शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

डाँ. बलदेव महत्व

डाँ. बलदेव महत्व
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राजू पांडेय,ख्याति प्राप्त लेखक



डॉ बलदेव का निधन छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत में जो रिक्त स्थान छोड़ गया है उसकी पूर्ति असंभव है।
डॉ बलदेव ने शोध और अन्वेषण के जो उच्च मानक स्थापित किए थे, उन्हें स्पर्श करने की कल्पना भी कठिन है।
छत्तीसगढ़ के साहित्यिक और सांस्कृतिक वैभव को सामने लाने के लिए छत्तीसगढ़ की चर्चित-अचर्चित विभूतियों के सुदूर ग्रामों में जाकर पांडुलिपियों का संग्रहण और अन्य प्रदेशों में जाकर अनेकानेक पुस्तकालयों में महीनों बिताते हुए इन मनीषियों पर दुर्लभ सामग्री का संकलन- यह सब इतना परिश्रम साध्य था कि उनके समर्पण को देखकर चमत्कृत हो जाना पड़ता है।
यदि आज छायावाद के प्रवर्तक पद्मश्री पंडित मुकुटधर पाण्डेय पर प्रामाणिक शोध सामग्री वर्तमान शोध छात्रों हेतु उपलब्ध है तो इसका सम्पूर्ण श्रेय डॉ बलदेव को है। राजा चक्रधर सिंह और रायगढ़ के कथक घराने पर उनका शोध चमत्कृत कर जाता है। रायगढ़ की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत को समझने के लिए केवल एक ही रास्ता है और वह डॉ बलदेव के अन्वेषण परक लेखों से होकर गुजरता है।
बतौर आलोचक डॉ बलदेव ने कितने ही युवा और उदीयमान साहित्यकारों को हाथ पकड़ कर लिखना सिखाया और गुमनामी के अंधकार में खो चुकी कितनी ही विभूतियों को वह सम्मान दिलाया जिसकी वे अधिकारी थीं।
डॉ बलदेव अपने जीवन में खूब छले गए, उनके मौलिक शोध कार्य का श्रेय अन्य लोगों ने लेने की कोशिश की। किन्तु न तो डॉ बलदेव हतोत्साहित हुए न उन्होंने किसी के प्रति मनोमालिन्य रखा।
बतौर रचनाकार छत्तीसगढ़ी भाषा को समृद्ध करने के लिए उन्होंने हर विधा में गुणवत्तापूर्ण लेखन किया और छत्तीसगढ़ी वाङ्गमय को समृद्ध किया।
आज जब वे नहीं हैं तो उनके शिष्यों का यह दायित्व बनता है कि वे अपने 'बलदेव सर' की परंपरा को आगे बढ़ाएं और छत्तीसगढ़ महतारी की गौरव स्थापना में योगदान दें।
डॉ बलदेव के योग्य सुपुत्र श्री बसंत राघव पर न केवल अपने पिता द्वारा संकलित दुर्लभ पांडुलिपियों को सुरक्षित रखने अपितु डॉ बलदेव की अनेक अधूरी शोध परियोजनाओं को पूर्ण करने का उत्तरदायित्व है। हमें पूर्ण विश्वास है कि वे इस कठिन कार्य को अपने पिता के सूक्ष्म संरक्षण में सहजता से संपादित कर सकेंगे।
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शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

डाँ. बलदेव की काव्य-भाषा:बसन्त राघव


डाँ. बलदेव की काव्य भाषा
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बसन्त राघव

मैं स्वयं स्व.डाँ. बलदेव की रचनाओं का पहला पाठक ही नहीं, कुछ कुछ उनकी रचना प्रक्रिया और उसकी पृष्ठभूमि का साक्ष्य रहा हूँ इसलिए उनकी काव्य-भाषा पर कुछ कहने कुछ लिखने की कोशश की है।उनकी छत्तीसगढ़ी भाषा की चिंता को स्पष्ट करने के लिए यह मुझे जरूरी भी लगा अन्यथा उनकी कविताएं स्वयं बोलती है, विशेष व्याख्या की जरुरत नहीं....

             भारत कृषि प्रधान देश है, आज भी देश की कुल आबादी का पचास प्रतिशत परिवार कृषि पर ही निर्भर है, और पच्चीस प्रतिशत परिवार कृषि-मजदूरों का है, याने भारत की कला-संस्कृति, श्रम-सौंदर्य का ही पर्याय है।डाँ. बलदेव कृषक-पुत्र थे,उनकी समस्त रचनाओं के केंद्र में प्राणस्वरूप यही कृषि-संस्कृति या श्रम-सौंदर्य है।उनका यह विषय नया नहीं है, पर उनका शिल्प ,उनकी शैली एकदम नयी है।इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य के विव्दान ,नंदकिशोर तिवारी की टिप्पणी गौरतलब है, उनके शब्दों में "सन् 1950 से आजतक की छत्तीसगढ़ी कविता में बिल्कुल अलग प्रयोग के दर्शन बलदेव की कविता में देखने को मिलते हैं। इस किस्म की कविता को लेंड स्केपिंग की कविता कहा जाता है। लैंडस्केपिंग अंग्रेज़ी का शब्द है,इसका अर्थ है,जो चीज जैसी दिखाई दे रही है, उसका चित्रण वैसा ही होना चाहिए।हिंदी में इसे परिदर्श कहा गया है।हिन्दी में इसका विस्तार चौतरफा है, जैसे ऊपर से देखना, आगे-पीछे,दांये-बाएं से देखना। अंग्रेजी में इसका इतना विस्तार नहीं है, अस्तु इसे देखी हुई चीज का पूर्णता के साथ प्रस्तुति मानना चाहिए।इससे अलग हिंदी में संस्कृत के समान"प्रकृत काव्य" की बात कही गयी है। प्रकृति को जैसा देखा जाय उसका चित्रण वैसा ही किया जावे।यह वर्णन मात्र फोटोग्राफी नहीं होता, उसमें कवि के साथ उसका सांसारिक ज्ञान ,वासना,समाज से प्राप्त संस्कार और संस्कृति अन्तर्मूत होती है। ऐसा करके ही कवि अपने सामाजिक सरोकार का भी परिचय देता है।"दरअसल डाँ. बलदेव की काव्य-भाषा में जो खुलापन है, अर्थ का विस्तार है वही परिदर्श का कारण है, खासकर प्रकृति और ऋतुओं के वर्णन में कवि ने ऐसा रच-रचाव किया है, जो कि परम्परागत बिम्ब और प्रतीक से बिल्कुल भिन्न है, सादृश्य -विधान वैसे भी अर्थ से ज्यादा सुबोध ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा विस्तार देने वाले होते हैं। उदाहरण के लिए उनका "दोंगरा"शीर्षक कविता ली जाय, दोंगरा या दवंगरा,छत्तीसगढ़ का अप्रचलित शब्द है जिसका अर्थ वर्षा की पहली बौछार होता है प्रचलित के लिए ही कवि ने उसका यहाँ प्रयोग किया है इससे उनकी छत्तीसगढ़ी-भाषा -विषय का चिंता भी प्रकट होती है।अदभुत लय और बिम्ब -विधानी काव्य-भाषा की प्रस्तुत कविता का स्थाई या टेक इस प्रकार है:-


