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लेखक:- डाँ०बलदेव
रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी और उर्दू भाषा साहित्य के विव्दान ही नहीं बल्कि रचनाकार भी थे, चक्रप्रिया के नाम से उन्होंने बहुत सी सांगीतिक रचनाएं दी।
संस्कृत, उर्दू एवं हिंदी में उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं:-
1 रत्नहार
2 काव्य कानन
3 रम्यरास
4 बैरागढ़िया राजकुमार
5 निगारे फरहत
6 अलकापुरी -तीन भागों में
7 जोशे फरहत
8 माया चक्र
9 प्रेम के तीर
1:- रत्नहारः- यथा नाम तथा रुपम् को चरितार्थ करने वाला संस्कृत काव्य संग्रह रत्नहार सचमुच काव्य रसिकों का कंठहार है। इसका प्रकाशन साहित्य समिति, रायगढ़ ने किया , लेकिन मुद्रण कलकत्ता से संवत् 1987 में हुआ था। इसमें संस्कृत के ख्यात -अख्यात कवियों के 152 चुनिंदा श्लोक राजा चक्रधर सिंह ने संकलित किये हैं। इस संकलन के पीछे संस्कृत भाषा के काव्य रसिक होने का प्रमाण मिलता है। इस बात को उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है- " जब मैं राजकुमार काँलेज रायपुर में पढ़ रहा था, उस समय से ही मुझे संस्कृत साहित्य से विशेष अनुराग हो चला था। संस्कृत काव्य काल की कितनी ही कोमल घड़ियां व्यतीत हुई थी।उन घड़ियों की मधुर स्मृति आज भी मेरे मानस पटल पर वर्तमान की भांति स्पष्ट रेखांओं में अंकित है। "रत्नहार" उसी मधुर स्मृति का स्मारक स्वरूप है।"
संकलनकर्ता ने संस्कृत के श्लोकों का गद्यानुवाद न कर भावानुवाद किया है। अनुवाद की यांत्रिकता से राजा साहब वाकिफ थे। उन्हीं के शब्दों में " गद्यानुवाद में न तो काव्य का रहस्यपूर्ण स्वर्गीय आंनद ही रह जाता है, और न ही उसकी अनिर्वचनीय रस-माधुरी। सूक्ष्म से सूक्ष्म कवितापूर्ण कल्पनाएं गद्य रूप में आते ही कथन -मात्र सी रह जाती हैं।" इसीलिए चक्रधर सिंह जी ने, जो स्वयं एक अच्छे कवि-शायर थे, श्लोकों के आंतरिक कवित्वपूर्ण भावों को सुरक्षित करने के लिए अनुवाद में पूरी स्वच्छंदता से काम लिया है। जहाँ स्पष्टीकरण में अवरोध आया है, वहाँ उन्होंने स्वतंत्र टिप्पणीयों से उसे स्पष्ट करने का भरसक प्रयास किया है।
"रत्नहार" पढ़ने से लगता है, राजा साहब सचमुच रस-आखेटक थे। उन्होंने नायिकाओं के रूप वर्णन के साथ ही उनके आंतरिक भावों को व्यंजित करनेवाले श्लोकों का खास कर चुनाव किया है। नेत्रों के बहाने उन्होंने
आभ्यंतर और बाह्मंतर दोनों को, याने रुप और भाव दोनों को इस श्लोक के बहाने रेखांकित करने का यत्न किया है-
श्याम सितं च सदृशो: न दृशोः स्वरुपं
किन्तु स्फुटं गरलमेतदथामृतं च ।
नीचेत्कथं निपतनादनयोस्तदैव
मोहं मुदं च नितरां दधते युवानः ।।
राजा साहब ने इस सौंदर्य को अक्षुण्ण रखते हुए इसका सरल अनुवाद इन शब्दों में किया है - नेत्रों की श्यामलता और धवलता को शोभा मात्र न समझना चाहिए। इस श्यामलता और धवलता के समागम का रहस्य और ही है। श्यामलता विष है और धवलता सुधा। यदि ऐसा न होता तो मृगनयनी के कटीले कटाक्ष की चोट लगते ही रसिक युवक मादक मूच्छर्ना और स्वर्गीय आन्नद का अनुभव एक साथ ही कैसे करते?
