढ़ में प्रसिद्ध कथकों एंव संगीतज्ञों का आना जाना शुरु हो गया था। यहां चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, सीताराम, चिंरजीलाल, झंडे खाँ, और शिवनारायण आदि कथकाचार्य तो राजा चक्रधर सिंह के बचपन में ही आ गए थे। इतना ही नहीं जमाल खाँ, सादिक हुसैन(तबला), चाँद खाँ(सारंगी), करामतुल्ला, कादर बख्श, अनोखेलाल, प्यारेलाल, प्यारे साहब(गायन),ठाकुर दास,मंहत,पर्वतदास(पखावज),आदि संगीतज्ञ भी राजा भूपदेव सिंह के दरबार की शोभा बढ़ाते थे।
राजा भूपदेव सिंह के समय मोहरसाय, घुरमीनदास और सहसराम को पहले-पहल कथक की शिक्षा देने का उपक्रम हुआ। पंडित चुन्नीलाल, शिवनारायण और झंडे खाँ इनके गुरु नियुक्त हुए। कार्तिक राम के चाचा माखनलाल और अनुज के पिता जगदेव माली उस समय इस क्षेत्र के प्रसिद्ध लोक-नर्तक थे। राजा भूपदेव सिंह की इन पर विशेष कृपा थी। इन्होंने भी कार्तिकराम और अनुजराम के लिए जमीन तैयार की। राजा नटवर सिंह के देहांत के बाद राजा चक्रधर सिंह शासक हुए और शीघ्र ही रायगढ़ संगीत, नृत्य और काव्य का त्रिवेणी संगम हो गया।
शासक की बागडोर संभालते हुए अपना ध्यान कथक और संगीत के विकास पर केन्द्रित किया। उन्होंने शिवनारायण, जगन्नाथ प्रसाद, पं. जयलाल, अच्छन महाराज, शिवलाल, सुखदेव प्रसाद, सुन्दरलाल, हनुमान प्रसाद, झंडे खाँ,लच्छू महाराज, शंभू महाराज, सीताराम, ज्योतिराम, मोतीराम आदि श्रेष्ठ आचार्यों की नियुक्ति की।
घराने का वैशिष्टय:-
रायगढ़ घराने के अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा साहब व्दारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार परण है। जो नर्तन सर्वस्व, तालतोयनिधि, रागरत्न मंजूषा, मुरजपरण पुष्पाकर और तालबल पुष्पाकर में संकलित है। उनके शिष्य अधिकांशयता उन्हीं की रचनाएं प्रदर्शित करते हैं। यहाँ कड़क , बिजली, दल बादल, किलकिला परण जैसे सैकड़ों बोल, प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पक्षी आदि के रंगध्वनियों पर आधारित है। जाति और स्वभाव के अनुसार इनका प्रर्दशन किया जाए तो ये मूर्त हो उठते हैं।
(कार्तिक-कल्याण की जोड़ी की बेमिसाल प्रतिभा को पहचान कर जब दतिया नरेश ने राजा साहब से इन दोनों की मांग की, तो राजा चक्रधर सिंह ने इन्हें अपनी दोनों आँखे बताकर इन्हें कुछ दिन के लिए भी देने से इनकार कर दिया था)
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शनिवार, 15 अप्रैल 2017
गाँव (कविता)बसन्त राघव
गांव
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मैं तो गांव जातेंव संगवारी
गांव जातेंव
शहर म जीव असकट होगे
मैं तो गांव जातेंव
महतारी के अंचरा ल धर के
मैं
पाछू पाछू किंदरतेंव
बनके सुरता कर कर
मैं लइका बनतेंव
गली के धुर्रा माटी म
लोट पोट होके मैं खेलतेंव
जिहाँ जिहाँ खेलौं मैं
भंवरा अउ बांटी
उहें जाके खेलतेंव मैं
फेर भंवरा बांटी
पीपर के पीपरी ल
बिन बिन मैं खातेंव
उल्हा पाना पीपर के
सीसरी बजातेंव
मैं तो गांव जातेंव....
गिया गांठी के संगे संगे
बटुरा के खेत म उतरतेंव
नइ तो बरछा म पेल के
कुसियार ल चुहकतेव
गातेंव में साल्हो ददरिया
अउ बनतेंव मैं कन्हैया
सुआ - भोजली के गीत सुन के
साध लगथे
संगवारी मोर
मैं तो गांव जातेंव
साध हांवे अउ बड़का
ठाकुर देव के चौरा म ढुलगंतेंव
चढ़े परसाद जेकर
हेर हेर खातेंव
ठाकुर देव ल ठगतेंव थोरकन
थोरकन ठगातेंव।
सुरता आथे संगवारी
मोर गांव
चंदा -सुरुज , तलाव पोखरी
तिरैया संझा के याद आथे
सुरता आथे कोइली के कूक
अउ तोता मैना के
मिठ्ठ बोली के
मन होथे संगी
पंड़की परेवा कस
उड़ जातेंव गाँव म
मैं तो गांव जातेंव संगवारी
मैं तो गांव जातेंव ।
* * *
बसन्त राघव
पंचवटी नगर,बोईरदादर,रायगढ़,छत्तीसगढ़
मो.न. 9039011458
ं
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शनिवार, 18 मार्च 2017
लघुकथा :-मित्र का उदास चेहरा सूर्ख होता हुआ
लघुकथा
मित्र का उदास चेहरा सूर्ख होता हुआ
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दोनों में जब भी बहस होती थोड़ी देर बाद उसका स्टाँक खत्म हो जाता और वह उत्तेजित होकर सहसा ही चुप हो जाता। मेरी संवेदनशीलता बढ़ जाती और बगैर उससे सहमत हुए भी उसे खुश करने में लग जाता।आज उन दिनों का स्मरण करता हूँ तो सुखद आश्चर्य से भर जाता हूँ।