           लगत असाढ के संझाकुन
           घन-घटा उठिस उमड़िस घुमड़िस घहराइस
           एक सरबर पानी बरस गइस
इस कविता के चार प्रखंड हैं, प्रथम खंड में बादल का रुई जैसे इधर -उधर, उडना, फिर सघन होकर वासुकि नाग के फण जैसे ठढियाना फिर अग्नि -रेख (बिजली) जैसी उसकी जीभ का लपलपाना धरती का कंपना,आकाश  का दपदपना (रह-रहकर प्रकाशित होना) और सूर्य का बादलों में छिपने का बिम्ब है, जिससे कालिया-दह जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है। दूसरे प्रखंड में बादलों का भारी होना, चमकीले काले जामुन जैसे भार से नीचे झुकना, मकुना हाथी के सूंड जैसे धरती की सोंधी वास को सूंघना फिर जलकणों का बरसना चकित कर देने वाला है:-
            मोती कस नुवा-नुवा
                     नान्हें-नान्हें जलकन उज्जर
            सूंढ़ उठा सुरकै-पुरकै
                       सींचै छिडकै छर छर छर
यहां विशेषण और क्रिया की झड़ी सी लग गई है, उपमा, रूपक,उत्प्रेक्षा, अनुप्रास का समवेत मानवीकरण का पूरा पूरा दृश्य बिम्ब खड़ा कर दिया है. 'बादर गुरुवाइस पांव'असन "पांव भारी"का सास्कृतिक मुहावरा है, इस कविता के आगे के प्रखंड धनुर्भंग और स्वयंबर की हल्की सी अनुगूंज सुनाई देती है:-
           के लड़ी लगा बरसै सुघ्घर
           करसा के सत्धारा ले सोनहा पानी
                      पिंवराए धरती के उप्पर
           पल्हरा पहार ले टकराइस
           तड़ तड़ तड़ तड़ाक तड़ धनुखा टूटिस
आगे सूर्य का पराभव और क्षुद्र -नदी नालों का खलखल रावण के अट्टहास की स्मृति करा देता है, इसके बाद दुब खेत हार का अंकुराना ,दुल्हन की मुस्कान ,कृषि का अधिष्ठात्री देवी का अवतरण करा देती है। यहाँ अन्तयानुप्रास की रक्षार्थ व्यतिक्रम हो गया है, वर्ना कायदे से चौथी और पांचवीं पंक्ति को शुरू में होना चाहिए था।
         डाँ. बलदेव गति, ध्वनि और प्रकाश के बिम्बांकन में अपनी प्रतिभा बिखरते नजर आते हैं, खांड़ाधार पहाड़ अपने नाम को सार्थक करता हुआ वर्षा और शरद का समवेत चित्र प्रस्तुत करता है. उप्पर सनसन हवा चलत में गति का घेरा-बेरी लउका हर लउके घिड़कावत हे मंदिर में ध्वनि का याने वर्षा का बिम्बांकन है, इसके तत्काल बाद कुमकुम जैसे बरसते प्रकाश का रंजक-रूप है:-
             पहाड़ में अनगढ़ गढ़ा अउ खोल
                               चांद म करिया दाग
             चमकै सूरज माथा उप्पर
                                 बरसै सोनहा फाग
यहां एक एक शब्द मणि जैसे है चांद और सूरज जैसे प्रस्तुत से रात और दिन जैसे अप्रस्तुत बिंम्ब बड़ा ही रंजक है--शरदकालीन सूर्य माथे ऊपर चमक रहा है फिर भी धूप काफी मीठी है, सोनहा फाग जैसी लग रही है, धूप में नहाया हुआ 'चील' सुनहला पंखों वाला हो गया है, भरपूर 'रवनिया'लेने के बाद ,पंखों को सेकने के बाद "झपट्टा मारकर पंजों पर चट्टान दबोचे उड़ गया ,यहां रुपकातिशयोक्ति अलंकार है जो गति और शक्ति दोनों को अभिव्यक्त करता है। क्वांर-कार्तिक के चित्रण के बाद कवि ने पौष और माघ शीर्ष का वर्णन दो ही पंक्तियों में सार्थक हो गया है यहाँ:-
            एकेच्च ठन कथरी अउ दूझिन प्रानी
            झींका -तानी के आधा रात मत पूछ
नींद मसक रही है, कथरी उघर रही है, दो प्राणियों के लिए एक ही कथरी है, खींचा-तानी हो रही है, इसमें गरीब दाम्पत्य और अभावों में भी मस्ती का आलम एक कड़ी ठंड जो हड्डियों में भी घुस रही है का अव्दितीय चित्रण है, कवि ने गरबैतिन के गीत में श्रृंगार के दोनों पक्षों के चित्रण में टटके बिम्बों का सृजन किया है:-
        दहकत परसा,टपकत महुवा,झिम-झिम बाजे ना
        धनुखा के टंकार बरोबर भंवरा गाजे ना
बसन्त ऋतु में भी अंगना सांय-सांय लग रहा है अंधेरे कमरे में सोये नायक का मस्तक गमक रहा है, सांझ होते ही ऊपर में "राख" भभूत जैसे झरने लगता है, और रात तो रात है जिंदगी उजाड़ हो चुकी हैं:-
       मोंगरा मम्हावे पुन्नी के चंदा अउ मउहारी जाड़
       अधिरथिया नींद उचट गै,जिंदगी लगै उजाड़
इसके बाद भी कवि की आकांक्षा है-
कोईली कूहके पिछवाड़ा म, मोर मोगंरा घर आ
                                            गरबैतिन घर आ
           काव्य-भाषा पाठक के हृदय में सीधे रागात्मक अनुभव पैदा करती है, यही उसकी पारदर्शिता या प्रेषणीयता का प्रमाण है। डाँ. बलदेव भी अपनी रचनाओं में यही राग पैदा करते थे।छत्तीसगढ़ी में 'साल्हो' यौन-गंधी गीतों को कहा जाता है, इस घनघोर श्रृंगारिक  गीत को कवि ने प्रकृति के माध्यम से और भी प्रभावशाली बना दिया है।
           हरदी चुपर के आमा बउराय
           रसे रस छींटा देंह लसलसाय
           मउरे के गमके सांस रुक जाय
           चपचपहा भुइंया ,पांव लपटाय
           गझिन अमरइय्या लुकाय हे कहूँ
           बइहर के बहके महक मारे
           मधुरस के लोरस म पंख लपटाय
           उड़े के सख नइये,भौंरा टन्नाय
          नग्न-यर्थाथ भी प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त होकर रमणीय बन जाता है। बसन्त यहाँ पूरे सबाब पर है, आम्रमजरियों के चुए हुए रस धरती भीग गई है, पांवों में चिपकने लगती है जरा सी हवा चली और गमन इतनी तीखी हो गयी है, कि सांस रुकने सी लगती है।मनसिज अपने नाम को सार्थक करता हुआ पुष्पवाण लिए यहीं कहीं अमराई में छुपा हुआ है प्रकृति वर्णन में कवि ने प्रस्तुत के प्रस्तुत विधान कर के भी अपनी कारयित्री प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है:-
                फूल की घाटी लुचकी घाटी
                               झुमरत हावं अइसे
                बीन के आघू कुंडलि मारे
                                फन काढे नागिन जइसे
यह उपमा कवि के सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण का ही परिणाम है, डाँक्टर बलदेव ने नारी की मांसलता का भी प्रकृत-वर्णन किया है लेकिन लज्जा के झीने आवरण ने उसे लावण्यमयी बना दिया है।जहाँ वासना की जगह वात्सल्य का भाव उमड़ने-घुमड़ने लगता है।ग्राम्य -वधु नाला पार कर रही है, घुंठुवा भर पानी में वह जल्दी जल्दी पांव उठाती है, माड़ी भर पानी आने पर साड़ी थोड़ा और ऊपर उठाती है, ताकि वह  गहराई में  बह न जाये ,इसलिए वह धीरे धीरे पांव (थेमत-थमात)रोप रही है:-
    निट रंग पानी फरियर-झलके जांघ गाघ हरियर
    लपट-उठत उप्पर उठात लाली फरिया फहरै फर
                                                                   फर
   छबकय छेंकय छाती उघरै अगम धार कांपै थर थर
   जांघ छुवत मछरी चमकै,उतरय चघय धार उप्पर
    तुर्र तुर्र तुर्र तितुर बोलय
                               टिहीं टिंही टिटही टिंहकय
तेज-धार है, हवा भी तेज है लाल रंग की फरिया (चूनर) उड़ने लगती है, वह बार बार उघरी हुई छाती को ढांपने लगती है याने संकट के समय भी वह स्वभाव वश अपने शील के प्रति सचेत है, इधर मछली का चमकना ,तितुर और टिटही का बोलना कामोत्तेजक है, वह पूर्ण युवती है,इसे व्यक्त करने के लिए कवि ने जांघ गाथ हरियर और थन भार जैसे शब्दों का सार्थक प्रयोग किया है, लेकिन अगले ही क्षण उसमें संपूर्ण मातृत्व का बोध करा दिया गया है, नारी के इस मांसलता के ऊपर लज्जा का झीना आवरण उसे वासनामयी से लावण्यमयी ममतामयी बना देता है। यहीं डाँ. बलदेव की काव्य की काव्य कला के असली दर्शन होते हैं। वास्तव में उक्त "लेवई"(पहली बार ब्याही गैया)  कविता छत्तीसगढ़ के यौवन और श्रम-सौंदर्य और मांसलता के ऊपर लज्जा के अवगुंठन को व्यक्त करने वाली सशक्त रचना है, इसी प्रकार कवि ने छ्त्तीसगढ़ को कामधेनु या कलोर गाय के रूप में चित्रण कर उसे और भी महिमा मंडित कर दिया है। कवि के प्रकृति सौंदर्य का यह अनूठा बिम्ब दृष्टव्य है:-
            चरत हे गइय्या कलोर रे कदली बन मा
            छुए ले पर जाही लोर रे कदली बन मा
            माछी फिसल जाही बइठेच म ओ
            पेट-पीठ ले उठै हिलोर रे कदली बन मा
       यह वस्तु जगत का शाब्दिक चित्र है लेकिन इसके भाषा संकेत अमूर्त भावनाओं का उद्भाषित करते नजर आते हैं, विशिष्ट अर्थ में या व्यंग्यार्थ में यह छत्तीसगढ़ की सुख शांति, रिजुता,समृद्धि और निष्कलुष सौंदर्य को अभिव्यक्त करता है यही कवि की निजता(शैली) है। डाँ. बलदेव अपने अनुभवों को चाहे वह सरल हो या जटिल समर्थ भाषा देने में सक्षम थे।
        डाँ. बलदेव का मन प्रकृति-सौंदर्य में बार बार रमता रहा था,उन्होंने प्रकृति-सौंदर्य के एक से बढ़कर एक टटके बिम्बों का सृजन किया है जिसमें गति,छाया और प्रकाश को पकड़ने की अद्भुत कला थी-
               उड़त हे भंवरा करौंदा के झुंड
               डोले हिंडोलना कउहा अउ कुंड
               अंजोरी पाख दिखै जल मोंगरा
               उछलै मछली छलकै कुंड
छाया-चित्रों के गति और निर्मल जल के भीतर अंजोरी पाख की कल्पना डाँ. बलदेव ही कर सकते थे। इसमें रंग संयोजन और ध्वनि-संयोजन भी अद्भुत है, अबाधित लय में यह रचना भीतर से बाहर की ओर प्रक्षेपित होती नजर आती है, इस संदर्भ में उनकी "फटक्का"शीर्षक रचना भी अव्दितीय है, जिसमें सरल से सरल वाक्य संरचना से तीब्र ,मध्य और मन्द ध्वनियों तथा हल्के गाढे,धूसर चटक रंगों के विरोधाभासी बिम्बों का निर्माण कर दीप पर्व के सौंदर्य को निखारा गया है-
       कहूँ धमाक ले गोला छूटे, कहूँ दनाक ले
       कहूँ बम फूटै भांय, गगन घटा घहराय
        कहूँ सर्रट ले उड़के फेंकाय फक ले
        कहूँ फुस्स ले बिन फूटे बुझ जाय
इसी प्रकार चटक रंगों का अनूठा प्रयोग देखिए:-
         झलकत हे अगिन जोत लड़ी
         नदी तलाव म अउ उबक जाय
         जगमगात खंभा नीला-पीला कहूँ हरा लाल
ऐसे ही कई प्रकाश पर्व रंग पर्वों, तीज-त्यौहार आदिवासियों के कर्मानृत्य झांझ-मादल की थाप से समूची गीत-पंक्तियाँ झंकृत होती रहती है। करमा नृत्य का दृश्य बिम्ब देखिए जिसमें झूमर और लहकी में नृत्य दल के साथ समूची धरती नृत्य करती घूमती नजर आती है।
                   धांधिन तिंता धाधिन्ना
                   झझरंग झझरंग झर्रंग ले
मादल के बोल के साथ पगडी के झूमर,हाथों की लूर  हिलने डुलने लगती है और सारा गाँव मादल की आवाज,नृत्य की लय में डूबने उतरने लगता है-
                बाजत हे मांदर झूमरत हे गाँव
                कर्मा के बोल उठै थिरकत हे पांव
                झूमर अउ लहकी म घुमरत हे गुइंया
                अखरा म माते झुमरत हे गुइंया
       यह नृत्य संगीत का प्रभाव समूचे चराचर पर पड़ रहा है।ध्वन्यात्मक और चित्रात्मकता से यहाँ भाषा तक मांसल हो गयी है।श्री भगत सिंह सोनी ने डाँ. बलदेव की रचनाओं पर सटीक टिप्पणी की है" इनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ी जीवन शैली की ,संस्कृति  एवं प्रकृति पर फोकस किया गया है। उनकी कविता की भाषा में बनावटीपन के दर्शन नहीं होते।बरबस भाषाई मिठास एवं सधे हुए शिल्प से वे भाषा में जादु या चमत्कार पैदा करते हैं।"(लोकाक्षर अंक 6सितं.1999पृ.12)डाँ. बलदेव की कविता श्रम की महागाथा लिखती है, जहाँ बुध्दिजीवी कठिन श्रम से जी चुराता है।वहीं मेहनतकश आदमी कठिन संघर्ष करता हुआ अपने लक्ष्य में कामयाब हो जाता है। दो विरोधी चरित्रों से देखिए भला कविता किस कदर ऊंचे उड़ान भरती है-
          ठाढ़ मंझनियाँ
          नान-नान सुरुज के रूप धरे
          गुखरू-मन सोनहा उजास फेंकत हें चारों मुड़ा
          आँखी ल सूजी कस हूबत हें
          फांस कस बारीक गुखरू के कांटा मन चुभत हे
          बिवाई फटे पांव
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           गर्सहन रेंगत हे गुखरू उप्पर
           जाल अउ ढिटोरी धरे
                     डबरी म सुरुज ल पकड़े बर
प्रचंड सूर्य के ताप को असंख्य सूर्यो के रूप में उद्भाषित गुखरू के कांटे और भी बढा रहे हैं। विराट की लघु से तुलना यहाँ विचलन है, जो अर्थ गौरव हेतु है।यहाँ सूर्य केन्द्रीय बिम्ब है जो क्रमशः गोखरू तथा मछली में रूपांतरित होता है ,उत्कट जिजीविषा का सटीक प्रतीक है यह सूर्य जो अमूर्त मछली को मूर्त करता है। एक बात यहाँ बार बार कहने को मन होता है कि डाँ.बलदेव मूलतः कृषक पुत्र थे ग्रामवासी थे जिसके कारण वे बार बार कृषि ,श्रम,ग्राम्य सौंदर्य का चित्रण करते नहीं अघाते थे,लेकिन वे आनंद उन्मादना के ही चितेरे नहीं हैं, बल्कि वे उनके दुख दर्द में  अभावों में गहरे उतरते हुए नजर आते हैं।
         वे मूक-दर्शक न होकर मारक भाषा में तकलीफों को व्यक्त करते हुए कारणों की जांच करते हैं। फिर उसके उच्छेद के लिए वातावरण भी तैयार करते हैं।इस संदर्भ में "धुन" और "इज्ज़त"उनकी प्रतिनिधि कविताएं हैं जिसमें जितना ताकतवर कथ्य है, उतना ही ताकतवर उसका शिल्प भी है-
            पाटी ल धुन हर चरत हे, खोलत हे
            घुप अंधियारी हर दांत ल कटरत हे
            मुडका म माथा ल भंइसा हर ठेंसत हे
            मन्से के ऊपर घुना हर गिरत हे झरत हे
घुन लकड़ी को खोखला कर देता है(खाद बना देता है) लकड़ी के कटने की आवाज़ अंधकार या नैराश्य के दांत कटरने (चबाने) में रूपांतरित हो जाती है, इसी प्रकार किसान की चिंता को तकलीफ का भैंसों का मुडका में माथा ठूंसने(पटकने) जैसी क्रिया से व्यक्त किया गया है, यह पीड़ा की चरम सीमा है। आदमी के ऊपर घुन का झरना नियति की मार को और भी भयानक बना देता है
           छत्तीसगढ़ का किसान अत्यधिक परिश्रमी है। वह इतना सरल,सीधा, और सहनशील होता है कि कोई भी उसका आसानी से शोषण कर लेता है उसकी  सुविधाओं जरूरतों की बात तो छोड़िए उसके प्रति होने वाले अन्याय-शोषण के प्रतिकार की भी चिंता इस सभ्य समाज को नहीं है।मेहनतकश आदमी मार खाकर भी कुछ नहीं बोलता पर प्रताड़ित करने वाले को वह एक बार अपनी गीली आँखों से देख ही लेता है।उसके आक्रोश का न फूटना  ही छत्तीसगढ़ के उग्र जन क्रांति की आसन्न सूचना है।अद्भुत शिल्प का एक नमूना और देखिए-

