सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

डाँ० बलदेव की कहानी

jकहानीः- कला की मासूम आँखे --------------------------- सहसा ही काले -डैश के ऊपर दूधिया प्रकाश का एक नन्हा सा टुकड़ा पंख फड़फड़ाने लगा। इसके साथ ही वातावरण को झंकृत करने वाले उद्दाम संगीत का बनरिया सुर झन्नाटे से शान्त हो गया। जादुई छड़ी के नट से जादूगर ने उस नन्हीं सी बुलबुल को हाथों में लिया और फूल सा सूंघता रहा, फिर सीने से.लगा लिया। हल्के नीले रंग की शेरवानी और मोतियों की लड़ियों के.ऊपर उस नन्हीं बुलबुल के पंख फूल की पंखरियां से कोमल प्रतीत हो रहे थे। इतना ही हिस्सा प्रकाशित था, बाकी दृश्य , जादूगर का सिर पगड़ी , तुर्रा और जड़ीदार जूते गायब थे अंधेरे में। अब बुलबुल के चहचहाकर नीले आकाश का शुभ-गीत गाना शुरू किया। एक सुरमुई उजास के बाद. पर्दे पर लालिमा छा गयी, फिर धुंध , बदली ..........उनमें से छनकर आती हुई किरणे और धान की हरी-बालियाँ नाचनें लगी, दूर कहीं झरने का कलनाद फूट पड़ा। उसके मधुर संगीत से दर्शकों के हृदय के तार तड़फकर बजने से लगे। जादू का असर जड़ चेतन को एकाकार कर रहा था, तभी जादूगर ने छड़ी घुमाई....... मधुर सिम्फनी की मूच्छर्ना जैसी टूटी और छड़ी पर पंख फड़फड़ाकर बुलबुल बैठ गयी। अब जादूगर दर्शकों के बीच था वह जिस पंक्ति में जाता , दर्शकों का अभिवादन झुककर स्वीकार करता और बुलबुल.सीटी बजाकर उनका अभिनन्दन करती , तभी एक नौजवान डाँक्टर अपनी सीट से उठा । उसने जादूगर से चुनौती के स्वर में कुछ कहा। सभी का ध्यान उन दोनों पर केन्द्रित हो गया। डाँक्टर ने पूछा -क्यों जनाब, यदि इस बुलबुल के पंख कतर दिए जाँए, तब भी क्या आप अपना शो दिखा सकते हैं? मेरा मतलब आपके जादू का राज कहीं यह बुलबुल ही तो नहीं है? जादूगर भी नौजवान था और प्रयोगशील कलाकार भी । वह दर्शकों के समक्ष कठिन परीक्षा की स्थिति से भी कभी विचलित नहीं हुआ । इन्हीं जन-परीक्षणों के बीच उसका जादू परवान चढ़ रहा था। उसने डाँक्टर के चेहरे पर भरपूर मुस्कान फेकी और कहा - जनाब , इससे मेरे जादू में कोई फर्क नहीं आयेगा। दूसरे ही क्षण बुलबुल बाज के पंजे में थी। डाँक्टर ने अपना बैग खोला और एक छोटा सा तेजधार चक्कू निकाल लिया। पहले उसने बुलबुल का बांया पंख काट डाला । फिर भी बुलबुल सीटी बजाकर उसका अभिनन्दन करती रही।दर्शकों का एक वर्ग उसके इस दुष्कृत्य से दुखी और परेशान हो रहा था। दूसरा तबका तमाशबीनों का था। वे साँस रोककर इंतजार कर रहे थे कि डाक्टर कितनी जल्दी बुलबुल का दूसरा पंख काटता है। जाने कौन सी शैतानियत उस उत्साही डाँक्टर के भीतर पैठ गई थी कि दूसरे ही क्षण उसने बुलबुल का दाहिना डैना भी जड़ से काट दिया। बुलबुलब चीख उठा। गाढ़े खून की गरम धार बह चली। बुलबुल ने बड़ी मासूम नजरों से जादूगर की ओर देखा। उसकी आँखें भीग चुकी थी। फिर उसने मुँह फेर लिया। बुलबुल की करूण -चीत्कार से पूरा हाल गूंज उठा। दर्शकों का हृदय तड़फ उठा। वे सहसा ही गंभीर, उत्तेजित और आक्रमक हो उठे। एक तो खड़ा हुआ और जादूगर को ही खरी - खोटी सुनाने लगा। आपने इस क्रुर जर्राद के हाथों इस मासूम बुलबुल को क्यों सौंपा? जादूगर का स्वर संयत और गंभीर था हमें डाक्टर पर विश्वास और भरोसा करना चाहिए। यह दूसरी बात है कि.वह हमारे साथ कैसा सलूक करता है। "हमें कितनी सान्त्वना दे पाता है"। जादूगर के इस ठंडे व्यवहार पर हाल में बैठे प्रबुध्द लोग अपने आचरण के विपरीत उस दिन उत्तेजित हो गये और फर्नीचर पीट पीट कर न्याय की माँग करने लगे। भारी शोर -गुल के बीच एक प्रतिष्ठित , संवेदनशील तथा दार्शनिक से कवि को खोज निकाला गया। स्टेज पर खड़े होकर कवि ने अपने अगल -बगल , अपराधी मुद्रा में खड़े जादूगर और डाक्टर की ओर जांचती निगाहों से देखा। वह उत्तेजित भीड़ के ही पक्ष में निर्णय देना चाहता था, ताकि आगे का शो देखा जा सकें। किन्तु अचानक ही उसके भीतर के न्यायाधीश ने आदेश दिया - दबाव या भावावेश में निर्णय देना उचित नहीं होगा। आवश्यक पूछताछ के बाद अन्त में कवि ने लगभग निर्णय के स्वर में कहा - कलाकार की कोई भी कला उसकी आत्मा से पैदा होती है। जादूगर को इतने बड़े खतरे नहीं उठाने चाहिए। किसी की जान की बाजी लगाकर कला को जीवन्त बनाना कौन.सी बात हुई। और सिर्फ जीवन दान ही नहीं करती, हमारे काल को कला ही अमर करती है। मनुष्य को मनुष्य वही बनाती है। जादूगर .के सीने में अगर बुलबुल के प्राण धड़क रहे होते तो जादूगर ही छटपटाकर पहले गिर गया होता। लेकिन वह पीड़ा की अनुभूति मात्र करता रहा, शायद नफा नुकसान का ख्याल भी उसे रहा हो। जादू को खेल बनाये रखने के लिए.अपनी अनुभूति को ही गिरवी रख देना कौन सा न्याय है? इसी प्रकार परीक्षण के बतौर किसी साबूत और निरोग अंग को काटने का अधिकार किसी डाक्टर को भी नहीं हैं। चाहे उसे अपने व्यवसाय में घाटा ही क्यों न हो, क्या आप दोनों अपने पेशे से ऊपर उठकर अपने आँपरेशन या जादू से इसके कटे डैने जोड़.सकते.हैं? -जादूगर और डाँक्टर दोनों निरुत्तर थे। उनकी आंखों में पश्चात्ताप के कण झिलमिला. रहे थे। रोशनी का नन्हा सा टुकड़ा पर्दे से त्तिरोहित हो चुका था।.घने अंधकार में उस दिन का शो फिर शोक सभा में परिणत हो गया। डाँ० बलदेव .श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़ श्रीराम काँलोनी,जुदेव पार्क,स्टेडियम के पीछे, रायगढ़, छत्तीसगढ़। मो०न० 9826378186 -- Sent from Fast notepad

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