उन दिनों हम एक साथ रहते थे, परन्तु एक दूसरे से शायद ही कभी हम सहमत हुए हों और आज तो असहमति इतनी बढ़ गयी है , कि उससे दूर रहने में ही कुछ अधिक अच्छा लगता है। उसका अहंकार फल-फूल रहा है, जलन मुझे हो रही है, यह हमारी नियति है।
उन दिनों हम दोनों के बीच नये विषयों पर खूब बहस होती थी। देश-विदेश के समाचार जो हमें अखबारों से मिलते थे उसकी हम अनाधिकार काट-छांट किया करते थे, जैसे स्वयं हम उसे रिप्रिंट करने जा रहे हों, लेकिन बीच में कुछ ऐसा होता कि हम एक दूसरे के विचारों की कतरव्योंत करने लगते और आए दिन किसी विचार पर हम झगड़ बैठते। फासला बढ़ जाता , लेकिन ज्यादा दिन अलगाव की स्थिति नहीं रह पाती। फासला धीरे धीरे कम होता और हम फिर बहसबाजी में उलझ जाते। दरअसल बहस के बिना हम एक क्षण भी नहीं रह सकते। चार-चार, पांच-पांच दिनों के फासलों के बीच भी अपने आप तर्क कुतर्क करते या अपनी बातों के पक्ष में जन-समर्थन जुटानें में लग जाते।
बहुत वर्ष हो गए हम अलग अलग मकान में रहते आ रहे हैं। अब बहस नहीं होती , मुलाकातें भी कहां हो पाती है। हम कब अलग हुए , इस बात का स्मरण करने की इच्छा बिना ही स्मरण कर रहा हूँ।
मई का महीना था और रविवार पड़ा था। मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने गया.था। उस समय हम दोनों अत्यधिक भावुक थे। बातें कम हो रही थी लेकिन अच्छी हो रही थी। टिकिट मैंनें उसके हाथ में थमा दी।
प्लेट फार्म नं.4 में गाड़ी आने वाली थी, लेकिन वह घन्टे भर लेट थी और हम फिर किसी बात को लेकर उलझ पड़े। वह मेरी बात माननें को तैयार नहीं , मैं उसकी नहीं। गाड़ी आने पर दोनों का ध्यान उधर गया। मैं झटपट सामान को चढ़ाकर उसे बर्थ पर बैठा, नीचे उतर गया गाड़ी आई और गयी। मेरा मित्र का हाथ हिला और मैं लौट पड़ा। लौटते हुए उन बातों को याद कर रहा था कि किस बात को लेकर हम उलझ गये थे, लेकिन वह बात याद नहीं आ रही थी। कुछ ऐसा लग रहा था कि बहुत कुछ छूट गया है। मन कचोट रहा था, लम्बी सड़क और लम्बी हो रही थी, एकदम सूनी सूरज की जगह मित्र का उदास चेहरा आसमान में सूर्ख हो रहा था।
बसन्त राघव
पंचवटी नगर, बोईरदादर,रायगढ़, छत्तीसगढ़
मो.नं.9039011458
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मंगलवार, 14 मार्च 2017
तलाश (कविता)
तलाश
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पाषाण जैसी जिन्दगी
नरम घास कहाँ तलाश करुँ
सर्द अंधेरी रात है,
सूर्य -किरण कहाँ तलाश करुँ
रिसता है घाव
बहुत गहरा
हंसने के बहाने
कहाँ तलाश करुँ
नदियों में गटरों का गन्दा जल
पतित पावनी कहाँ
कहाँ तलाश करुँ
हर शख्स है यहाँ जाना-पहचाना
नया इंसान कहाँ
कहाँ तलाश करुँ
दग़ा दे गया कोई सपना
सच्चाई कहाँ तलाश करुँ
दग़ा दे गया कोई अपना
दर्दे दिल कहाँ तलाश करुँ
गोखरु गड़ रहे पांवों में
बियाबान में लोचनी कहाँ तलाश करु
हमसफर हमराज हो गये
तुरुप का बेगम कहाँ तलाश करुँ
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बसन्त राघव
पंचवटी नगर, बोईरदादर,रायगढ़,
शुक्रवार, 10 मार्च 2017
तलाश (कविता) बसन्त राघव
तलाश
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पाषाण जैसी जिन्दगी
नरम घास कहाँ तलाश करुँ
सर्द अंधेरी रात है,
सूर्य -किरण कहाँ तलाश करुँ
रिसता है घाव
बहुत गहरा
हंसने के बहाने
कहाँ तलाश करुँ
नदियों में गटरों का गन्दा जल
पतित पावनी कहाँ
कहाँ तलाश करुँ
हर शख्स है यहाँ जाना-पहिचाना
नया इंशान कहाँ
कहाँ तलाश करुँ
दग़ा दे गया कोई सपना
सचाई कहाँ तलाश करुँ
दग़ा दे गया कोई अपना
दर्दे दिल कहाँ तलाश करुँ
गोखरु गड़ रहे पांवों में
बियाबान में लोचनी कहाँ तलाश करु
हमसफर हमराज हो गये
तुरुप का बेगम कहाँ तलाश करुँ
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बसन्त राघव
पंचवटी नगर, बोईरदादर,रायगढ़,छत्तीसगढ़
मो.नं.8319939396
सोमवार, 6 फ़रवरी 2017
डाँ० बलदेव की कहानी
कहानी:-
मंगलू चोर
