बुधवार, 23 अगस्त 2017
रायगढ़ दरबार:-डाँ. बलदेव
रायगढ़ दरबार:-
------------------- डाँ०बलदेव
रायगढ़ दरबार का संगीत साहित्य का असली उत्कर्ष रायगढ़ का गणेशोत्सव है, जो सन् 1905 से एक माह तक राजमहल के दरबार और परिसर में होता था। राजा भूपदेव सिंह शास्त्रीय कलाओं के साथ लोक-कला के भी महान सरक्षक थे। दरबार में तो शास्त्रीय संगीत का आयोजन होता था, और परिसर में नाचा, गम्मत ,सुआ , डंडा , करमा की शताधिक पार्टियां रात भर राज महल परिसर को मशाल के प्रकाश में झांझ और घुंघरुओं की झनकार से गुलजार किए रहती थी।
राजा भूपदेव सिंह अपने भाई नारायण सिंह के संयोजकत्व में इनकी प्रतियोगिताएं रखवाते थे, और विजेता पार्टी को पुरस्कृत करते थे। राजा भूपदेव सिंह काव्य रसिक भी कम न थे। उनके गणेशोत्सव में देश के कोने कोने से जादूगर, पहलवान, मुर्गे-बटेर लड़ाने वाले , यू.पी. की नृत्यांगनाएं खिंची चली आती थीं। एक बार राजा साहब इलाहाबाद गए, वही उन्होंने प्रसिद्ध गायिका जानकी बाई से ठुमरी, गजल, खमसा सुनीं। उनकी मीठी आवाज से वे मुग्ध हो गए। राजा साहब ने बन्धू खां नाम के एक गवैये को गणेश मेला के अवसर पर इलाहाबाद भेजा। एक बार मशहूर नृत्यांगना आई और कहा जाता हैं विदाई में उसे लाख रुपये दिए गए। बिन्दादीन महाराज की शिष्या सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान पहले अकेले आई, फिर उन्हीं की ही शिष्या ननुआ और बिकुवा भी आने लगी।
राजा भूपदेव सिंह के दरबार में सीताराम महाराज (कत्थक-ठुमरी भावानिभय) मोहम्मद खाँ (बान्दावाले दो भाई , ख्याल टप्पा ठुमरी के लिए प्रसिद्ध) कोदउ घराने के बाबा ठाकुर दास (अयोध्या के पखावजी) संगीताचार्य जमाल खाँ, सादिर हुसैन(तबला) अनोखे लाल , प्यारे लाल (पखावज) चांद खाँ(सांरगी) , कादर बख्श आदि राजा भूपदेव सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये कलाकार लम्बे समय तक रायगढ़ दरबार में संगीत गुरू के पद पर नियुक्त रहे। उनके शिष्य कार्तिकराम , कल्याण दास मंहत, फिरतू महाराज, बर्मनलाल (कथक) , कृपाराम खवास (तबला) , बड़कू मियाँ (गायन) , जगदीश सिंह दीन, लक्ष्मण सिंह ठाकुर आदि ने दरबार में ही दीक्षित हो कर हिन्दुस्तान के बड़े शहरों में यहाँ का नाम रोशन किया।
दरबार के रत्न :-
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बीसवीं सदी से ही यहाँ नृत्य संगीत की सुर-लहरियां गूंजने लगी थी । पं. शिवनारायण , सीताराम, चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, चिरंजीलाल, झंडे खाँ, (कथक) , जमाल खाँ, चांद खाँ, (सांरगी) , सादिर हसन (तबला) , करामतुल्ला खां, कादर बख्श, अनोखेलाल, प्यारेलाल, (गायन) , ठाकुर दास महन्त , पर्वतदास (पखावज), जैसे संगीतज्ञ , नन्हें महाराज के बचपन में ही आ गये थे, जो रायगढ़ दरबार में नियुक्त थे। सन् 1924 में चक्रधर सिंह का राज्याभिषेक हुआ तो रायगढ़ नगरी धारा नगरी के रूप में तब्दील हो गई जिसके राजा स्वयं चक्रधर सिंह थे। उनकी योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने उन्हें 1931 में राज्याधिकार दिया और तब रायगढ़ के गणेश मेला में चार चांद लग गए। उनके जमाने में गणेशोत्सव को राष्ट्रव्यापी प्रसिद्ध मिली, जिसमें विष्णु दिगम्बर पुलस्कर, ओंकारनाथ ठाकुर, मनहर बर्वे, अल्लार खां, अलाउद्दीन खां, मानसिंह, छन्नू मिश्र, फैयाज खां साहेब, कृष्णकाव शंकर राव, (पंडित) ,करीम खां,.सीताराम(नेपाल) , गुरु मुनीर खां, अनोखेलाल(बनारस), बाबा ठाकुर दास, करामततुल्ला खां, कंठे महाराज(पखावज एवं तबला), जैसे उस्तादों ने अपनी -अपनी उपस्थिति से रायगढ़ के गणेशोत्सव को अविस्मरणीय बनाया। ,