            बासी के सेवाद लेत
            मस्तराम /मुचुर मुचुर हांसथे
             एक बटकी बासी देवा
                    अउ दिन भर जानवर कस काम लेवा
                 *           *           *        *
            मस्त राम कभू कभू लहुलुहान हो जाथे
                      तभ्भो ले कुछु नइ कहै

            न रोवै न चिल्लाय
            भेद भरे मुस्कान के संगे संग आँखी चमकथे
            अउ कोरा कोरा आँखी के भीग जाथे

            मस्तराम गूंगा हे साँइत
                   ओला जुबान चाही
            मस्तराम तो मस्तराम आय
                     ओला भला का चाही
ऊपर से शांत -प्रकृति की यह रचना भयंकर क्रांतिकारी है,यह मात्र छत्तीसगढ़ के "संतोष"को व्यक्त  करने वाली रचना नहीं है।करूणा और कभी न फटने वाला आक्रोश दरअसल किसी भंयकर क्रांति की सूचना है 'गूंगा'और 'वाणी'शब्दों का प्रयोग इसी के प्रतीक है।
             डाँ. बलदेव संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला याने श्रेष्ठ भाषा साहित्य के गंभीर अध्येता थे,अस्तु उनके इस गहन अध्यवसाय का उनकी रचनाओं में यथेष्ठ प्रभाव पड़ा है।डाँ. बलदेव ,कभी कभी महान रचनाकारों की रचनाओं की पुनर्रचना कर छत्तीसगढ़ी की अभिव्यंजना शक्ति को उदाहरण बतौर रखना चाहते थे।यहाँ दो ही रचनाएं पर्याप्त होंगी, इस बात को पुख्ता करने के लिए वाल्मीकि के एक श्लोक की पुनर्रचना उन्होंने इन शब्दों में की है:;
            जाड़ के दिन चौमास के बाद
            जादा चमकीला
            अउ अकास बड़ चमकीला हो  जाथे
            बिर्खरा
            गोज छोड़े के बाद
            पहिली ले जादा चमकीला
            अउ जहरीला हो जाथे
इसी प्रकार शेक्सपीयर के 'बटरफ्लाई'कविता की पुनर्रचना देखिए-
             दंतइय्या कस लकलक ले
             दिखत हस गोई
             ओइसनेच रंग
                      तपे सोना कस
             ओइसनेच रूप
                       कनिहा मुठा भर
             अउ डंक ओइसनेच
             दंतइय्या कस
                   ***
संक्षेप में कहें तो डाँ.बलदेव की काव्य भाषा अत्यधिक रागात्मक है।यह सौंदर्य बोध का ही एक प्रकार से पर्याय है।

                         बसन्त राघव
          पंचवटी कालोनी, बोईरदादर, रायगढ़
           छत्तीसगढ़,मो.न.8319939396

डाँ. बलदेव की काव्य भाषा(समीक्षा)लेखक बसन्त राघव

डाँ. बलदेव की काव्य भाषा
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बसन्त राघव

मैं स्वयं स्व.डाँ. बलदेव की रचनाओं का पहला पाठक ही नहीं, कुछ कुछ उनकी रचना प्रक्रिया और उसकी पृष्ठभूमि का साक्ष्य रहा हूँ इसलिए उनकी काव्य-भाषा पर कुछ कहने कुछ लिखने की कोशश की है।उनकी छत्तीसगढ़ी भाषा की चिंता को स्पष्ट करने के लिए यह मुझे जरूरी भी लगा अन्यथा उनकी कविताएं स्वयं बोलती है, विशेष व्याख्या की जरुरत नहीं....