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मंगल सिंग को कोई नहीं जानता। मंगलू चोर को सब जानते हैं। लूटमार के उसके सैकड़ों किस्से बहुतों की जुबान पर है। मंगल सिंह भरे-पूरे किसान का लड़का था। जमीन की मामूली सी विवाद पर भाई मारा गया। जमीन से बेदखल होने पर मंगल सिंह बागी हो गया। उसके नाम से जमीदारों की नींद हराम होने लगी। मंगलू जब भी मौका पाता सेठ -साहूकारों , मालगुजारों और जमीदारों के यहाँ चोरी करता।चोरी का माल वह गरीब और जरुतमन्द लोगों में बाँट दिया करता था। जनश्रुतियों में मंगलूचोर आज भी जिन्दा है।.... वह ऊँची ऊँची हवेलियों को फर्लांग जाता है। उसके छूते ही ताले टूट जाते हैं। बिना चाबी की तिजोरियाँ खुल जाती है। पीले चावल छिड़कते ही घर मालिक मूक दर्शक हो जाता है। जितनी आवश्यकता होती उतनी ही उठाकर ले जाता । शाम को फिर खाली हो जाता। माखूर - गुड़ाखू, चोंगी -बीड़ी , भाँग-गाँजा दारु जैसे नशे से वह दूर रहता। निंगोटी का भी वह सच्चा था। गरीब लोगों में उसकी पूजा होती थी। लोग उसे फरिश्ता समझते थे।लेकिन .सेठ साहूकारों , जमीदारों के लिए वह एक काँटा था। दूर दूर तक वह अब मंगलू चोर के नाम से पुकारा जाने लगा।
खाने-पीने , रहने-सोने का उसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं था। रात के अंधेरे में जिस गरीब-किसान का दरवाजा खटखटाता , वहाँ जो मिलता उससे ही पेटपूजा कर रात के अंधेरे में गायब हो जाता था।चोरियाँ वह रात में ही करता था। कहते हैं उसे नींद नहीं आती थी। दगाबाज या मुखवीरों के लिए तो वह यमराज ही था। कोई गरीब को सताता , वह सूंघ ही लेता और दूसरे-तीसरे दिन उसके हौसले ठिकाने लग जाते। एक - दो माल-गुजार तो उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते थे। जमीदार हुकुमसिंह के बहनोई साहब बेरीस्टर थे। उन्होंने अँगरेजी सरकार से लिखा-पढ़ी की।
जिस जंगल में वह कभी -कभी विश्राम करता था, उसके आस-पास रंगरुटों का कैम्प लगा। गाँव से छीनकर मूर्गे-बटोर लाते, काटते और शराबखोरी शुरु हो जाती। रात को जलसा जैसा दृश्य नजर आने लगा।मंगलू चोर मशक की नाई कैसे तो रेशमी झालरों वाले कैम्प में घुसा। मेजर साहब खर्राटे भर रहे थे। टेबल पर रखी लैम्प की बत्ती मंगलू ने तेज की। एक नजर साहब-बहादुर के चेहरे पर दौड़ाई। फिर आहिस्ते से साहब बहादुर की कलाई से घड़ी और अँगुली से हीरे जड़े सोने की अँगूठी उतार ली। वह छावनी में कब आया कब घुस कर वापस हुआ किसी को पता नहीं चला।सुबह साहब बहादुर उठे। हाथ-मुँह धोया।कलई सूनी थी। गद्दे पर देखा..... आसपास देख कहीं पता न.चला कि अचानक ही उनका ध्यान अँगुली पर गया। अँगूठी गायब थी। साहब -बहादुर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो
गए .... किसी से कुछ कहा नहीं और दिन भर अनुमान करते रहे, कौन हो सकता है किसकी हिम्मत है, उनका शक रंगरुटों पर था।
शाम को साहब बहादुर चुरुट पीते आराम कुर्सी में पसरे हुए थे। इतने में ही एक संतरी आया। स्लाम बजाया । अर्ज किया - हुजूर आपसे मिलने कोई आदमी आया है। अच्छा उसे ले आ , आगंतुक ने साहब बहादुर की बंदगी की। साहब बहादुर गजट में आँखें गड़ाए हुए बोले - हाँ बोलो क्या बात है ? हुजूर माई बाप ।हाँ कहो । आपसे कुछ गुजारिश है। मुझसे? क्या बात है? हुजूर सरकार के यहाँ कुछ चोरी-वोरी हुई है क्या ? तुम्हें कैसे मालूम? वाह हुजूर भला चोरी करने वाले को मालूम न हो तो किसे मालूम होगा। अब साहब बहादुर ने गजट रखते हुए सामने खड़े युवक पर नजर दौड़ायी - देखा छ: - साढ़े छः फीट का छरहरा बदन गोरा-नारा एक जवान साहब बहादुर को अनुमान लगाते देरी न लगी।
नीचे की जमीन उन्हें खिसकती नजर आयी फिर भी अपनी झेंप दबाते हुए बोले अच्छा तो मंगलू तुम्हीं हो। जिसकी हमें बहुत दिनों से तलाश थी। हाँ हुजूर,.मैं ही मंगलू हूँ, मंगलू चोर। आपकी घड़ी और अंगूठी मैंने ही चुराई.है। लीजिए सम्हालिए इसे। अब
गई तो दुबारा नहीं मिलेगी। साहब बहादुर को आश्चर्य हो रहा था। चारों ओर से संगीन तनी हुई थी। साहब ने इधर -उधर ताकते हुए पुछा -तुम्हें यहाँ घुसते हुए डर नहीं लगा मंगलू? हुजूर माई बाप से भला क्यों डर लगे? साहब ने फिर मंगलू की आँखों में देखा । साहब बहादुर समझदार थे। उन्होंने कुछ इशारा किया। तनी हुई संगीन नीचे झुक गयी। उन्हें पूरा विश्वास हो गया। पास खड़ा होकर भी मंगलू उन्हें कुछ नुकसान नहीं पहुँचाएगा।