"रत्नहार" में रीति सम्प्रदाय का अनुगमन होता दिखाई देता है। यहाँ अंग-प्रत्यंग सभी प्रकार की संचारी-व्यभिचारी भाव प्रधान रचनाएँ शामिल की गई हैं।
अवाप्तः प्रागल्भ्य परिणत रुचः शैल तनये
कलग्डों नैवायं विलसित शशांकस्य वपुषि।
अमुष्येयं मन्ये विगलदमृतस्यन्द शिशिरे
रति श्रान्ता शेते रजनिरमणी गाढमुरसि ।।
- हे पार्वती , पूर्णिमा के चांद में बड़ा धब्बा सा दिखलाई पड़ता है। वह कलंक नहीं है तो फिर क्या है? निशा नायिका रतिक्रीड़ा से शिथिल हो कर अपने प्रियतम के अमृत प्रवाह से शीतल अंक में गाढ़ी नींद सो रही है। संयोग के बाद वियोग श्रृंगार का एक अनूठा उदाहरण दृष्टव्य है-
सखि पति - विरह -हुताश:
किमिति प्रशमं न याति नयनोदैः ।
श्रृणु कारणं नितम्बिनि
मुञ्चसि नयनोदकं तु ससँनेहम्।।
हे सखी मेरे नेत्रों से इतना जल टपक रहा है तो भी यह प्रबल विरहानल क्यों नहीं बुझता? चतुर सखी का उत्तर है- हे सखी मैं मानती हूँ कि तेरी आँखों से अविरल वारिधारा बह रही है। परंतु एक बात तू भूली जाा रही है- यह जल साधारण जल नहीं है। इसमेँ तो स्नेह के कारण आग बुझने के बदले और भी भभक उठती है।
"रत्नहार" का गेटअप रत्नहार जैसा ही है- रंगीन बेलबूटों के बीच दो परियां इनके बीच नायिका आभूषणों से लदी हुई। इसमें अन्य आकर्षक चित्र हैं- रति श्रान्ता शेते रजनि रमणी गाढ़ मुरसी कृतं मुखं प्राच्या, व्दीपाद दीपं भ्रमति दधाति चन्द्र मुद्रा कपाले । इसी प्रकार श्लोकों के आधार पर चटक रंगों में चित्रकारी की गई है। इन चित्रों के चित्रकार है एम.के.वर्मा, जो दरबार के ही कलाकार थे।
काव्य-कानन:-
काव्य कानन में एक हजार एक रचनाएँ है, जिसमें सैकड़ों कवियों की बानगी दिखाई पड़ती है। विशेषतः कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, पद्माकर, सेनापति, मतिराम, ठाकुर, बोधा, आलम, नंददास, रसलीन, बिहारी, भूषण, धनानंद, रसखान, रत्नाकर, मीर, गिरधर जैसे ख्यात कवियों से ले कर वे कवि भी शामिल हैं जिन्हें उतनी लोकप्रियता उस दौर में नहीं मिली थी। जाहिर है इतने बड़े संकलन के लिए कई सहायकों की जरुरत पड़ी होगी।
"काव्य शास्त्र विनोदन कालोगच्छति धीमताम्" की उक्ति रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह के संबंध में सटीक बैठती है। ब्रजभाषा की बढ़ती हुई उपेक्षा से चिंतित रायगढ़ नरेश ने उसकी उत्कृष्ट रचनाधर्मिता के महत्व को ही दिखाने के लिए खड़ी बोली और पड़ी बोली (ब्रजभाषा) के पाठकों याने दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों के लाभ के लिए "काव्य कानन' नामक ग्रंथ का प्रकाशित किया।
रम्यरास:-