             भारत कृषि प्रधान देश है, आज भी देश की कुल आबादी का पचास प्रतिशत परिवार कृषि पर ही निर्भर है, और पच्चीस प्रतिशत परिवार कृषि-मजदूरों का है, याने भारत की कला-संस्कृति, श्रम-सौंदर्य का ही पर्याय है।डाँ. बलदेव कृषक-पुत्र थे,उनकी समस्त रचनाओं के केंद्र में प्राणस्वरूप यही कृषि-संस्कृति या श्रम-सौंदर्य है।उनका यह विषय नया नहीं है, पर उनका शिल्प ,उनकी शैली एकदम नयी है।इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य के विव्दान ,नंदकिशोर तिवारी की टिप्पणी गौरतलब है, उनके शब्दों में "सन् 1950 से आजतक की छत्तीसगढ़ी कविता में बिल्कुल अलग प्रयोग के दर्शन बलदेव की कविता में देखने को मिलते हैं। इस किस्म की कविता को लेंड स्केपिंग की कविता कहा जाता है। लैंडस्केपिंग अंग्रेज़ी का शब्द है,इसका अर्थ है,जो चीज जैसी दिखाई दे रही है, उसका चित्रण वैसा ही होना चाहिए।हिंदी में इसे परिदर्श कहा गया है।हिन्दी में इसका विस्तार चौतरफा है, जैसे ऊपर से देखना, आगे-पीछे,दांये-बाएं से देखना। अंग्रेजी में इसका इतना विस्तार नहीं है, अस्तु इसे देखी हुई चीज का पूर्णता के साथ प्रस्तुति मानना चाहिए।इससे अलग हिंदी में संस्कृत के समान"प्रकृत काव्य" की बात कही गयी है। प्रकृति को जैसा देखा जाय उसका चित्रण वैसा ही किया जावे।यह वर्णन मात्र फोटोग्राफी नहीं होता, उसमें कवि के साथ उसका सांसारिक ज्ञान ,वासना,समाज से प्राप्त संस्कार और संस्कृति अन्तर्मूत होती है। ऐसा करके ही कवि अपने सामाजिक सरोकार का भी परिचय देता है।"दरअसल डाँ. बलदेव की काव्य-भाषा में जो खुलापन है, अर्थ का विस्तार है वही परिदर्श का कारण है, खासकर प्रकृति और ऋतुओं के वर्णन में कवि ने ऐसा रच-रचाव किया है, जो कि परम्परागत बिम्ब और प्रतीक से बिल्कुल भिन्न है, सादृश्य -विधान वैसे भी अर्थ से ज्यादा सुबोध ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा विस्तार देने वाले होते हैं। उदाहरण के लिए उनका "दोंगरा"शीर्षक कविता ली जाय, दोंगरा या दवंगरा,छत्तीसगढ़ का अप्रचलित शब्द है जिसका अर्थ वर्षा की पहली बौछार होता है प्रचलित के लिए ही कवि ने उसका यहाँ प्रयोग किया है इससे उनकी छत्तीसगढ़ी-भाषा -विषय का चिंता भी प्रकट होती है।अदभुत लय और बिम्ब -विधानी काव्य-भाषा की प्रस्तुत कविता का स्थाई या टेक इस प्रकार है:-
           लगत असाढ के संझाकुन
           घन-घटा उठिस उमड़िस घुमड़िस घहराइस
           एक सरबर पानी बरस गइस
इस कविता के चार प्रखंड हैं, प्रथम खंड में बादल का रुई जैसे इधर -उधर, उडना, फिर सघन होकर वासुकि नाग के फण जैसे ठढियाना फिर अग्नि -रेख (बिजली) जैसी उसकी जीभ का लपलपाना धरती का कंपना,आकाश  का दपदपना (रह-रहकर प्रकाशित होना) और सूर्य का बादलों में छिपने का बिम्ब है, जिससे कालिया-दह जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है। दूसरे प्रखंड में बादलों का भारी होना, चमकीले काले जामुन जैसे भार से नीचे झुकना, मकुना हाथी के सूंड जैसे धरती की सोंधी वास को सूंघना फिर जलकणों का बरसना चकित कर देने वाला है:-
            मोती कस नुवा-नुवा
                     नान्हें-नान्हें जलकन उज्जर
            सूंढ़ उठा सुरकै-पुरकै
                       सींचै छिडकै छर छर छर
यहां विशेषण और क्रिया की झड़ी सी लग गई है, उपमा, रूपक,उत्प्रेक्षा, अनुप्रास का समवेत मानवीकरण का पूरा पूरा दृश्य बिम्ब खड़ा कर दिया है. 'बादर गुरुवाइस पांव'असन "पांव भारी"का सास्कृतिक मुहावरा है, इस कविता के आगे के प्रखंड धनुर्भंग और स्वयंबर की हल्की सी अनुगूंज सुनाई देती है:-
           के लड़ी लगा बरसै सुघ्घर
           करसा के सत्धारा ले सोनहा पानी
                      पिंवराए धरती के उप्पर
           पल्हरा पहार ले टकराइस
           तड़ तड़ तड़ तड़ाक तड़ धनुखा टूटिस
आगे सूर्य का पराभव और क्षुद्र -नदी नालों का खलखल रावण के अट्टहास की स्मृति करा देता है, इसके बाद दुब खेत हार का अंकुराना ,दुल्हन की मुस्कान ,कृषि का अधिष्ठात्री देवी का अवतरण करा देती है। यहाँ अन्तयानुप्रास की रक्षार्थ व्यतिक्रम हो गया है, वर्ना कायदे से चौथी और पांचवीं पंक्ति को शुरू में होना चाहिए था।
         डाँ. बलदेव गति, ध्वनि और प्रकाश के बिम्बांकन में अपनी प्रतिभा बिखरते नजर आते हैं, खांड़ाधार पहाड़ अपने नाम को सार्थक करता हुआ वर्षा और शरद का समवेत चित्र प्रस्तुत करता है. उप्पर सनसन हवा चलत में गति का घेरा-बेरी लउका हर लउके घिड़कावत हे मंदिर में ध्वनि का याने वर्षा का बिम्बांकन है, इसके तत्काल बाद कुमकुम जैसे बरसते प्रकाश का रंजक-रूप है:-
             पहाड़ में अनगढ़ गढ़ा अउ खोल
                               चांद म करिया दाग
             चमकै सूरज माथा उप्पर
                                 बरसै सोनहा फाग
यहां एक एक शब्द मणि जैसे है चांद और सूरज जैसे प्रस्तुत से रात और दिन जैसे अप्रस्तुत बिंम्ब बड़ा ही रंजक है--शरदकालीन सूर्य माथे ऊपर चमक रहा है फिर भी धूप काफी मीठी है, सोनहा फाग जैसी लग रही है, धूप में नहाया हुआ 'चील' सुनहला पंखों वाला हो गया है, भरपूर 'रवनिया'लेने के बाद ,पंखों को सेकने के बाद "झपट्टा मारकर पंजों पर चट्टान दबोचे उड़ गया ,यहां रुपकातिशयोक्ति अलंकार है जो गति और शक्ति दोनों को अभिव्यक्त करता है। क्वांर-कार्तिक के चित्रण के बाद कवि ने पौष और माघ शीर्ष का वर्णन दो ही पंक्तियों में सार्थक हो गया है यहाँ:-
            एकेच्च ठन कथरी अउ दूझिन प्रानी
            झींका -तानी के आधा रात मत पूछ
नींद मसक रही है, कथरी उघर रही है, दो प्राणियों के लिए एक ही कथरी है, खींचा-तानी हो रही है, इसमें गरीब दाम्पत्य और अभावों में भी मस्ती का आलम एक कड़ी ठंड जो हड्डियों में भी घुस रही है का अव्दितीय चित्रण है, कवि ने गरबैतिन के गीत में श्रृंगार के दोनों पक्षों के चित्रण में टटके बिम्बों का सृजन किया है:-
        दहकत परसा,टपकत महुवा,झिम-झिम बाजे ना
        धनुखा के टंकार बरोबर भंवरा गाजे ना
बसन्त ऋतु में भी अंगना सांय-सांय लग रहा है अंधेरे कमरे में सोये नायक का मस्तक गमक रहा है, सांझ होते ही ऊपर में "राख" भभूत जैसे झरने लगता है, और रात तो रात है जिंदगी उजाड़ हो चुकी हैं:-
       मोंगरा मम्हावे पुन्नी के चंदा अउ मउहारी जाड़
       अधिरथिया नींद उचट गै,जिंदगी लगै उजाड़
इसके बाद भी कवि की आकांक्षा है-
कोईली कूहके पिछवाड़ा म, मोर मोगंरा घर आ
                                            गरबैतिन घर आ
           काव्य-भाषा पाठक के हृदय में सीधे रागात्मक अनुभव पैदा करती है, यही उसकी पारदर्शिता या प्रेषणीयता का प्रमाण है। डाँ. बलदेव भी अपनी रचनाओं में यही राग पैदा करते थे।छत्तीसगढ़ी में 'साल्हो' यौन-गंधी गीतों को कहा जाता है, इस घनघोर श्रृंगारिक  गीत को कवि ने प्रकृति के माध्यम से और भी प्रभावशाली बना दिया है।
           हरदी चुपर के आमा बउराय
           रसे रस छींटा देंह लसलसाय
           मउरे के गमके सांस रुक जाय
           चपचपहा भुइंया ,पांव लपटाय
           गझिन अमरइय्या लुकाय हे कहूँ
           बइहर के बहके महक मारे
           मधुरस के लोरस म पंख लपटाय
           उड़े के सख नइये,भौंरा टन्नाय
          नग्न-यर्थाथ भी प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त होकर रमणीय बन जाता है। बसन्त यहाँ पूरे सबाब पर है, आम्रमजरियों के चुए हुए रस धरती भीग गई है, पांवों में चिपकने लगती है जरा सी हवा चली और गमन इतनी तीखी हो गयी है, कि सांस रुकने सी लगती है।मनसिज अपने नाम को सार्थक करता हुआ पुष्पवाण लिए यहीं कहीं अमराई में छुपा हुआ है प्रकृति वर्णन में कवि ने प्रस्तुत के प्रस्तुत विधान कर के भी अपनी कारयित्री प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है:-
                फूल की घाटी लुचकी घाटी
                               झुमरत हावं अइसे
                बीन के आघू कुंडलि मारे
                                फन काढे नागिन जइसे