उन्होंने गंभीर स्वर में कहा -मंगलू तुम्हारे सिर पर सरकार ने एक लाख रुपए का इनाम रखा हैं। जिंदा या मुर्दा । मेरे पास तुम्हें अरेस्ट करने के लिए वारन्ट भी है। तुम्हारे लूट-पाट हत्या की जुमला सूची मेरे पास है। तुम्हींने जमीदार साहब के बेटे को सरे आम नीम के पेड़ में गले में रस्सी डालकर लटकाया था। हुजूर आप अच्छा फरमाते हैं। मैंने लुटेरों के यहाँ लूट-पाट की है। हत्यारों को ही मारा है। हुजूर आप चाहें तो हथकड़ी लगा सकते हैं। इतना कहकर सचमुच मंगलू ने अपने दोनों हाथ साहब की ओर बढ़ा दिए। साहब बहादूर की दिलचस्पी कुछ बढ़ी उन्होंने पूछा - मंगलू तुम तो नेक दिल इन्सान लगते हो । विश्वास नहीं होता तुमने इतने अपराध किये हैं। लेकिन तुम्हारे विरुध्द इतने मामले कैसे जुड़े । हुजूर शुरु में मुझे झूठे मुकदमे में फसाया गया। मैं निरपराध , सीधा सादा इन्सान था। आज बदले की आग में हैवान बन चुका हूँ। इसका जिम्मेदार ठाकुर हुकूमसिंह है। साहब की दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी। मंगलू ने उनके आगे जमींदार का कच्चा-चिट्ठा खोल दिया। हुजूर इस शैतान ने मेरे भोले- भाले भाई को जान से मारा । आज तक उसकी लाश का पता नहीं चला, जाने कहा गाड़ दिया।उसने मुझे मेरी पुस्तैनी जमीन से बेदखल किया। हुजूर उसनें गाँव की सैकड़ों बहू-बेटियों की इज्जत लूटी है। जो विरोध किया , उसी को न जाने कहाँ उठवा दिया। हुजूर मैंने इन सबका बदला ले लिया है। हाँ , मैंने ही जमीदार के बेटे को सरे आम नीम के पेड़ मे फाँसी दी थी।
ये सब तो ठीक है मंगलू लेकिन तुमने कानून को हाथ में क्यों लिया? क्या करें हुजूर । कानून भी तो इन्हीं के व्दारा , इन्हीं की रक्षा के लिए बनाई गयी है। चाहे ये कितना भी अनाचार करें, गरीबों की पुकार कौन सुनता है।उन्हें न्याय कहाँ मिलता है? यही वजह है हुजूर, मेरे जैसे लोगों को चोर डाकू बनना पड़ा। साहब ने मंगलू की बातों को गंभीरता से लिया। बोले - कुछ पीओगे नहीं ?हुजूर । ये सब मैं कभी नहीं छूता। अच्छा साहब बहादुर
ने ठहाका लगाते हुए कहा - मंगलसिंह।शेर का शिकार हम खुले मैदान में ही करते हैं। अच्छा अब.तुम जा सकते हो। मंगलू ने साहब को फौजी सैल्यूट बजाई और सबके सामने शेर जैसा वह अहिस्ता आहिस्ता संगीनों की छाया से दूर हो गया।.सबके लिए यह एक अभूतपूर्व अनुभव था।
दूसरे दिन इलाके में यह खबर आग की लपट सी फैल गयी। फौज पकड़ने आई थी।लेकिन मंगलू चोर फौज का घेरा तोड़ भाग गया।यह मंगलू और साहब बहादुर दोनों के लिए अपमानजनक बात थी। दूसरे तीसरे दिन साहब बहादुर का ट्रान्सफर हो गया।
पन्द्रह दिन बीत गए । जमींदारों की मीटिंग हुकुमसिंह की हवेली में हुई। रात हवेली के पिछवाड़े कंस बध खेला जा रहा था।दर्शक दीर्धा ठंसा ठंस भरी हुई थी।दूर दूर से बड़े नामी गिरामी लोग बैलगाड़ी जीप आदि में आए.थे। रात के दस बजे होंगे, दो बड़े बड़े पोलर गैस जल रही है खूब उजाला है।संगीत की स्वर लहली में हल्की हल्की हवा बहने लगी।सहसा ही हवा तेज हुई और आँधी पानी में बदल गई।गैस बत्ती बुझ गयी। घने अंधेरे में एक चीख सन्नाटे को चीर गयी। दर्जनों छोटी बड़ी टार्च रोशनी फेंकने लगी। देखा जमींदारिन दहाड़ मारकर रो रही है.-हाय मैं लूट गयी मैं बरबाद हो गयी।जमीदार साहब दौड़े।बार -बार पूछने पर जमींदारिन इतना ही बोल पाई - मुन्नी को गोदी से छीनकर कोई इधर भाग गया है। अनुमान लगाने में देरी नहीं हुई चारों ओर एक ही नाम बजबजा रहा था - मंगलू चोर मंगलू चोर।सभी दहशत में आ गए।
बच्ची सुबह तालाब के किनारे तड़पती हुई मिली। उसका मुँह कुछ ऐसा दबाया गया था कि मुँह सदा के लिए टेढा हो गया । गले और हाथ-पैर से रत्न जड़ित आभूषण निकाल लिए गये थे। यह अपमान हुकुमसिंह के लिए जी-जान से बड़ा था।
शाम गुडी बैठी, घनघोर चर्चा हुई। .इलाके भर के लठैत और पहलवान पुरानी हवेली में जमा हुए।जाल बिछाया गया। खड़ी दोपहरी थी जंगल में दूर दूर तक से सोये हुए शेर के खर्राटे की आवाज सुनाई दे रही थी। अनुमान सही निकला। मंगलू चोर यहीं कहीं सो रहा है। मकोय की घनी झाड़ी के नीचे घास पत्तर में मंगलू सो रहा था। जोर का हल्ला हुआ- कूदो , पचास साठ आदमी एक साथ कूद पड़े थे मंगलू के ऊपर। मंगलू को सम्हलने का मौका न लगा। उसने प्रतिकार बेकार समझा । प्रेम से रस्से में बंध गया।