रम्यरास का आधार श्रीमद्भागवत पुराण का दशम स्कंध है। रम्यरास राजा चक्रधर सिंह की अक्षय कीर्ति का आधार है। इसका प्राक्कथन राजा साहब की गहन आस्तिकता, भक्ति और अध्यवसाय का परिचायक है। इस उच्चकोटि. के काव्य ग्रंथ में शिखरणी छंद का सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है। यह 155 वंशस्थ वृत्त का खंडकाव्य है। आरंभ में मंगलाचरण है और समापन भगवान कृष्ण के पुनर्साक्षात्कार की कामना से होता है।
रम्यरास को पढ़ते हुए कभी आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी की "सुरम्य रुप , रस राशि रंजित। विचित्र वर्णा भरणे कहाँ गई" जैसी कविता का स्मरण हो आता है तो कभी हरिऔध की "रुपोद्यान प्रफुल्ल प्राय कलिका राकेन्दु बिंबानना" जैसी संस्कृत पदावली की याद हो आती है।
जिस समय "रम्यरास" लिखा जा रहा था उस समय छायावाद उत्कर्ष पर था, और छायावाद के प्रवर्तक कवि मुकुटधर पांडेय उनके ही सानिध्य में थे। डाँ० बलदेव प्रसाद मिश्र दीवान तो और भी करीब थे। तब "रीति" का इतना आग्रह क्यों हुआ? शायद इसके लिए 'दरबार' ही जिम्मेदार है। प्रकाशन के पूर्व इसे संशोधन के लिए पंडित महावीर प्रसाद व्दिवेदी के पास भेजा गया था, परन्तु उन्होंने कतिपय दोष के कारण मिश्रजी का अनुरोध स्वीकार नहीं किया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की चर्चा आगे की जाएगी। इसका प्रकाशन सितंबर 1934 में साहित्य समिति रायगढ़ ने किया था, तब इसकी कीमत मात्र सवा और अढ़ाई रुपए थी।
निगारे फरहत:-
राजा चक्रधर सिंह के दरबार में शेरो-शायरी का बेहतरीन चलन था। अरबी और फारसी के नामवर विव्दवानों की नियमित आवाजाही थी। राजा साहब ने उर्दू में गजलों की चार किताबें लिखी:- 1. निगारे फरहत 1930, 2. जोशे फरहत 1932, 3. इनायत-ए-फरहत, 4. नगमा-ए-फरहत। इसमें निगारे फरहत एवं जोशे फरहत ही प्रकाशित हो पाई। निगारे फरहत और दूसरी किताब जोशे फरहत की एक समय बड़ी चर्चा थी, लेकिन आजकल ये पुस्तकें दुर्लभ हो गई हैं। निगारे फरहत की भूमिका लेखन भगवती चरण वर्मा ने राजा साहब का समग्र मूल्यांकन करते हुए कहा था राजा चक्रधर सिंह फरहत दाग स्कूल के शायर हैं। उनकी विशेषता है सरलता, स्पष्टता और साथ ही सुन्दर श्रृंगार। यह पुस्तक कविता के भण्डार का एक रत्न है।
सन् 1977 में डाँ. हरिसिंह जी ने मुझे प्रथम दो पुस्तकें पढ़ने को दी थीं । अभी हाल में ठाकुर वेदमणी सिंह के प्रयत्न से अजीत सिंह ने निगारे फरहत उपलब्ध कराई हैं, जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है और जिसमें से अंतिम सौ पृष्ठ करीब -करीब गायब हैं।
जोशे फरहत :-