रायगढ़ गणेशोत्सव में पं. विष्णु दिग्म्बर पुलस्कर अपने दस शिष्यों के साथ ग्यारह दिन रहे। शहनाई नवाज बिस्मिल्ला खां ने कई आयोजनों में शिरकत की थी, उन्होंने राजा साहब के विवाह में भी शहनाई की धुनों से रायगढ़ और सारंगढ़ के राजमहलों को रोमांचित कर दिया था। ओंकारनाथ ठाकुर भी कई बार गणेशोत्सव में शामिल हुए।
अच्छन महाराज, अलकनन्दा, बिहारीलाल, चिरौंजीलाल, चौबे महाराज, हीरालाल (जैपुर), जयलाल महाराज, कन्हैयालाल, लच्छू महाराज, रामकृष्ण वटराज (भारतनाट्यम), जैसे महान नर्तक और बिस्मिल्ला खां(शहनाई) इनायत खां, (सितार), जैसी हस्तियों ने रायगढ़ गणेशोत्सव में भाग लिया।
भारतीय संगीत में रायगढ़ नरेश का योगदान:-
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रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह का जन्म भारतीय नृत्य संगीत के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इनका जन्म भाद्र पक्ष चतुर्थी संवत 1962 अर्थात 19 अगस्त, 1905 को हुआ था। इनकी माताश्री का नाम रानी रामकुंवर देवी था। वे 1931 में सम्पूर्ण सांमती शासक घोषित किये गये। उनकी मृत्यु आश्विन कृष्ण चतुर्थी संवत 2004 अर्थात 07 अक्टूबर 1947 को हुई। राजा चक्रधर सिंह सर्वगुण सम्पन्न पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था। 40-44 साल की उम्र बहुत कम होती है पर अल्पायु में ही राजा साहब ने जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में बड़ी ऊंचाइयां छू ली थी जिन्हें सुनकर चकित होना पड़ता है।उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजमहल में हुई थी । इन्हें नन्हें महाराज के नाम से पुकारा जाता था। आठ वर्ष की उम्र में नन्हे महाराज को राजकुमार कालेज , रायपुर में दाखिला दिलाया गया था। वहाँ शारीरिक, मानसिक , दार्शनिक और संगीत की शिक्षा दी जाती थी। अनुशासन नियमितता और कभी कठिन परिश्रम के कारण नन्हे महाराज प्रिंसिपल ई.ए. स्टाँव साहब के प्रिय छात्र हो गये। वहाँ उन्हें बाक्सिंग, शूटिंग, घुडसवारी, स्काउट आदि की अतिरिक्त शिक्षा दी गई थी। नन्हे महाराज जनवरी 1914 से 1923 तक काँलेज में रहे। उसके बाद एक वर्ष के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए उन्हें छिंदवाड़ा भेजा गया था। प्रशिक्षण के दौरान इनका विवाह छुरा के जमींदार की कन्या डिश्वरीमती देवी से हुआ। राजा नटवर सिंह के देह - पतन के बाद 15 फरवरी 1924 को उनका राज्यभिषेक हुआ। ललित सिंह का जन्म भी इसी दिन हुआ। 1929 में उनकी दूसरी शादी सांरगढ़ नरेश जवार सिंह की पुत्री बंसतमाला से हुई, उनसे अगस्त 1932 में सुरेंद्र कुमार सिंह पैदा हुए। विमाता होने के कारण छोटी रानी लोकेश्वरी देवी ने इनका लालन -पालन किया। कुंवर भानुप्रताप सिंह बड़ी रानी की कोख से 14 मई 1933 को पैदा हुए। राजा चक्रधर सिंह को राज्य प्राप्त करने में बड़ी कठिनाईयां थी। विव्दानों की मदद से उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं तब कहीं सरकार ने उन्हें योग्य समझकर पूर्ण राजा घोषित किया।
राजा साहब प्रजा वत्सल थे। प्रजा हित में उन्होंने अनेक कार्य किये। उन्होंने बेगारी प्रथा बंद की। स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने राज्य की सर्वांगीण उन्नति के लिए सन् 1933 से रायगढ़ समाचार का भी प्रकाशन कराया था। राजा साहब को पशु-पक्षियों से प्यार था। उनके अस्तबल में पहाड़ी टट्टू और अलबक घोड़ा आकर्षण केंद्र थे। शेर के शिकार के लिए राजकुंवर गजमा नाम की हथनी विशेष रूप से प्रशिक्षित की गई थी। राजा साहब को पतंग- बाजी का भी शौक कम न था । उनके समय रोमांचक कुश्तीयां होती थीं। दरबार में पूरन सिंह निक्का, गादा चौबे जैसे मशहूर पहलवान भी रहते थे।