शाम हो रही है। हाँक पड़ चुका है। गुड़ी के.बीच मंगलू एक खंम्भें से जकड़कर बाँध दिया गया है।सोलह वर्ष से बड़े लड़के सयाने जा रहे हैं। आदेश के अनुसार पाँच -पाँच पनही (जूते) मंगलू को मार रहे है। मुँह चिथड़ा हो रहा है। सिर , नाक ,मूँह से खून निकल रहा है। अब अघोरी की पाली है - अघोरी बीस वर्ष का भरा-पूरा जवान। मंगलू के आगे जाकर वह ठिठक सा गया। इधर हुकुमसिंह का हुकुम बज रहा था- मारों साले को , ए छोकरा क्या देखता है रे, मार साले को। मंगलू खड़ा था। अघोरी तू भी मार बेटा। अघोरी की आँखें .........एक बार उस वीर मूर्ति की ओर उठी। उसने.मन ही मन नमन किया। दुबारा उसने जलती आँखों से हुकुमसिंह को देखा -चिनगारियाँ झर गयी। हुकूमसिंह का सिंहासन डोलने सा लगा। उसे दो दो मंगलसिंह दीखाई देने लगे । फिर अघोरी ने अपनी लम्बी भुजाओं और चौड़ी छाती में मंगलू को भर लिया। इसके बाद मंगलू की ओर दुबारा देखने की किसी की हिम्मत नहीं हुई।
डाँ० बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पिछे
रायगढ़ , छत्तीसगढ़
मो०न० 9039011458
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डाँ० बलदेव की कहानी
jकहानीः-
कला की मासूम आँखे
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सहसा ही काले -डैश के ऊपर दूधिया प्रकाश का एक नन्हा सा टुकड़ा पंख फड़फड़ाने लगा। इसके साथ ही वातावरण को झंकृत करने वाले उद्दाम संगीत का बनरिया सुर झन्नाटे से शान्त हो गया। जादुई छड़ी के नट से जादूगर ने उस नन्हीं सी बुलबुल को हाथों में लिया और फूल सा सूंघता रहा, फिर सीने से.लगा लिया। हल्के नीले रंग की शेरवानी और मोतियों की लड़ियों के.ऊपर उस नन्हीं बुलबुल के पंख फूल की पंखरियां से कोमल प्रतीत हो रहे थे। इतना ही हिस्सा प्रकाशित था, बाकी दृश्य , जादूगर का सिर पगड़ी , तुर्रा और जड़ीदार जूते गायब थे अंधेरे में। अब बुलबुल के चहचहाकर नीले आकाश का शुभ-गीत गाना शुरू
किया। एक सुरमुई उजास के बाद. पर्दे पर लालिमा छा गयी, फिर धुंध , बदली ..........उनमें से छनकर आती हुई किरणे और धान की हरी-बालियाँ नाचनें लगी, दूर कहीं झरने का कलनाद फूट पड़ा। उसके मधुर संगीत से दर्शकों के हृदय के तार तड़फकर बजने से लगे। जादू का असर जड़ चेतन को एकाकार कर रहा था, तभी जादूगर ने छड़ी घुमाई....... मधुर सिम्फनी की मूच्छर्ना जैसी टूटी और छड़ी पर पंख फड़फड़ाकर बुलबुल बैठ गयी।
अब जादूगर दर्शकों के बीच था वह जिस पंक्ति में जाता , दर्शकों का अभिवादन झुककर स्वीकार करता और बुलबुल.सीटी बजाकर उनका अभिनन्दन करती , तभी एक नौजवान डाँक्टर अपनी सीट से उठा । उसने जादूगर से चुनौती के स्वर में कुछ कहा। सभी का ध्यान उन दोनों पर केन्द्रित हो गया। डाँक्टर ने पूछा -क्यों जनाब, यदि इस बुलबुल के पंख कतर दिए जाँए, तब भी क्या आप अपना शो दिखा सकते हैं? मेरा मतलब आपके जादू का राज कहीं यह बुलबुल ही तो नहीं है? जादूगर भी नौजवान था और प्रयोगशील कलाकार भी । वह दर्शकों के समक्ष कठिन परीक्षा की स्थिति से भी कभी विचलित नहीं हुआ । इन्हीं जन-परीक्षणों के बीच उसका जादू परवान चढ़ रहा था। उसने डाँक्टर के चेहरे पर भरपूर मुस्कान फेकी और कहा - जनाब , इससे मेरे जादू में कोई फर्क नहीं आयेगा। दूसरे ही क्षण बुलबुल बाज के पंजे में थी। डाँक्टर ने अपना बैग खोला और एक छोटा सा तेजधार चक्कू निकाल लिया। पहले उसने बुलबुल का बांया पंख काट डाला । फिर भी बुलबुल सीटी बजाकर उसका अभिनन्दन करती रही।दर्शकों का एक वर्ग उसके इस दुष्कृत्य से दुखी और परेशान हो रहा था। दूसरा तबका तमाशबीनों का था। वे साँस रोककर इंतजार कर रहे थे कि डाक्टर कितनी जल्दी बुलबुल का दूसरा पंख काटता है। जाने कौन सी शैतानियत उस उत्साही डाँक्टर के भीतर पैठ गई थी कि दूसरे ही क्षण उसने बुलबुल का दाहिना डैना भी जड़ से काट दिया। बुलबुलब चीख उठा। गाढ़े खून की गरम धार बह चली। बुलबुल ने बड़ी मासूम नजरों से जादूगर की ओर देखा। उसकी आँखें भीग चुकी थी। फिर उसने मुँह फेर लिया।
बुलबुल की करूण -चीत्कार से पूरा हाल गूंज उठा। दर्शकों का हृदय तड़फ उठा। वे सहसा ही गंभीर, उत्तेजित और आक्रमक हो उठे। एक तो खड़ा हुआ और जादूगर को ही खरी - खोटी सुनाने लगा। आपने इस क्रुर जर्राद के हाथों इस मासूम बुलबुल को क्यों सौंपा? जादूगर का स्वर संयत और गंभीर था हमें डाक्टर पर विश्वास और भरोसा करना चाहिए। यह दूसरी बात है कि.वह हमारे साथ कैसा सलूक करता है। "हमें कितनी सान्त्वना दे पाता है"। जादूगर के इस ठंडे व्यवहार पर हाल में बैठे प्रबुध्द लोग अपने आचरण के विपरीत उस दिन उत्तेजित हो गये और फर्नीचर पीट पीट कर न्याय की माँग करने लगे। भारी शोर -गुल के बीच एक प्रतिष्ठित , संवेदनशील तथा दार्शनिक से कवि को खोज निकाला गया। स्टेज पर खड़े होकर कवि ने अपने अगल -बगल , अपराधी मुद्रा में खड़े जादूगर और डाक्टर की ओर जांचती निगाहों से देखा। वह उत्तेजित भीड़ के ही पक्ष में निर्णय देना चाहता था, ताकि आगे का शो देखा जा सकें। किन्तु अचानक ही उसके भीतर के न्यायाधीश ने आदेश दिया - दबाव या भावावेश में निर्णय देना उचित नहीं होगा।