यह उपमा कवि के सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण का ही परिणाम है, डाँक्टर बलदेव ने नारी की मांसलता का भी प्रकृत-वर्णन किया है लेकिन लज्जा के झीने आवरण ने उसे लावण्यमयी बना दिया है।जहाँ वासना की जगह वात्सल्य का भाव उमड़ने-घुमड़ने लगता है।ग्राम्य -वधु नाला पार कर रही है, घुंठुवा भर पानी में वह जल्दी जल्दी पांव उठाती है, माड़ी भर पानी आने पर साड़ी थोड़ा और ऊपर उठाती है, ताकि वह  गहराई में  बह न जाये ,इसलिए वह धीरे धीरे पांव (थेमत-थमात)रोप रही है:-
    निट रंग पानी फरियर-झलके जांघ गाघ हरियर
    लपट-उठत उप्पर उठात लाली फरिया फहरै फर
                                                                   फर
   छबकय छेंकय छाती उघरै अगम धार कांपै थर थर
   जांघ छुवत मछरी चमकै,उतरय चघय धार उप्पर
    तुर्र तुर्र तुर्र तितुर बोलय
                               टिहीं टिंही टिटही टिंहकय
तेज-धार है, हवा भी तेज है लाल रंग की फरिया (चूनर) उड़ने लगती है, वह बार बार उघरी हुई छाती को ढांपने लगती है याने संकट के समय भी वह स्वभाव वश अपने शील के प्रति सचेत है, इधर मछली का चमकना ,तितुर और टिटही का बोलना कामोत्तेजक है, वह पूर्ण युवती है,इसे व्यक्त करने के लिए कवि ने जांघ गाथ हरियर और थन भार जैसे शब्दों का सार्थक प्रयोग किया है, लेकिन अगले ही क्षण उसमें संपूर्ण मातृत्व का बोध करा दिया गया है, नारी के इस मांसलता के ऊपर लज्जा का झीना आवरण उसे वासनामयी से लावण्यमयी ममतामयी बना देता है। यहीं डाँ. बलदेव की काव्य की काव्य कला के असली दर्शन होते हैं। वास्तव में उक्त "लेवई"(पहली बार ब्याही गैया)  कविता छत्तीसगढ़ के यौवन और श्रम-सौंदर्य और मांसलता के ऊपर लज्जा के अवगुंठन को व्यक्त करने वाली सशक्त रचना है, इसी प्रकार कवि ने छ्त्तीसगढ़ को कामधेनु या कलोर गाय के रूप में चित्रण कर उसे और भी महिमा मंडित कर दिया है। कवि के प्रकृति सौंदर्य का यह अनूठा बिम्ब दृष्टव्य है:-
            चरत हे गइय्या कलोर रे कदली बन मा
            छुए ले पर जाही लोर रे कदली बन मा
            माछी फिसल जाही बइठेच म ओ
            पेट-पीठ ले उठै हिलोर रे कदली बन मा
       यह वस्तु जगत का शाब्दिक चित्र है लेकिन इसके भाषा संकेत अमूर्त भावनाओं का उद्भाषित करते नजर आते हैं, विशिष्ट अर्थ में या व्यंग्यार्थ में यह छत्तीसगढ़ की सुख शांति, रिजुता,समृद्धि और निष्कलुष सौंदर्य को अभिव्यक्त करता है यही कवि की निजता(शैली) है। डाँ. बलदेव अपने अनुभवों को चाहे वह सरल हो या जटिल समर्थ भाषा देने में सक्षम थे।
        डाँ. बलदेव का मन प्रकृति-सौंदर्य में बार बार रमता रहा था,उन्होंने प्रकृति-सौंदर्य के एक से बढ़कर एक टटके बिम्बों का सृजन किया है जिसमें गति,छाया और प्रकाश को पकड़ने की अद्भुत कला थी-
               उड़त हे भंवरा करौंदा के झुंड
               डोले हिंडोलना कउहा अउ कुंड
               अंजोरी पाख दिखै जल मोंगरा
               उछलै मछली छलकै कुंड
छाया-चित्रों के गति और निर्मल जल के भीतर अंजोरी पाख की कल्पना डाँ. बलदेव ही कर सकते थे। इसमें रंग संयोजन और ध्वनि-संयोजन भी अद्भुत है, अबाधित लय में यह रचना भीतर से बाहर की ओर प्रक्षेपित होती नजर आती है, इस संदर्भ में उनकी "फटक्का"शीर्षक रचना भी अव्दितीय है, जिसमें सरल से सरल वाक्य संरचना से तीब्र ,मध्य और मन्द ध्वनियों तथा हल्के गाढे,धूसर चटक रंगों के विरोधाभासी बिम्बों का निर्माण कर दीप पर्व के सौंदर्य को निखारा गया है-
       कहूँ धमाक ले गोला छूटे, कहूँ दनाक ले
       कहूँ बम फूटै भांय, गगन घटा घहराय
        कहूँ सर्रट ले उड़के फेंकाय फक ले
        कहूँ फुस्स ले बिन फूटे बुझ जाय
इसी प्रकार चटक रंगों का अनूठा प्रयोग देखिए:-
         झलकत हे अगिन जोत लड़ी
         नदी तलाव म अउ उबक जाय
         जगमगात खंभा नीला-पीला कहूँ हरा लाल
ऐसे ही कई प्रकाश पर्व रंग पर्वों, तीज-त्यौहार आदिवासियों के कर्मानृत्य झांझ-मादल की थाप से समूची गीत-पंक्तियाँ झंकृत होती रहती है। करमा नृत्य का दृश्य बिम्ब देखिए जिसमें झूमर और लहकी में नृत्य दल के साथ समूची धरती नृत्य करती घूमती नजर आती है।
                   धांधिन तिंता धाधिन्ना
                   झझरंग झझरंग झर्रंग ले
मादल के बोल के साथ पगडी के झूमर,हाथों की लूर  हिलने डुलने लगती है और सारा गाँव मादल की आवाज,नृत्य की लय में डूबने उतरने लगता है-
                बाजत हे मांदर झूमरत हे गाँव
                कर्मा के बोल उठै थिरकत हे पांव
                झूमर अउ लहकी म घुमरत हे गुइंया
                अखरा म माते झुमरत हे गुइंया
       यह नृत्य संगीत का प्रभाव समूचे चराचर पर पड़ रहा है।ध्वन्यात्मक और चित्रात्मकता से यहाँ भाषा तक मांसल हो गयी है।श्री भगत सिंह सोनी ने डाँ. बलदेव की रचनाओं पर सटीक टिप्पणी की है" इनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ी जीवन शैली की ,संस्कृति  एवं प्रकृति पर फोकस किया गया है। उनकी कविता की भाषा में बनावटीपन के दर्शन नहीं होते।बरबस भाषाई मिठास एवं सधे हुए शिल्प से वे भाषा में जादु या चमत्कार पैदा करते हैं।"(लोकाक्षर अंक 6सितं.1999पृ.12)डाँ. बलदेव की कविता श्रम की महागाथा लिखती है, जहाँ बुध्दिजीवी कठिन श्रम से जी चुराता है।वहीं मेहनतकश आदमी कठिन संघर्ष करता हुआ अपने लक्ष्य में कामयाब हो जाता है। दो विरोधी चरित्रों से देखिए भला कविता किस कदर ऊंचे उड़ान भरती है-
          ठाढ़ मंझनियाँ
          नान-नान सुरुज के रूप धरे
          गुखरू-मन सोनहा उजास फेंकत हें चारों मुड़ा
          आँखी ल सूजी कस हूबत हें
          फांस कस बारीक गुखरू के कांटा मन चुभत हे
          बिवाई फटे पांव
               ** *
           गर्सहन रेंगत हे गुखरू उप्पर
           जाल अउ ढिटोरी धरे
                     डबरी म सुरुज ल पकड़े बर
प्रचंड सूर्य के ताप को असंख्य सूर्यो के रूप में उद्भाषित गुखरू के कांटे और भी बढा रहे हैं। विराट की लघु से तुलना यहाँ विचलन है, जो अर्थ गौरव हेतु है।यहाँ सूर्य केन्द्रीय बिम्ब है जो क्रमशः गोखरू तथा मछली में रूपांतरित होता है ,उत्कट जिजीविषा का सटीक प्रतीक है यह सूर्य जो अमूर्त मछली को मूर्त करता है। एक बात यहाँ बार बार कहने को मन होता है कि डाँ.बलदेव मूलतः कृषक पुत्र थे ग्रामवासी थे जिसके कारण वे बार बार कृषि ,श्रम,ग्राम्य सौंदर्य का चित्रण करते नहीं अघाते थे,लेकिन वे आनंद उन्मादना के ही चितेरे नहीं हैं, बल्कि वे उनके दुख दर्द में  अभावों में गहरे उतरते हुए नजर आते हैं।
         वे मूक-दर्शक न होकर मारक भाषा में तकलीफों को व्यक्त करते हुए कारणों की जांच करते हैं। फिर उसके उच्छेद के लिए वातावरण भी तैयार करते हैं।इस संदर्भ में "धुन" और "इज्ज़त"उनकी प्रतिनिधि कविताएं हैं जिसमें जितना ताकतवर कथ्य है, उतना ही ताकतवर उसका शिल्प भी है-
            पाटी ल धुन हर चरत हे, खोलत हे
            घुप अंधियारी हर दांत ल कटरत हे
            मुडका म माथा ल भंइसा हर ठेंसत हे
            मन्से के ऊपर घुना हर गिरत हे झरत हे
घुन लकड़ी को खोखला कर देता है(खाद बना देता है) लकड़ी के कटने की आवाज़ अंधकार या नैराश्य के दांत कटरने (चबाने) में रूपांतरित हो जाती है, इसी प्रकार किसान की चिंता को तकलीफ का भैंसों का मुडका में माथा ठूंसने(पटकने) जैसी क्रिया से व्यक्त किया गया है, यह पीड़ा की चरम सीमा है। आदमी के ऊपर घुन का झरना नियति की मार को और भी भयानक बना देता है
           छत्तीसगढ़ का किसान अत्यधिक परिश्रमी है। वह इतना सरल,सीधा, और सहनशील होता है कि कोई भी उसका आसानी से शोषण कर लेता है उसकी  सुविधाओं जरूरतों की बात तो छोड़िए उसके प्रति होने वाले अन्याय-शोषण के प्रतिकार की भी चिंता इस सभ्य समाज को नहीं है।मेहनतकश आदमी मार खाकर भी कुछ नहीं बोलता पर प्रताड़ित करने वाले को वह एक बार अपनी गीली आँखों से देख ही लेता है।उसके आक्रोश का न फूटना  ही छत्तीसगढ़ के उग्र जन क्रांति की आसन्न सूचना है।अद्भुत शिल्प का एक नमूना और देखिए-