रायगढ़ घराने का अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा
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साहब व्दारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार परण -------------------------------------------------------------------हैं, जो नर्तन सर्वस्व, तालतोयनिधि, रागरत्न, मंजूषा,
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मूरज परण पुष्पाकर और तालबल पुष्पाकर में
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संकलित है। उनके शिष्य अधिकांशयता उन्हीं की
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रचनायें प्रदर्शित करते हैं। इस उपक्रम के व्दारा गत-
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भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुये। यहां कड़क
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बिजली, दलबादल, किलकिलापरण जैसे सैकड़ों बोल,
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प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पंक्षी आदि के
----------------------------------------------------------------- रंग ध्वनियों पर आधारित है। जाति और स्वभाव के
----------------------------------------------------------- ------ अनुसार इनका प्रदर्शन किया जावे तो मूर्त हो उठते हैं।
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चक्रप्रिया नाम से रचनाएँ की:-
छायावाद के प्रर्वतक कवि मुकुटधर पांडेय लंबे समय तक राजा साहब के सानिध्य में थे। उन्होंने एक जगह लिखा है आंखों में इतना शील वाला राजा शायद कोई दूसरा रहा होगा। राजा की उदारता, दानशीलता और दयालुता भी प्रसिद्ध है। लेकिन इन सबसे बढ़कर वे संगीत, नृत्य के महान उपासक थे। वे कला पारखी ही नहीं अपने समय के श्रेष्ठ वादक और नर्तक भी थे।तबला के अतिरिक्त हारमोनियम, सितार और पखावज भी बजा लेते थे। तांडव नृत्य के तो वे जादूगर थे। एक बार अखिल भारतीय स्तर के संगीत समारोह में वाईसराय के समक्ष दिल्ली में कार्तिकराम एवं कल्याण दास मंहत के कत्थक नृत्य पर स्वयं राजा साहब ने तबले पर संगत की थी। उनका तबलावादन इतना प्रभावशाली था कि वाईसराय ने उन्हें संगीत सम्राट से विभूषित किया। राजा साहब की संगीत साधना के कारण ही उन्हें सन् 1936 तथा 1939 म़े अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन, इलाहाबाद का अध्यक्ष चुना गया था। वे वाजिदली शाह और सवाई माधव सिंह की तरह कथक नृत्य के महान उन्नायकों में थे।
राजा चक्रधर सिंह को नृत्य की विधिवत शिक्षा तो किसी विशेष गुरु से नहीं मिली, लेकिन चाचा लाला नारायण सिंह की प्रेरणा और विलक्षण प्रतिभा के कारण उन्होंने तबला वादन और कथक नृत्य में महारत हासिल कर ली थी। पंडित शिवनारायण, झण्डे खान, हनुमान प्रसाद, जयलाल महाराज, अच्छन महाराज से दरबार में नृत्य की और भी बारीकियों और कठिन कायदों को सीख लिया था। उनके दरबार में जगन्नाथ प्रसाद , मोहनलाल, सोहनलाल, जयलाल, अच्छन, शंभू, लच्छू महाराज, नारायण प्रसाद जैसे कथकाचार्य नियुक्त थे। जिनसे उन्होंने अनुजराम, मुकुतराम, कार्तिक , कल्याण, फिरतू दास, बर्मनलाल और अन्य दर्जनों कलाकारों को नृत्य की शिक्षा दिलाई, जो आगे चलकर समूचे देश में मशहूर हुए। जय कुमारी और रामगोपाल की नृत्य शिक्षा रायगढ़ दरबार में ही हुई थी। राजा साहब ने संगीत और नृत्य के पराभव को देखते हुए उसके स्थान की ठान ली। राजा चक्रधर सिंह साहित्य रचना में भी पांरगत थे।
वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, बंगला, उड़िया आदि भाषाओं के
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जानकार थे। उन्होंने चक्रप्रिया के नाम से हिन्दी में और-------------------------------------------------------------------
फरहत के नाम से उर्दू में रचनाएं की। जिनमें रम्यरास,
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जोशे फरहत, निगारे फरहत काफी प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ -------------------------------------------------------------------
हैं। बैरागढ़िया राजकुमार और अलकापुरी अपने समय -------------------------------------------------------------------
के बहुत लोकप्रिय उपन्यास हैं।
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उन्होंने प्रेम के तीर नामक नाटक का भी प्रणयन किया था, जिसकी कई प्रस्तुतियां हुई थी। रायगढ़ दरबार में भानु कवि को पिंगलाचार्य की उपाधि मिली थी। आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी को पचास रुपया मासिक पेंशन दी जाती थी। उनके दरबार में कवि लेखकों का जमघट लगा रहता था। माखनलाल चतुर्वेदी , रामकुमार वर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, भगवती चरण वर्मा, दरबार में चक्रधर सम्मान से पुरस्कृत हुए थे। राजा चक्रधर सिंह के दरबार में संस्कृत के 21 पंडित समादृत थे। पंडित सदाशिवदास शर्मा, भगवान दास, डिलदास, कवि भूषण, जानकी वल्लभ शास्त्री, सप्ततीर्थ शारदा प्रसाद, काशीदत्त झा, सर्वदर्शन सूरी, दव्येश झा, आदि की सहायता से उन्होंने अपार धनराशि खर्च करके संगीत के अनूठे ग्रंथ नर्तन सर्वस्वम्, तालतोयनिधि, तालबलपुष्पाकर, मुरजपरणपुस्पाकर और रागरत्न मंजूषा की रचना की थी। प्रथम दो ग्रंथ मंझले कुमार सुरेन्द्र कुमार सिंह के पास सुरक्षित है जिनका वजन क्रमशः 8 और 28 किलो है। कथक को उनके मूल संस्कार और नये जीवन संदर्भो से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरुप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है। रायगढ नरेश चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने फूलने का यथेष्ट अवसर मिला। रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू और बर्मन लाल जैसे महान नर्तक तैयार हुये। उन्होंने अपने शिष्यों के व्दारा देश में कथक रायगढ़ का विकास किया। आज भी नृत्याचार्य रामलाल , राममूर्ति वैष्णव, बांसती वैष्णव, सुनील वैष्णव, शरद वैष्णव, मीना सोन, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के बाहर सराहनीय योगदान दे रहे हैं। कथक रायगढ़ घराने पर सबसे पहले हमने 1977-78 में बहस की शुरुआत की थी, जिसका समर्थन और विरोध दोनों हुआ, लेकिन आज तो कथक रायगढ़ घराना एक सच्चाई बन चुकी है। कुमार देवेंद्र प्रताप सिंह , नये सिरे से राजा साहब की फुटकर रचनाओं को सुश्री उवर्शी देवी एवं अपने पिता महाराज कुमार सुरेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में संकलित कर रहे हैं। कुंवर भानु प्रताप सिंह ने भी विरासत संजोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
डाँ०बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे,
जूदेव गार्डन, रायगढ़, छत्तीसगढ़
मो.नं. 9039011458
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