आवश्यक पूछताछ के बाद अन्त में कवि ने लगभग निर्णय के स्वर में कहा - कलाकार की कोई भी कला उसकी आत्मा से पैदा होती है। जादूगर को इतने बड़े खतरे नहीं उठाने चाहिए। किसी की जान की बाजी लगाकर कला को जीवन्त बनाना कौन.सी बात हुई। और सिर्फ जीवन दान ही नहीं करती, हमारे काल को कला ही अमर करती है। मनुष्य को मनुष्य वही बनाती है। जादूगर .के सीने में अगर बुलबुल के प्राण धड़क रहे होते तो जादूगर ही छटपटाकर पहले गिर गया होता। लेकिन वह पीड़ा की अनुभूति मात्र करता रहा, शायद नफा नुकसान का ख्याल भी उसे रहा हो। जादू को खेल बनाये रखने के लिए.अपनी अनुभूति को ही गिरवी रख देना कौन सा न्याय है? इसी प्रकार परीक्षण के बतौर किसी साबूत और निरोग अंग को काटने का अधिकार किसी डाक्टर को भी नहीं हैं। चाहे उसे अपने व्यवसाय में घाटा ही क्यों न हो, क्या आप दोनों अपने पेशे से ऊपर उठकर अपने आँपरेशन या जादू से इसके कटे डैने जोड़.सकते.हैं?
-जादूगर और डाँक्टर दोनों निरुत्तर थे। उनकी आंखों में पश्चात्ताप के कण झिलमिला. रहे थे। रोशनी का नन्हा सा टुकड़ा पर्दे से त्तिरोहित हो चुका था।.घने अंधकार में उस दिन का शो फिर शोक सभा में परिणत हो गया।
डाँ० बलदेव
.श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़
श्रीराम काँलोनी,जुदेव पार्क,स्टेडियम के पीछे, रायगढ़, छत्तीसगढ़। मो०न० 9826378186
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गुरुवार, 12 जनवरी 2017
ठंड के खिलाफ (कविता) बसन्त राघव
कविता:-
ठंड के खिलाफ
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आदमी सिकुड़ता जाता है
ठंड में
और गठरी बन जाता है
अलाव के पास
आग ठंड का कुछ नहीं
बिगाड़ पाती
धीरे धीरे स्वयं
ठंडी होने लगती है आग
बूढ़ा पीठ नहीं बचा पाता
ठंड की मार से
बूढ़ा कुनमुनापन खोजता है
खोजता है माँ को,
याद करता हुआ
बचपन को
अंडे जैसे सेने लगती है माँ
छाती से
कैसे चिपटा लेती है
पेट से
सांस की संगीत से
वह फिर कुनमुनापन तलाशता है
कुनमुना आँचल
उष्ण दुग्ध धवल
पहाड़ी झरना
खांसकर दम तोड़ने के पूर्व
निकल आते है दो नन्हें हाथ
दो नन्हें पांव
तारों जड़ी आँखें
फूल सा चेहरा
दुधिया
एकदम सुफैद
और फिर पंखुरी सा,
फिर बंद हो जाता है
फँखुरीयों में बन्द भंवरे सा वह स्वयं
उतरने लगता है, अंधेरे में
सूरंग की ओर
उषस की ओर
सूर्य सा
--०--
बसन्त राघव
रायगढ़ छत्तीसगढ़, मो० न०9039011458
बुधवार, 11 जनवरी 2017
कहानी:मंगलू चोर कहानीकार डाँ. बलदेव
कहानी:-
मंगलू चोर
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मंगल सिंग को कोई नहीं जानता। मंगलू चोर को सब जानते हैं। लूटमार के उसके सैकड़ों किस्से बहुतों की जुबान पर है। मंगल सिंह भरे-पूरे किसान का लड़का था। जमीन की मामूली सी विवाद पर भाई मारा गया। जमीन से बेदखल होने पर मंगल सिंह बागी हो गया। उसके नाम से जमीदारों की नींद हराम होने लगी। मंगलू जब भी मौका पाता सेठ -साहूकारों , मालगुजारों और जमीदारों के यहाँ चोरी करता।चोरी का माल वह गरीब और जरुतमन्द लोगों में बाँट दिया करता था। जनश्रुतियों में मंगलूचोर आज भी जिन्दा है।.... वह ऊँची ऊँची हवेलियों को फर्लांग जाता है। उसके छूते ही ताले टूट जाते हैं। बिना चाबी की तिजोरियाँ खुल जाती है। पीले चावल छिड़कते ही घर मालिक मूक दर्शक हो जाता है। जितनी आवश्यकता होती उतनी ही उठाकर ले जाता । शाम को फिर खाली हो जाता। माखूर - गुड़ाखू, चोंगी -बीड़ी , भाँग-गाँजा दारु जैसे नशे से वह दूर रहता। निंगोटी का भी वह सच्चा था। गरीब लोगों में उसकी पूजा होती थी। लोग उसे फरिश्ता समझते थे।लेकिन .सेठ साहूकारों , जमीदारों के लिए वह एक काँटा था। दूर दूर तक वह अब मंगलू चोर के नाम से पुकारा जाने लगा।