            बासी के सेवाद लेत
            मस्तराम /मुचुर मुचुर हांसथे
             एक बटकी बासी देवा
                    अउ दिन भर जानवर कस काम लेवा
                 *           *           *        *
            मस्त राम कभू कभू लहुलुहान हो जाथे
                      तभ्भो ले कुछु नइ कहै

            न रोवै न चिल्लाय
            भेद भरे मुस्कान के संगे संग आँखी चमकथे
            अउ कोरा कोरा आँखी के भीग जाथे

            मस्तराम गूंगा हे साँइत
                   ओला जुबान चाही
            मस्तराम तो मस्तराम आय
                     ओला भला का चाही
ऊपर से शांत -प्रकृति की यह रचना भयंकर क्रांतिकारी है,यह मात्र छत्तीसगढ़ के "संतोष"को व्यक्त  करने वाली रचना नहीं है।करूणा और कभी न फटने वाला आक्रोश दरअसल किसी भंयकर क्रांति की सूचना है 'गूंगा'और 'वाणी'शब्दों का प्रयोग इसी के प्रतीक है।
             डाँ. बलदेव संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला याने श्रेष्ठ भाषा साहित्य के गंभीर अध्येता थे,अस्तु उनके इस गहन अध्यवसाय का उनकी रचनाओं में यथेष्ठ प्रभाव पड़ा है।डाँ. बलदेव ,कभी कभी महान रचनाकारों की रचनाओं की पुनर्रचना कर छत्तीसगढ़ी की अभिव्यंजना शक्ति को उदाहरण बतौर रखना चाहते थे।यहाँ दो ही रचनाएं पर्याप्त होंगी, इस बात को पुख्ता करने के लिए वाल्मीकि के एक श्लोक की पुनर्रचना उन्होंने इन शब्दों में की है:;
            जाड़ के दिन चौमास के बाद
            जादा चमकीला
            अउ अकास बड़ चमकीला हो  जाथे
            बिर्खरा
            गोज छोड़े के बाद
            पहिली ले जादा चमकीला
            अउ जहरीला हो जाथे
इसी प्रकार शेक्सपीयर के 'बटरफ्लाई'कविता की पुनर्रचना देखिए-
             दंतइय्या कस लकलक ले
             दिखत हस गोई
             ओइसनेच रंग
                      तपे सोना कस
             ओइसनेच रूप
                       कनिहा मुठा भर
             अउ डंक ओइसनेच
             दंतइय्या कस
                   ***
संक्षेप में कहें तो डाँ.बलदेव की काव्य भाषा अत्यधिक रागात्मक है।यह सौंदर्य बोध का ही एक प्रकार से पर्याय है।

                         बसन्त राघव
          पंचवटी कालोनी, बोईरदादर, रायगढ़
           छत्तीसगढ़,मो.न.8319939396

रविवार, 10 सितंबर 2017

पं.मुकुटधर पांडेय लेखक डाँ. बलदेव

पं. मुकुटधर पांडेय ----------------------- डाँ. बलदेव पं. मुकुटधर पांडेय का.जन्म 30 सितंबर सन् 1895 को बिलासपुर जिले बालपुर ग्राम में हुआ था। किंशुक-कानन-आवेष्टित चित्रोत्पला के तट - प्रदेश में बसा यह गाँव रायगढ़ - सारंगढ़ मार्ग पर चन्द्रपुर (जमींदारी) की पूर्व में स्थित है। और महानदी के पुल या किसी टीले से घनी अमराइयों से झाकता हुआ दिखाई देता है। सूर्यास्त के समय यहाँ की छटा निराली होती है। एक बालक पत्रिकाओं को उलट-पुलट कर देख रहा है, किस पन्ने में किन चित्रों के साथ भैया की कविता छपी है। उधर ममतामयी मां देवहुती रसोई से टेर लगा रही है..... इसी वातावरण में लुका-छिपी ... तुकबंदी होने लगती है। पितृशोक से वह और भी प्रबल हो जाती है। खेल ही खेल में ढेर-सी कविताएं रजत और स्वर्ण-पदकों की उद्घोषणा के साथ 'हितकारिणी', 'इन्दु', 'स्वदेश-बान्धव', आर्य महिला', 'सरस्वती', -जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपने लगती है। देखते ही देखते सन् 1916 में मुरली मुकुटधर पाण्डेय के नाम से इटावा के ब्रह्म प्रेस से सज-धज के साथ "पूजाफूल" का प्रकाशन होता है। उसी वर्ष प्रयाग विश्वविद्यालय से किशोर कवि प्रवेशिका में उत्तीर्ण भी हो जाता है। प्रयाग के क्रिश्चियन काँलेज में प्रवेश के साथ ही बचपन जैसे दूर-बहुत दूर छूटने लगता है.... कवि अधीर हो कर पुकार उठता है- बालकाल! तू मुझसे ऐसी आज विदा क्यों लेता है। मेरे इस सुखमय जीवन को दुःख भय से भर देता है। इलाहाबाद में रहते हुए दो-तीन माह मजे में गुजरे, फिर वहां से एक दिन अचानक ही टेलिग्राम और फिर सदा के लिए काँलेज का रास्ता बंद। बालपुर में पिताश्री व्दारा स्थापित विद्यालय में अध्ययन.... बाकी समय में हिन्दी, अँग्रेजी, बँगला और उड़िया साहित्य का गम्भीर अध्ययन, अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। अब उनका ध्यान गाँव के काम करने वाले गरीब किसानों की ओर गया। उन्होंने श्रम की महिमा गाईः- छोड़ जन-संकुल नगर निवास किया क्यों विजन ग्राम में गेह नहीं प्रासादों की कुछ चाह कुटीरों से क्या इतना नेह फिर तो मानवीय करुणा का विस्तार होता ही गया और वह करुणा पशु-पंक्षियों और प्रकृति में भी प्रतिबिंबित होने लगी...... कुछ कुछ अँग्रेजी रोमांटिसिज्म की शुरुआत-जैसी। हिन्दी काव्य में एक नई ताज़गी पैदा हुई। स्थूल की जगह सूक्ष्म ने ली। व्दिवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता फीकी पड़ने लगी। प्रेम और सौंदर्य का एक नया ताना-बाना बुना जाने लगा, जिसमें वैयक्तिक रागानुभूति के साथ ही रहस्यात्मक प्रवृतियां बढ़ने लगीं और पद्यात्मकता की जगह प्रगीतात्मकता प्रमुख होती गई। इसी धारा पर मैथिली शरण गुप्त, ब्रदीनाथ भट्ट, और जयशंकर प्रसाद भी अग्रसर हो रहे थे। इस समय तो पांडेय जी प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण हो उठे। इतना ही नहीं, "सरस्वती" की फ्री लिस्ट में उनका नाम दर्ज हो गया। पहले तो उन्होंने विशुद्ध मानवीय प्रेम का गीत गायाः- हुआ प्रथम जब उसका दर्शन गया हाथ से निकल तभी मन फिर यह पार्थिव प्रेम अपार्थिव प्रेम में बदल गयाः- देखेंगे नक्षत्रों में जा उनका दिव्य प्रकाश किसकी नेत्र ज्योति है अद्भुत किसके मुख का हास "कुटिल केश-चुंबित मुखमंडल का हास" कवि के मलिन लोचनों में.सदा के लिए दिव्य प्रकाश बन गया। लेकिन यह अलौकिक सत्ता निवृत्तिमूलक नहीं प्रवृत्तिमूलक है। इसीलिए कवि उसे स्पष्ट भी कर देता है :- हुआ प्रकाश तमोमय जग में मिला मुझे तू तत्क्षण जग में तेरा बोध हुआ पग पग में खुला रहस्य महान साहित्य - संसार में युवा कवि मुकुटधर पांडेय का जीवन आनंद से बीत रहा था- कि एक दिन इधी रात किसी पक्षी के करुण विलाप से वें नींद से जाग उठे, करुणा से उनके हृदय के तार झनझना उठे। उन्होंने कविता लिखी -"कुररी के प्रति'।तब क्या उन्हें मालूम था कि छायावादी कविता आप से आप लिख जाती है। अकेली इस अमर रचना से छायावाद की भूमि निर्दिष्ट हो जाती है। अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप? ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप? किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग और तब तक स्वच्छन्दावादी काव्यधारा आवेग में आ चुकी थी। समस्या उठी नामकरण की, पुराने आचार्य उसे मान्यता देना नहीं चाहते थे। नई कविता उनकी समझ में आती नहीं थी। तब इस नूतन पध्दति पर चलने वाली कविता पर चर्चाएँ होने लगीं। पं. मुकुटधर पांडेय ने सर्वप्रथम अपनी तर्कपूर्ण शैली में इस कविता-धारा को "छायावाद" नाम दिया। स्पष्ट विवेचना के कारण यह नाम सभी को उपयुक्त जान पड़ा। फिर शीध्र ही "छायावाद"नाम प्रचार में आ गया। लोगों ने उसे जितना ही दबाने का प्रयत्न किया, उतना ही वह उभरने लगा। "श्रीशारदा" में प्रकाशित उनके चार निबन्धों की यह लेखमाला हिन्दी साहित्य की अनुपम धरोहर है। युग -प्रर्वतक के साथ ही सब कुछ धुँधलाने लगा और पीड़ा से कवि का मुखर उद्गार अवरुध्द सा हो गया। एक लम्बे मौन के बाद .....मध्याह्न में बादलों में छिपा मार्तण्ड अपनी मोहक मुस्कान से पश्चिम की ओर एक बार फिर झाँकने लगा। अखबारों में उ.प्र. "हिन्दी संस्थान" व्दारा प्रकाशित सम्मानित साहित्यकारों की सूची में वयोवृद्ध साहित्यकार मुकुटधर पांडेय का नाम देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। अपनी प्रसन्नता न रोक पाने के कारण मैं उनके पास तुरन्त पहुंचता हूँ। बधाई देने पर वे क्षण भर कुछ चकित-से होते हैं, फिर मुस्कुरा कर पूछते हैं- मैं संकोच मिश्रित हर्ष से कहता हूँ, "तीन अन्य साहित्यकार जगन्नाथ मिलिन्द, सोहनलाल व्दिवेदी, आदि प्रसिद्ध कवियों के सहित हिन्दी संस्थान लखनऊ आपको सम्मानित करने जा रहा है, तो वे कुछ संकोच में पड़ जाते हैं। पांडेय जी जितने सरल और निश्छल थे, उतने ही संकोची। इस सम्मान में उक्त प्रत्येक साहित्यकार को पन्द्रह हजार की राशि भेंट की गई थी। मुकुटधर पाण्डेय की अब तक प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं :- 1- पूजाफूल, 1916, ब्रह्म प्रेस,इटावा 2- हृदयदान(कहानी-संग्रह) , 1918, गल्पमाला,बनारस 3- परिश्रम(निबंध-संग्रह) , 1917, हरिदास एवं कम्पनी, कलकत्ता। 4- लच्छमा (अनुदित उपन्यास), 1917 , हरिदास एण्ड कम्पनी, कलकत्ता 5- शैलबाला, 1916 6- मामा, 1924, रिखवदास वाहिनी एण्ड कम्पनी, कलकत्ता। 7- छायावाद एवं अन्य निबंध, 1979, म.प्र. हि. सा. सम्मेलन, भोपाल 8- स्मृति-पुंज , 1983, तिरुपति प्रकाशन, हापुड़ 9- विश्वबोध (काव्य-संग्रह) 1984, श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़ 10- छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध, 1984, श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़ 11-मेघदूत1984 छत्तीसगढ़ लेखक संघ, रायगढ़ मुकुटधर पाण्डेय उन यशस्वी साहित्यकारों में हैं , जो दो चार रचनाओं से ही अमर हो जाते हैं। एक बार आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने उन्हें लिखा था "आप वर्ष में कोई तीन रचनाएँ भेज दिया करें। उनकी सीख , कम लिखिए पर अच्छा लिखने की कोशिश कीजिए। दो चार कविताएं लिखकर ही आदमी अमर हो सकता है और यों बहुत लिखने पर सौ-पचास वर्षों के बाद लोग नाम तक याद नहीं रखते", ये वाक्य उनके लिए गुरुमंत्र सिध्द हुए। हिंदी में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, सरदार पूर्णासिंह और पण्डित मुकुटधर पांडेय ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिन्हें लोग उनकी दो-चार रचनाओं पर ही वर्षों से ससम्मान स्मरण करते आ रहे हैं और करते रहेंगे। काल की बेला ने मनीषी पं. मुकुटधर पांडेय को 6 नवंबर 1989 को हमसे छीन लिया। कुररी के प्रति ............................ बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात निद्रा में जा पड़े कवि के ग्राम -मनुज स्वच्छंद अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते है सानन्द इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात पिछड़ा था तू कहाँ , हुई क्यों तुझको इतनी रात? देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल? क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीँ था भूल? क्या उसकी सौंदर्य-सुरा से उठा हृदय तब ऊब? या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब? या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल? किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल? अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप? किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग? शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप? बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप? यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद? या तुझको निज-जन्म भूमि की सता रही है याद? विमल ब्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद? नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद? कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास वहाँ कौन नक्षत्र - वृन्द करता आलोक प्रदान? गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान? कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास? **** *** कुररी के प्रति ............................ विहग विदेशी मिला आज तू बहुत दिनों के बाद तुझे देखकर फिर अतीत की आई मुझको याद किंशुक-कानन-आवेष्टित वह महानदी-तट देश सरस इक्षु के दण्ड, धान की नव मंजरी विशेष चट्टानों पर जल-धारा की कलकल ध्वनि अविराम, विजन बालुका-राशि , जहाँ तू करता था विश्राम चक्रवाक दंपत्ति की पल पल कैसी विकल पुकार कारण्डव-रव कहीं कहीं कलहंस वंश उद्गार कठिनाई से जिसे भूल पाया था हृदय अधीर आज उसी की स्मृति उभरी क्यों अन्तस्तल को चीर? किया न तूने बतलाने का अब तक कभी प्रयास किस सीमा के पार रुचिर है तेरा चिर-आवास सुना, स्वर्णमय भूमि वहाँ की मणिमय है आकाश वहाँ न तम का नाम कहीं है, रहता सदा प्रकाश भटक रहा तू दूर देश में कैसे यों बेहाल? क्या अदृष्ट की विडंबना को सकता कोई टाल अथवा तुझको दिया किसी ने निर्वासन का दण्ड? बता अवधि उसकी क्या , या वह निरवधि और अखण्ड? ऐसा क्या अक्षम्य किया तूने अपराध अमाप? कथ्य रहित यह रुदन , तथ्य का अथवा है अप्रलाप? या अभिचार हुआ कुछ, तुझ पर या कि किसी का शाप? प्रकट हुआ यह या तेरे प्राक्तन का पाप-कलाप? कोई सुने न सुने , सुनता कुछ अपने ही आप, अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप? शरद सरोरुह खिले सरों में, फूले वन में कास सुनकर तेरा रुदन हास मिस करते वे परिहास। क्रौंच, कपोत, कीर करते हैं उपवन में अलाप सुनने को अवकाश किसे है तेरा करुण - विलाप? जिसे दूर करने का संभव कोई नहीं उपाय, निःसहाय , निरुपाय उसे तो सहना ही है हाय! दुःख -भूल , इस दुःख की स्मृति को कर दे तू निर्मूल, पर जो नहीं भूलने का है , सकता कैसे भूल? मंडराता तू नभो देश में, अपने पंख पसार, मन में तेरे मंडराते हैं, रह रह कौन विचार? जिसके पीछे दौड़ रहा तू, अनुदिन आत्म-विभोर जाने वह कैसी छलना है, उसका ओर न छोर ठिठक पड़ा तू देख ठगा सा सांध्य क्षितिज का राग जगा चुका वह कभी किसी के भग्न हृदय में आग परदेशी पक्षी , चिंता की धारा को दे मोड़ अंतर की पीड़ा को दे अब अन्तर-तर से जोड़। प्रियतम को पहचान उसे कर अपर्ण तन-मन-प्राण उसके चरणों में हो तेरे क्रन्दन का अवसान। सुना, उसे तू अपने. पीड़ित -व्यक्ति हृदय का हाल भटक रहा तू दूर देश में, क्यों ऐसा बेहाल? *** *** (छायावाद और पं. मुकुटधर पांडेय लेखक डाँ०बलदेव) (कुररी के प्रति :- " विश्वबोध " काव्य संग्रह से संपादक:- डाँ०बलदेव, श्रीशारदा साहित्य सदन,स्टेडियम के पीछे, श्रीराम काँलोनी, रायगढ़, छ.ग, मो.नं. 9039011458) -- फास्ट Notepad से भेजा गया