जोशे फरहत का प्रकाशन गुरू पूर्णिमा संवत 1989 को हुआ था। इसमें कुल 178 गजलें हैं। गजलों की प्रथम पंक्तियाँ सूची में दी गई हैं, लेकिन 28 गजलों के चुनिंदा शेर जिन पर रंगीन चित्र दिये गए हैं सूची के बाद के क्रम में दिये गए हैं। चित्रों में कहीं धीर ललित नायक की अधीरता, तो कहीं अंकुरित यौवना, मुग्धा, प्रेषित पतिका, अभिसारिका, कृष्णाभिसारिका, ज्योत्स्नाभिसारिका, अधीरा, रमणी आदि के रूप में एक ही नायिका के कहीं नायक के साथ, तो कहीं अकेली तो कहीं सहेलियों के साथ भाव-प्रधान चित्र हैं, जो गजलों के भावानुरूप अंकित हैं। दो-तीन को छोड़ प्रायः सभी चित्र रंगीन हैं। बेशकीमती जिल्दसाजी बेलबूटों के बीच राजा साहब का शायराना अंदाज , मनमोहक चित्रों से सुसज्जित यह कृति भी नायाब उदाहरण है।
बैरागढ़िया राजकुमार:-
बैरागढ़िया राजकुमार राजा चक्रधर सिंह का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। उनके दीवान बलदेव प्रसाद मिश्र ने उसका नाट्य रूपांतरण कर उसे और भी लोकप्रिय बना दिया था। सरस्वती सन् 1933 के एक सूची में छपे हुए विज्ञापन के अनुसार सचित्र ऐतिहासिक उपन्यास पृ. संख्या लगभग 250 । चित्र संख्या 23 तिरंगे, 13 दुरंगे, 5 इकरेंगी, सुन्दर सुनहरी छपी हुई रेशमी जिल्द। यदि आप संगीत के साहित्य तथा इतिहास और उपन्यास का एक साथ मजा लेना चाहें, तो एक बार इस उपन्यास को अवश्य पढ़े। इस उपन्यास में यर्थाथ कम, कल्पना की उड़ानें अधिक हैं। राजा साहब के अनुसार राजकुमार बैरागढ़िया अपने बाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु के कारण राजा है गए थे, अस्तु इसका नाम राजकुमार बैरागढ़िया और उपन्यास में उसे ही ज्यों का त्यों रखा गया है। उपन्यास में वर्णित कथापात्र हृदय शाह ऐतिहासिक है, और उसका समय भी यही है।
अलकापुरी ;-
आर्चाय महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने सरस्वती में अलकापुरी की निम्न शब्दों में तारीफ की है - "आज घर बैठे नयनाभिराम पुस्तक की प्राप्ति हुई।'" आर्चाय महावीर प्रसाद के अनुसार यह ऐतिहासिक उपन्यास (पृ.300) आदि से अंत तक अद्भुत मनोरंजक और वीरतापूर्ण घटनाओं से भरा हुआ है। अनेक आश्चर्य-पूर्ण वैज्ञानिक यंत्रों का हाल पढ़ कर आप चकित हो जाएंगे। अलकापुरी भी तिलस्मी उपन्यास है, इसमे अनेक लोमहर्षक घटनाएं वर्णित हैं । ऐसा लगता है इसका काव्य नायक रायगढ़ राजवंश का संस्थापक मदनसिंह है। इसमेँ रायगढ़ के आसपास की पहाड़ियों, घने जंगलों, नदी-नालों की प्राकृतिक छटा, निराली है। पदलालित्य से इसके वाक्य विन्यास स्पर्धा करते दिखाई देते हैं।
माया चक्रः-
माया चक्र भी रायगढ़ के र्पूव पुरुषों का समवेत चित्रण है, भले ही नाम और स्थान अलग हैं, फिर भी इसे पढ़ने के बाद जुझार सिंह का चित्र आँखों के सामने आ जाता है।
(विस्तार से जानने के लिए देखे "रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव"लेखक:-डाँ. बलदेव) प्रकाशक:- छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी ।
श्रीशारदा साहित्य सदन,स्टेडियम के पीछे
श्रीराम काँलोनी, जूदेव गार्डन, रायगढ़
छत्तीसगढ़, मो.नं. 9039011458
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