खाने-पीने , रहने-सोने का उसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं था। रात के अंधेरे में जिस गरीब-किसान का दरवाजा खटखटाता , वहाँ जो मिलता उससे ही पेटपूजा कर रात के अंधेरे में गायब हो जाता था।चोरियाँ वह रात में ही करता था। कहते हैं उसे नींद नहीं आती थी। दगाबाज या मुखवीरों के लिए तो वह यमराज ही था। कोई गरीब को सताता , वह सूंघ ही लेता और दूसरे-तीसरे दिन उसके हौसले ठिकाने लग जाते। एक - दो माल-गुजार तो उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते थे। जमीदार हुकुमसिंह के बहनोई साहब बेरीस्टर थे। उन्होंने अँगरेजी सरकार से लिखा-पढ़ी की।
जिस जंगल में वह कभी -कभी विश्राम करता था, उसके आस-पास रंगरुटों का कैम्प लगा। गाँव से छीनकर मूर्गे-बटोर लाते, काटते और शराबखोरी शुरु हो जाती। रात को जलसा जैसा दृश्य नजर आने लगा।मंगलू चोर मशक की नाई कैसे तो रेशमी झालरों वाले कैम्प में घुसा। मेजर साहब खर्राटे भर रहे थे। टेबल पर रखी लैम्प की बत्ती मंगलू ने तेज की। एक नजर साहब-बहादुर के चेहरे पर दौड़ाई। फिर आहिस्ते से साहब बहादुर की कलाई से घड़ी और अँगुली से हीरे जड़े सोने की अँगूठी उतार ली। वह छावनी में कब आया कब घुस कर वापस हुआ किसी को पता नहीं चला।सुबह साहब बहादुर उठे। हाथ-मुँह धोया।कलई सूनी थी। गद्दे पर देखा..... आसपास देख कहीं पता न.चला कि अचानक ही उनका ध्यान अँगुली पर गया। अँगूठी गायब थी। साहब -बहादुर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो
गए .... किसी से कुछ कहा नहीं और दिन भर अनुमान करते रहे, कौन हो सकता है किसकी हिम्मत है, उनका शक रंगरुटों पर था।
शाम को साहब बहादुर चुरुट पीते आराम कुर्सी में पसरे हुए थे। इतने में ही एक संतरी आया। स्लाम बजाया । अर्ज किया - हुजूर आपसे मिलने कोई आदमी आया है। अच्छा उसे ले आ , आगंतुक ने साहब बहादुर की बंदगी की। साहब बहादुर गजट में आँखें गड़ाए हुए बोले - हाँ बोलो क्या बात है ? हुजूर माई बाप ।हाँ कहो । आपसे कुछ गुजारिश है। मुझसे? क्या बात है? हुजूर सरकार के यहाँ कुछ चोरी-वोरी हुई है क्या ? तुम्हें कैसे मालूम? वाह हुजूर भला चोरी करने वाले को मालूम न हो तो किसे मालूम होगा। अब साहब बहादुर ने गजट रखते हुए सामने खड़े युवक पर नजर दौड़ायी - देखा छ: - साढ़े छः फीट का छरहरा बदन गोरा-नारा एक जवान साहब बहादुर को अनुमान लगाते देरी न लगी।
नीचे की जमीन उन्हें खिसकती नजर आयी फिर भी अपनी झेंप दबाते हुए बोले अच्छा तो मंगलू तुम्हीं हो। जिसकी हमें बहुत दिनों से तलाश थी। हाँ हुजूर,.मैं ही मंगलू हूँ, मंगलू चोर। आपकी घड़ी और अंगूठी मैंने ही चुराई.है। लीजिए सम्हालिए इसे। अब
गई तो दुबारा नहीं मिलेगी। साहब बहादुर को आश्चर्य हो रहा था। चारों ओर से संगीन तनी हुई थी। साहब ने इधर -उधर ताकते हुए पुछा -तुम्हें यहाँ घुसते हुए डर नहीं लगा मंगलू? हुजूर माई बाप से भला क्यों डर लगे? साहब ने फिर मंगलू की आँखों में देखा । साहब बहादुर समझदार थे। उन्होंने कुछ इशारा किया। तनी हुई संगीन नीचे झुक गयी। उन्हें पूरा विश्वास हो गया। पास खड़ा होकर भी मंगलू उन्हें कुछ नुकसान नहीं पहुँचाएगा।उन्होंने गंभीर स्वर में कहा -मंगलू तुम्हारे सिर पर सरकार ने एक लाख रुपए का इनाम रखा हैं। जिंदा या मुर्दा । मेरे पास तुम्हें अरेएष्ट करने के लिए वारन्ट भी है। तुम्हारे लूट-पाट हत्या की जुमला सूची मेरे पास है। तुम्हींने जमीदार साहब के बेटे को सरे आम नीम के पेड़ में गले में रस्सी डालकर लटकाया था। हुजूर आप अच्छा फरमाते हैं। मैंने लुटेरों के यहाँ लूट-पाट की है। हत्यारों को ही मारा है। हुजूर आप चाहें तो हथकड़ी लगा सकते हैं। इतना कहकर सचमुच मंगलू ने अपने दोनों हाथ साहब की ओर बढ़ा दिए। साहब बहादूर की दिलचस्पी कुछ बढ़ी उन्होंने पूछा - मंगलू तुम तो नेक दिल इन्सान लगते हो । विश्वास नहीं होता तुमने इतने अपराध किये हैं। लेकिन तुम्हारे विरुध्द इतने मामले कैसे जुड़े । हुजूर शुरु में मुझे झूठे मुकदमे में फसाया गया। मैं निरपराध , सीधा सादा इन्सान था। आज बदले की आग में हैवान बन चुका हूँ। इसका जिम्मेदार ठाकुर हुकूमसिंह है। साहब की दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी। मंगलू ने उनके आगे जमींदार का कच्चा-चिट्ठा खोल दिया। हुजूर इस शैतान ने मेरे भोले- भाले भाई को जान से मारा । आज तक उसकी लाश का पता नहीं चला, जाने कहा गाड़ दिया।उसने मुझे मेरी पुस्तैनी जमीन से बेदखल किया। हुजूर उसनें गाँव की सैकड़ों बहू-बेटियों की इज्जत लूटी है। जो विरोध किया , उसी को न जाने कहाँ उठवा दिया। हुजूर मैंने इन सबका बदला ले लिया है। हाँ , मैंने ही जमीदार के बेटे को सरे आम नीम के पेड़ मे फाँसी दी थी।