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

मुकुटधर पांडेय :- लेख

छायावाद के प्रर्वतक पं. मुकुटधर पांडेयः - ----------------------------------------------- (विश्वबोध कविता संग्रह से, संपादक -डाँ०बलदेव) प्रकाशकीय:- युग प्रवर्तक कवि पं. मुकुटधर पांडेय की श्रेष्ठ और विलुप्त प्राय रचनाओं को प्रथम बार पुस्तकाकार प्रकाशित करते हुए हमें आपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। पांडेय जी के नाम पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से जिज्ञासा भरे पत्र आते रहे हैं। जिनमें हिन्दी के समर्थ आलोचकों से लेकर सामान्य पाठकों तक ने उनकी रचनाओं को पढ़ने की बार बार इच्छा प्रकट की है। हिन्दी के अनेक शोधकर्ताओं को भी उनकी प्रमाणित सामग्री के अभाव में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। इस अभाव को पूर्ण करने की दृष्टि से सीमित साधनों के बीच यह छोटा सा प्रयास है। ये कविताएं व्दिवेदी युग और छायावाद युग की कविताओं के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। इनसे खड़ी बोली काव्य धारा के इतिहास को समझने में मदद मिलेगी। आशा ही नहीं हमें पूर्ण विश्वास है हिन्दी संसार इस कविता-संग्रह का स्वागत करेगा। हम पांडेय जी के ऋणी हैं जिन्होंने कृपा पूर्वक हमें यह सुन्दर अवसर प्रदान किया। बसन्त राघव 1983 श्रीराम दो शब्द ये कविताएं अधिकांश व्दिवेदी युग की उपज हैं। कविता के क्षेत्र में खड़ी बोली अपने पैर जमा चुकी थी। ब्रजभाषा के पूर्ण कवि, हरिऔध आदि जो दो चार समर्थ कवि थे। नवयुवकों में मैथिलीशरण गुप्त, लोचन प्रसाद पाण्डेय (मेरे अग्रज), आदि प्रासादिक शैली में राष्ट्रीय और आख्यानक कविताएं लिख रहे थे। हमारे घर के लघु पुस्तक-संग्रह में बंगला और ओड़िया के सामयिक काव्य साहित्य -मधुसूदन दत्त, हेमचन्द्र और राधानाथ की ग्रंथावलियों का प्रवेश हो चुका था। तब पूर्व में रव्युदय नहीं हुआ था, पर शीध्र ही रवीन्द्र नाथ और उनके समानांतर व्दिजेन्द्रनाथ राय भी पहुँच गए थे। इन सबका एक मिला जुला प्रभाव मुझ पर पड़ा था। तत्कालीन मासिक पत्र-पत्रिकाओं में मेरी छोटी - छोटी कविताएँ छपा करती थीं, पर 'पूजा फूल"के बाद उनका कोई संग्रह नहीं हो पाया था और वे इधर दुष्प्राप्य भी हो रही थी। डाँ० बलदेव के प्रयत्न से उनका जो संग्रह प्रस्तुत किया जा रहा है, वही इस पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके प्रकाशन का सम्पूर्ण श्रेय उन्हीं को है, जिसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। मुकुटधर पाण्डेय रायगढ़, मकर संक्रांति, सं २०४० वि **. ** पं. मुकुटधर पांडेय का जन्म सन् 1895 ई० को बिलासपुर जिले के बालपुर ग्राम में हुआ था। किंशुक-कानन आवेष्टित चित्रोत्पला के तट - प्रदेश में बसा गांव रायगढ़-सारंगढ़ मार्ग पर चन्द्रपुर (जमींदारी) की पूर्व दिशा में स्थित हैं और महानदी के पुल या किसी टीले से घनी अमराइयों से झांकता दिखाई देता है। सूर्योदय हो या सूर्यास्त दोनों ही समय यहाँ की छटा निराली होती है। अपने अच्छे दिनों में चाहे ग्रीष्म हो, चाहे भरी बरसात, सर्द हवाओं के दिन , अंधेरी रात हो या उजेली, उसकी श्री सुषमा में कहीं कोई अन्तर नहीं पड़ता, खेत धान की नवमंजरियों से भरे हों या तीसी के नीले उजले फूलों से। मेंड़ों पर निहारिकाओं से विमल प्रकाश फेंकते दूर्वादल हों या सरस इक्षु के दण्ड वाले खेत या वातावरण में भूख को बढ़ाती हुई औंटते रसों से छनकर आती हुई गुड़ की गंध, ये रंगरूप , ये गंध ध्वनियाँ आज भी पाण्डेय जी के किशोर मन को ललचाते हैं। पांडेय जी की कविताओं में बाग - बागीचों और पलाशवन से घिरा छोटा सा गाँव बालपुर अपने अतीत की स्मृतियों में खो जाता है। महानदी के सुरम्य तट पर मंजरित आम्रतरुओं में छिपकर गाती हुई कोयल, अंगारे से दहकते ठंडे पलाशवन, नदी के सुनील मणिमय आकाश में उड़ते कल -हंसों की पांत.....लहरों पर दूर तक जाती उनकी परछाइयां..... जल पंखियाँ का शोर, चक्रवाक दम्पति की प्रतिफल विकल पुकार, कारण्डवों का कल-कूंजन-चट्टानों पर जलधारा की अविराम कल-कल ध्वनि और दूर दूर तक विजन बालुकाओं का विस्तार , नौका बिहार करते.... फिरते अंधेरे के झुरमुट में जगमगाते जुगनुओं के बीच से गुजरते कवि का मन जब घर लौटता तो आंगन में उतर आई चांदनी में पुनः खो जाता.... न भूख न प्यास ... तब कवि की सुकुमार कल्पना एक अज्ञात रहस्य की ओर इंगित करती.... कच्चे धागे से वह कौन-सा पट बुनती यह भावानुभूति की चीज है। समूचा परिवार साहित्य साधना में आकंठ डूबा हुआ। पं. लोचन प्रसाद पांडेय की रचनाओं का सुलेख करते, आगन्तुक कवियों और सन्यासियों का गीत-संगीत सुनते, पार्वती लायब्रेरी में अध्ययन करते या रहंस बेड़ा में अभिनय करते, कवि मुकुटधर पांडेय का बचपन लुकाछिपी में कविता रचते बीत जाता है। पितृशोक से रचना कर्म गतिशील हो उठता है। चौदह वर्ष की उम्र में पहली कविता "स्वदेश बान्धव" में प्रकाशित होती है। खेल ही खेल में ढेर-सी कविताएँ रजत और स्वर्ण पदकों की उद्घोषणा के साथ हितकारिणी, इन्दु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत तथा सरस्वती जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर छपने लगती हैं। देखते ही देखते सन् 1916 में सन् 1909 से 15 तक की कविताएं मुरली-मुकुटधर पाण्डेय के नाम से इटावा के ब्रह्म-प्रेस से सज-धज के साथ "पूजा फूल'" शीर्षक से प्रकाशित होती है। उसी वर्ष किशोर कवि प्रवेशिका में प्रयाग विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण भी हो जाता है। बालपुर और रायगढ़ कुछ दिनों के लिए छूट-सा जाता है-- कवि अधीर हो पुकार उठता है-- "बालकाल तू मुझसे ऐसी आज बिदा क्यों लेता है, मेरे इस सुखमय जीवन को दुःखमय से भर देता है।" इलाहाबाद में रहते हुए दो तीन माह मजे में गुजरे, फिर वहाँ से एक दिन अचानक ही टेलिग्राम.... और तीसरे दिन अस्वस्थता की हालत में रायगढ़। यहाँ महामारी फैली हुई है। पूज्याग्रज पं० लोचन प्रसाद पांडेय ने जीप की व्यवस्था कर दी है। शाम होते-होते घर लौट आते हैं। फिर सदा के लिए काँलेज का रास्ता बन्द। वहीं बालपुर में पिता श्री व्दारा स्थापित विद्यालय में अध्ययन/ बाकी समय हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला और उड़ीया साहित्य के गंभीर अध्ययन, अनुवाद और स्वतंत्र लेखन में।अब उनका ध्यान गाँव के काम करने वाले गरीब किसानों की ओर गया। उन्होंने श्रम की महिमा गायी। "छोड़ जन-संकुल नगर निवास किया. क्यों विजन ग्राम में गेह , नहीं प्रसादों की कुछ चाह - कुटीरों से क्यों इतना नेह । फिर तो मानवीय करुणा का विस्तार होता ही गया और वह करुणा पशु-पंक्षियों और प्रकृति में भी प्रतिबिंबित होने लगी..... कुछ कुछ रोमाटिज्म की शुरूआत जैसी। हिन्दी काव्य में एक नई ताजगी पैदा हुई। स्थूल की जगह सूक्ष्म ने लिया, व्दिवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता फीकी पड़ने लगी। प्रेम और सौंदर्य का नया ताना-बाना बुना जाने लगा, जिसमें वैयक्तिक रागानुभूति के साथ ही रहस्यात्मक प्रवृत्तियां बढ़ने लगी और पद्यात्मकता की जगह प्रगीतात्मकता प्रमुख होती गयी। इस धारा पर मैथिली शरण गुप्त, बद्रीनाथ भट्ट और जय शंकर प्रसाद भी अग्रसित हो रहे थे। इस समय पांडेय जी प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण हो उठे। हितकारिणी के सम्पादक श्री नर्मदा मिश्र ने 5/10/1913 को एक पत्र लिखा था, जिसका एक अंश यहाँ उद्धृत है। - "आपकी एक कविता इस अंक में छप रही है। कृप्या दूसरी कोई अच्छी-सी कविता भेजियेगा। कृतज्ञ होउंगा। मेरी दृढ़ इच्छा रहती है कि प्रत्येक अंक में आपकी एक न एक लेख अवश्य रहे, पर यह आपकी कृपा और इच्छा के अधीन है। " इतना ही नहीं "सरस्वती" की फ्रि लिस्ट में उनका नाम दर्ज हो गया। "किसान"जैसी कविता के लिए सम्पादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा था-" ऐसी कोई चीज बन जाय तो रजिस्टर्ड डाक से सीधे "विशाल भारत" को भेजने की कृपा करेंगे।" "पूजा फूल" के प्रकाशन के बाद पहले-पहल तो उन्होंने विशुद्ध मानवीय प्रेम का गीत गाया:- हुआ प्रथम जब उसका दर्शन गया हाथ से निकल तभी मन। फिर यह पार्थिव प्रेम अपार्थिव प्रेम में बदल गया-:- "देखेंगे नक्षत्रों में जा उनका दिव्य प्रकाश, किसकी नेत्र ज्योति है अद्भुत किसके मुख का हास।" "कुटिल-केश चुंबित मुख मंडल का हास" कवि के मलिन लोचनों में सदा के लिए दिव्य प्रकाश बन गया। लेकिन यह अलौकिक सत्ता निवृत्ति मूलक नहीं, प्रवृत्ति मूलक है। इसीलिए कवि उसे स्पष्ट भी कर देता है:- हुआ प्रकाश तमोमय जग में मिला मुझे तू तत्क्षण जग में तेरा बोध हुआ पग पग में खुला रहस्य महान। कविता लेखन के साथ ही गद्य लेखन भी समान गति से चल रहा था। इस बीच एक घटना घटी, उनके किसी मित्र ने ऐसी भंग खिलाई कि उसकी खुमारी आज भी दिलों-दिमाग को बैचेन कर बैठती है। जन्म कुंडली में किसी उत्कली ज्योतिषी ने चित्त विभ्रम और हिन्दी -भाषी ज्योतिषी ने 'चित्तक्षत' लिखा था। यह घटना 1918 की है जो सन् 1923 में चरम सीमा में पहुंच गयी। मानसिक अशान्ति से साहित्य - साधना एकदम से छिन्न-भिन्न हो गई। शोध-प्रबन्धों ने गलत - सलत बातें लिखीं। कतिपय सज्जनों ने उन आलोचकों को मुह-तोड़ जवाब भी दिया, लेकिन कवि ने उन्हें क्षमा कर दिया। "बात यह थी कि सन् 1923 के लगभग मुझे एक मानसिक रोग हुआ था। मेरी साहित्यिक साधना छिन्न भिन्न हो गयी, तब किसी ने मुझे स्वर्गीय मान लिया हो तो वह एक प्रकार से ठीक ही था। वह मुझ पर दैवी प्रकोप था, कोई देव - गुरु - शाप या कोई अभिचार था। यह मेरे जीवन का अभी तक एक रहस्य ही बना हुआ है।" पांडेय जी ने मानसिक अशान्ति के इन्हीं क्षणों में "कविता "और "छायावाद" जैसे युगांतरकारी लेख और "कुररी के प्रति" जैसे अमर रचनाएँ लिखीं। पंडित मुकुटधर पांडेय संक्रमण काल के सबसे अधिक सामथ्यर्वान कवि हैं। वे व्दिवेदी युग और छायावाद युग के बीच की ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी हैं जिनकी काव्य-यात्रा को समझे बिना खड़ीबोली के दूसरे-तीसरे दशक तक के विकास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता, उन्होंने व्दिवेदी-युग के शुष्क उद्यान में नूतन सुर भरा तथा बसन्त की अगवानी कर युग प्रवर्तन का ऐतिहासिक कार्य किया। वे जीवन की समग्रता के कवि हैं।उनके काव्य में प्रसन्न और उदास दोनों भावों के छाया चित्र हैं। उन्हें प्रकृति के सौंदर्य में अज्ञात सत्ता का आभास मिलता है, उसके प्रति कौतूहल उनमें हर कहीं विद्यमान है। यदि एक ओर उनके काव्य में अन्तर-सौंदर्य की तीव्र एवं सूक्ष्मतम अनुभूति , समर्पण और एकान्त साधना की प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति है तो दूसरी ओर व्दिवेदी युगीन प्रासादिकता और लोकहित कि आदर्श। सन् 1915 के आस पास स्वच्छन्दतावादी काव्य-धारा चौड़ा पाट बनाने में लगी थी, व्दिवेदी युगीन तट -कछार उसमें ढहने लगे थे। इस धारा के सबसे सशक्त हस्ताक्षर थे जयशंकर प्रसाद और मुकुटधर पांडेय । इसके समानांतर सन् 1920 तक व्दिवेदी युग भी संघर्षरत रहा कहा जा सकता है, उसका प्रभाव सन् 1935 तक रहा। मुकुटधर पांडेय में स्वच्छन्दतावादी और व्दिवेदी -युगीन काव्य की गंगा-जमुनी धारा यदि एक साथ प्रवाहित दिखे तो आश्चर्य नहीं। लेकिन तय है उस युग के काव्य का प्रवर्तन उन्हीं से होता है। उन्हीं की प्रगीत रचनाओं से होकर छायावादी कविताएं यात्रा करती हैं, और उन्होंने ही सर्वप्रथम उस युग की कविताओं को व्दिवेदी युग से अलग रेखांकित किया। "कविता" (हितकारिणी1919) तथा "छायावाद" (श्रीशारदा 1920) जैसी सशक्त लेखमाला व्दारा ही उस युग की कविता की पहचान होती है। इस कविता धारा को सांकेतिक शैली के अर्थ विशेष में पांडेय जी ने "छायावाद" नाम दिया था। वैसे छायावाद का प्रथम प्रयोग श्रीशारदा की लेखमाला के प्रकाशन के पूर्व मार्च 1920 की हितकारिणी में प्रकाशित उनकी कविता "चरण प्रसाद" में हुआ है:- भाषा क्या वह छायावाद है न कहीं उसका अनुवाद मेरे विचार से यह छायावाद की एक सुन्दर व्याख्या है। और इसका प्रयोग हिन्दी में आप्त वाणी जैसा ही हुआ है। स्वतः स्फूर्त और परम पूर्ण। कवि मुकुटधर पांडेय अपनी सहजात प्रवृत्तियों के साथ ही युग बोध से भी जुड़े, और यही वजह है कि वे आज भी प्रासंगिक हैं। उनके रचना संसार में व्दिवेदी युग और छायावाद के काव्य संस्कार मौजूद हैं। इसी अर्थ में मैंने उन्हें संक्रमण काल का कवि कहा है। वे सन् 1909 से 1923 तक अत्यधिक सक्रिय रहे। हिन्दी प्रदेश के वे शायद अकेले निर्विवाद और.लोकप्रिय कवि थे, जो उस समय की प्रायः सभी साहित्यिक पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ में ससम्मान स्थान पाते रहे। पं. मुकुटधर पांडेय की कविताएं सन् 1909 से 1983 तक फैली हुई हैं। उन्होंने बारह वर्ष की उम्र में लिखना शुरू किया था। इकहत्तर वर्षों की प्रदीर्घ साधना को कुछ पृष्ठों में मुद्रित नहीं किया जा सकता। पूजा-फूल में कुल 74कविताएं हैं। तीन पं. मुरलीधर पांडेय की तथा इकहत्तर मुकुटधर पांडेय जी की। यह महज संयोग है कि इतनी ही रचनाएँ इस संकलन में अनजाने आ गयी हैं। पुस्तक का शीर्षक उनकी प्रसिद्ध कविता "विश्वबोध"के नाम पर रखा गया है, कोई आग्रह नहीं आखिर एक शीर्षक ही तो देना था। पं. मुकुटधर पांडेय जी की करीब तीन सौ कविताएं मेरे पास संकलित हैं। पिछले एक दशक से मैं साहित्य मनीषी पं. मुकुटधर पांडेय"शीर्षक एक स्वतंत्र पुस्तक लिख रहा था, इसी दौरान ये कविताएँ पुरानी पत्र-पत्रिकाओं, कुछ पुस्तकों और कुछ पांडेय जी से प्राप्त हो गयी, उन्हीं में से यह चयन है। कविता के नीचे विवरण दे दिया गया है। अतः अलग से उल्लेख करना औपजारिकता ही है। क्रमांक चार से अठारह "पूजा फूल" से ली गयी है। जीवन साफल्य "काल की कुटिलता"और शोकांजलिक कविता-कुसुम माला में भी संकलित है। व्दिवेदी युग में वे अनुवादक के रुप में लोकप्रिय थे। अंग्रेजी और बंगला की अनूदित रचनाओं ने खड़ी बोली कविता धारा को प्रभावित किया हो तो आश्चर्य नहीं, यहां बंगला की चार अनूदित रचनाएँ भी शामिल हैं। अन्तिम ग्यारह कविताएं सन् 60 के बाद की है। कविताएं एक क्रम में है ताकि कवि.के विकास क्रम को देखा-परखा जा सके। और अन्त में , इस संकलन के लिए पांडेय जी ने जिस औदार्य से अनुमति दी, इस आभार को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। हिन्दी के नये पुराने पाठकों तक पांडेय जी की अन्य रचनाएं भी मैं पहुँचा सकूँ यह मेरी एकान्त कामना है। डाँ०बलदेव रायगढ़:-दिनांक19/11/83 कविता ******* मुकुटधर पांडेय कविता सुललित पारिजात का हास है, कविता नश्वर जीवन का उल्लास है । कविता रमणी के उर का प्रतिरूप है, कविता शैशव का सुविचार अनूप है। कविता भावोन्मतों का सुप्रलाप है, कविता कान्त -जनों का मृदु आलाप है। कविता गत गौरव का स्मरण- विधान है, कविता चिर-विरही का सकरुण गान है। कविता अन्तर उर का बचन-प्रवाह है, कविता कारा बध्द हृदय को आह है। कविता मग्न मनोरथ का उद्गार है, कविता सुन्दर एक अन्य संसार है। कविता वर वीरों का स्वर करवाल है, कविता आत्मोध्दरण हेतु दृढ़ ढाल है। कविता कोई लोकोत्तर आल्हाद है, कविता सरस्वती का परम प्रसाद है। कविता मधुमय -सुधा सलित की है घटा, कविता कवि के एक स्वप्न की है छटा। चन्द्रप्रभा,1917 ( बिश्वबोध कविता संग्रह से पृ.9 ) चरण-प्रसाद ********** कण्टक- पथ में से पहुँचाया चारु प्रदेश धन्यवाद मैं दूँ कैसे तुझको प्राणेश! यह मेरा आत्मिक अवसाद? हुआ मुझे तब चरण-प्रसाद । छोड़ा था तूने मुझपर यह दुर्ध्दर-शूल, किन्तु हो गया छूकर मुझको मृदु-फूल यह प्रभाव किसका अविवाद? आती ठीक नहीं है याद। जी होता है दे डालूँ तुझको सर्वस्व, न्यौछावर कर दूँ तुझ पर सम्पूर्ण निजस्व। उत्सुकता या यह आह्वाद? अथवा प्रियता पूर्ण प्रमाद ? लो निज अन्तर से मम आन्तर -भाषा जान, लिख सकती लिपि भी क्या उसके भेद महान। भाषा क्या वह छायावाद, है न कहीं उसका अनुवाद। * * हितकारिणी, मार्च1920 (विश्वबोध कविता संग्रह पृ. 40) -- फास्ट Notepad से भेजा गया