ये सब तो ठीक है मंगलू लेकिन तुमने कानून को हाथ में क्यों लिया? क्या करें हुजूर । कानून भी तो इन्हीं के व्दारा , इन्हीं की रक्षा के लिए बनाई गयी है। चाहे ये कितना भी अनाचार करें, गरीबों की पुकार कौन सुनता है।उन्हें न्याय कहाँ मिलता है? यही वजह है हुजूर, मेरे जैसे लोगों को चोर डाकू बनना पड़ा। साहब ने मंगलू की बातों को गंभीरता से लिया। बोले - कुछ पीओगे नहीं ?हुजूर । ये सब मैं कभी नहीं छूता। अच्छा साहब बहादुर
ने ठहाका लगाते हुए कहा - मंगलसिंह।शेर का शिकार हम खुले मैदान में ही करते हैं। अच्छा अब.तुम जा सकते हो। मंगलू ने साहब को फौजी सैल्यूट बजाई और सबके सामने शेर जैसा वह अहिस्ता आहिस्ता संगीनों की छाया से दूर हो गया।.सबके लिए यह एक अभूतपूर्व अनुभव था।
दूसरे दिन इलाके में यह खबर आग की लपट सी फैल गयी। फौज पकड़ने आई थी।लेकिन मंगलू चोर फौज का घेरा तोड़ भाग गया।यह मंगलू और साहब बहादुर दोनों के लिए अपमानजनक बात थी। दूसरे तीसरे दिन साहब बहादुर का ट्रान्सफर हो गया।
पन्द्रह दिन बीत गए । जमींदारों की मीटिंग हुकुमसिंह की हवेली में हुई। रात हवेली के पिछवाड़े कंस बध खेला जा रहा था।दर्शक दीर्धा ठंसा ठंस भरी हुई थी।दूर दूर से बड़े नामी गिरामी लोग बैलगाड़ी जीप आदि में आए.थे। रात के दस बजे होंगे, दो बड़े बड़े पोलर गैस जल रही है खूब उजाला है।संगीत की स्वर लहली में हल्की हल्की हवा बहने लगी।सहसा ही हवा तेज हुई और आँधी पानी में बदल गई।गैस बत्ती बुझ गयी। घने अंधेरे में एक चीख सन्नाटे को चीर गयी। दर्जनों छोटी बड़ी टार्च रोशनी फेंकने लगी। देखा जमींदारिन दहाड़ मारकर रो रही है.-हाय मैं लूट गयी मैं बरबाद हो गयी।जमीदार साहब दौड़े।बार -बार पूछने पर जमींदारिन इतना ही बोल पाई - मुन्नी को गोदी से छीनकर कोई इधर भाग गया है। अनुमान लगाने में देरी नहीं हुई चारों ओर एक ही नाम बजबजा रहा था - मंगलू चोर मंगलू चोर।सभी दहशत में आ गए।
बच्ची सुबह तालाब के किनारे तड़पती हुई मिली। उसका मुँह कुछ ऐसा दबाया गया था कि मुँह सदा के लिए टेढा हो गया । गले और हाथ-पैर से रत्न जड़ित आभूषण निकाल लिए गये थे। यह अपमान हुकुमसिंह के लिए जी-जान से बड़ा था।
शाम गुडी बैठी, घनघोर चर्चा हुई। .इलाके भर के लठैत और पहलवान पुरानी हवेली में जमा हुए।जाल बिछाया गया। खड़ी दोपहरी थी जंगल में दूर दूर तक से सोये हुए शेर के खर्राटे की आवाज सुनाई दे रही थी। अनुमान सही निकला। मंगलू चोर यहीं कहीं सो रहा है। मकोय की घनी झाड़ी के नीचे घास पत्तर में मंगलू सो रहा था। जोर का हल्ला हुआ- कूदो , पचास साठ आदमी एक साथ कूद पड़े थे मंगलू के ऊपर। मंगलू को सम्हलने का मौका न लगा। उसने प्रतिकार बेकार समझा । प्रेम से रस्से में बंध गया।
शाम हो रही है। हाँक पड़ चुका है। गुड़ी के.बीच मंगलू एक खंम्भें से जकड़कर बाँध दिया गया है।सोलह वर्ष से बड़े लड़के सयाने जा रहे हैं। आदेश के अनुसार पाँच -पाँच पनही (जूते) मंगलू को मार रहे है। मुँह चिथड़ा हो रहा है। सिर , नाक ,मूँह से खून निकल रहा है। अब अघोरी की पाली है - अघोरी बीस वर्ष का भरा-पूरा जवान। मंगलू के आगे जाकर वह ठिठक सा गया। इधर हुकुमसिंह का हुकुम बज रहा था- मारों साले को , ए छोकरा क्या देखता है रे, मार साले को। मंगलू खड़ा था। अघोरी तू भी मार बेटा। अघोरी की आँखें .........एक बार उस वीर मूर्ति की ओर उठी। उसने.मन ही मन नमन किया। दुबारा उसने जलती आँखों से हुकुमसिंह को देखा -चिनगारियाँ झर गयी। हुकूमसिंह का सिंहासन डोलने सा लगा। उसे दो दो मंगलसिंह दीखाई देने लगे । फिर अघोरी ने अपनी लम्बी भुजाओं और चौड़ी छाती में मंगलू को भर लिया। इसके बाद मंगलू की ओर दुबारा देखने की किसी की हिम्मत नहीं हुई।
डाँ० बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पिछे
रायगढ़ , छत्तीसगढ़
मो०न० 9039011458
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