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

लेखःराजा चक्रधर सिंह : साहित्यिक अवदान

राजा चक्रधर सिंह साहित्यिक अवदान:- 
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लेखक:- डाँ०बलदेव 
 रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी और उर्दू भाषा साहित्य के विव्दान ही नहीं बल्कि रचनाकार भी थे, चक्रप्रिया के नाम से उन्होंने बहुत सी सांगीतिक रचनाएं दी। संस्कृत, उर्दू एवं हिंदी में उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं:- 1 रत्नहार 2 काव्य कानन 3 रम्यरास 4 बैरागढ़िया राजकुमार 5 निगारे फरहत 6 अलकापुरी -तीन भागों में 7 जोशे फरहत 8 माया चक्र 9 प्रेम के तीर 1:- रत्नहारः- यथा नाम तथा रुपम् को चरितार्थ करने वाला संस्कृत काव्य संग्रह रत्नहार सचमुच काव्य रसिकों का कंठहार है। इसका प्रकाशन साहित्य समिति, रायगढ़ ने किया , लेकिन मुद्रण कलकत्ता से संवत् 1987 में हुआ था। इसमें संस्कृत के ख्यात -अख्यात कवियों के 152 चुनिंदा श्लोक राजा चक्रधर सिंह ने संकलित किये हैं। इस संकलन के पीछे संस्कृत भाषा के काव्य रसिक होने का प्रमाण मिलता है। इस बात को उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है- " जब मैं राजकुमार काँलेज रायपुर में पढ़ रहा था, उस समय से ही मुझे संस्कृत साहित्य से विशेष अनुराग हो चला था। संस्कृत काव्य काल की कितनी ही कोमल घड़ियां व्यतीत हुई थी।उन घड़ियों की मधुर स्मृति आज भी मेरे मानस पटल पर वर्तमान की भांति स्पष्ट रेखांओं में अंकित है। "रत्नहार" उसी मधुर स्मृति का स्मारक स्वरूप है।" संकलनकर्ता ने संस्कृत के श्लोकों का गद्यानुवाद न कर भावानुवाद किया है। अनुवाद की यांत्रिकता से राजा साहब वाकिफ थे। उन्हीं के शब्दों में " गद्यानुवाद में न तो काव्य का रहस्यपूर्ण स्वर्गीय आंनद ही रह जाता है, और न ही उसकी अनिर्वचनीय रस-माधुरी। सूक्ष्म से सूक्ष्म कवितापूर्ण कल्पनाएं गद्य रूप में आते ही कथन -मात्र सी रह जाती हैं।" इसीलिए चक्रधर सिंह जी ने, जो स्वयं एक अच्छे कवि-शायर थे, श्लोकों के आंतरिक कवित्वपूर्ण भावों को सुरक्षित करने के लिए अनुवाद में पूरी स्वच्छंदता से काम लिया है। जहाँ स्पष्टीकरण में अवरोध आया है, वहाँ उन्होंने स्वतंत्र टिप्पणीयों से उसे स्पष्ट करने का भरसक प्रयास किया है। "रत्नहार" पढ़ने से लगता है, राजा साहब सचमुच रस-आखेटक थे। उन्होंने नायिकाओं के रूप वर्णन के साथ ही उनके आंतरिक भावों को व्यंजित करनेवाले श्लोकों का खास कर चुनाव किया है। नेत्रों के बहाने उन्होंने आभ्यंतर और बाह्मंतर दोनों को, याने रुप और भाव दोनों को इस श्लोक के बहाने रेखांकित करने का यत्न किया है- श्याम सितं च सदृशो: न दृशोः स्वरुपं किन्तु स्फुटं गरलमेतदथामृतं च । नीचेत्कथं निपतनादनयोस्तदैव मोहं मुदं च नितरां दधते युवानः ।। राजा साहब ने इस सौंदर्य को अक्षुण्ण रखते हुए इसका सरल अनुवाद इन शब्दों में किया है - नेत्रों की श्यामलता और धवलता को शोभा मात्र न समझना चाहिए। इस श्यामलता और धवलता के समागम का रहस्य और ही है। श्यामलता विष है और धवलता सुधा। यदि ऐसा न होता तो मृगनयनी के कटीले कटाक्ष की चोट लगते ही रसिक युवक मादक मूच्छर्ना और स्वर्गीय आन्नद का अनुभव एक साथ ही कैसे करते? "रत्नहार" में रीति सम्प्रदाय का अनुगमन होता दिखाई देता है। यहाँ अंग-प्रत्यंग सभी प्रकार की संचारी-व्यभिचारी भाव प्रधान रचनाएँ शामिल की गई हैं। अवाप्तः प्रागल्भ्य परिणत रुचः शैल तनये कलग्डों नैवायं विलसित शशांकस्य वपुषि। अमुष्येयं मन्ये विगलदमृतस्यन्द शिशिरे रति श्रान्ता शेते रजनिरमणी गाढमुरसि ।। - हे पार्वती , पूर्णिमा के चांद में बड़ा धब्बा सा दिखलाई पड़ता है। वह कलंक नहीं है तो फिर क्या है? निशा नायिका रतिक्रीड़ा से शिथिल हो कर अपने प्रियतम के अमृत प्रवाह से शीतल अंक में गाढ़ी नींद सो रही है। संयोग के बाद वियोग श्रृंगार का एक अनूठा उदाहरण दृष्टव्य है- सखि पति - विरह -हुताश: किमिति प्रशमं न याति नयनोदैः । श्रृणु कारणं नितम्बिनि मुञ्चसि नयनोदकं तु ससँनेहम्।। हे सखी मेरे नेत्रों से इतना जल टपक रहा है तो भी यह प्रबल विरहानल क्यों नहीं बुझता? चतुर सखी का उत्तर है- हे सखी मैं मानती हूँ कि तेरी आँखों से अविरल वारिधारा बह रही है। परंतु एक बात तू भूली जाा रही है- यह जल साधारण जल नहीं है। इसमेँ तो स्नेह के कारण आग बुझने के बदले और भी भभक उठती है। "रत्नहार" का गेटअप रत्नहार जैसा ही है- रंगीन बेलबूटों के बीच दो परियां इनके बीच नायिका आभूषणों से लदी हुई। इसमें अन्य आकर्षक चित्र हैं- रति श्रान्ता शेते रजनि रमणी गाढ़ मुरसी कृतं मुखं प्राच्या, व्दीपाद दीपं भ्रमति दधाति चन्द्र मुद्रा कपाले । इसी प्रकार श्लोकों के आधार पर चटक रंगों में चित्रकारी की गई है। इन चित्रों के चित्रकार है एम.के.वर्मा, जो दरबार के ही कलाकार थे। काव्य-कानन:- काव्य कानन में एक हजार एक रचनाएँ है, जिसमें सैकड़ों कवियों की बानगी दिखाई पड़ती है। विशेषतः कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, पद्माकर, सेनापति, मतिराम, ठाकुर, बोधा, आलम, नंददास, रसलीन, बिहारी, भूषण, धनानंद, रसखान, रत्नाकर, मीर, गिरधर जैसे ख्यात कवियों से ले कर वे कवि भी शामिल हैं जिन्हें उतनी लोकप्रियता उस दौर में नहीं मिली थी। जाहिर है इतने बड़े संकलन के लिए कई सहायकों की जरुरत पड़ी होगी। "काव्य शास्त्र विनोदन कालोगच्छति धीमताम्" की उक्ति रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह के संबंध में सटीक बैठती है। ब्रजभाषा की बढ़ती हुई उपेक्षा से चिंतित रायगढ़ नरेश ने उसकी उत्कृष्ट रचनाधर्मिता के महत्व को ही दिखाने के लिए खड़ी बोली और पड़ी बोली (ब्रजभाषा) के पाठकों याने दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों के लाभ के लिए "काव्य कानन' नामक ग्रंथ का प्रकाशित किया। रम्यरास:- रम्यरास का आधार श्रीमद्भागवत पुराण का दशम स्कंध है। रम्यरास राजा चक्रधर सिंह की अक्षय कीर्ति का आधार है। इसका प्राक्कथन राजा साहब की गहन आस्तिकता, भक्ति और अध्यवसाय का परिचायक है। इस उच्चकोटि. के काव्य ग्रंथ में शिखरणी छंद का सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है। यह 155 वंशस्थ वृत्त का खंडकाव्य है। आरंभ में मंगलाचरण है और समापन भगवान कृष्ण के पुनर्साक्षात्कार की कामना से होता है। रम्यरास को पढ़ते हुए कभी आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी की "सुरम्य रुप , रस राशि रंजित। विचित्र वर्णा भरणे कहाँ गई" जैसी कविता का स्मरण हो आता है तो कभी हरिऔध की "रुपोद्यान प्रफुल्ल प्राय कलिका राकेन्दु बिंबानना" जैसी संस्कृत पदावली की याद हो आती है। जिस समय "रम्यरास" लिखा जा रहा था उस समय छायावाद उत्कर्ष पर था, और छायावाद के प्रवर्तक कवि मुकुटधर पांडेय उनके ही सानिध्य में थे। डाँ० बलदेव प्रसाद मिश्र दीवान तो और भी करीब थे। तब "रीति" का इतना आग्रह क्यों हुआ? शायद इसके लिए 'दरबार' ही जिम्मेदार है। प्रकाशन के पूर्व इसे संशोधन के लिए पंडित महावीर प्रसाद व्दिवेदी के पास भेजा गया था, परन्तु उन्होंने कतिपय दोष के कारण मिश्रजी का अनुरोध स्वीकार नहीं किया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की चर्चा आगे की जाएगी। इसका प्रकाशन सितंबर 1934 में साहित्य समिति रायगढ़ ने किया था, तब इसकी कीमत मात्र सवा और अढ़ाई रुपए थी। निगारे फरहत:- राजा चक्रधर सिंह के दरबार में शेरो-शायरी का बेहतरीन चलन था। अरबी और फारसी के नामवर विव्दवानों की नियमित आवाजाही थी। राजा साहब ने उर्दू में गजलों की चार किताबें लिखी:- 1. निगारे फरहत 1930, 2. जोशे फरहत 1932, 3. इनायत-ए-फरहत, 4. नगमा-ए-फरहत। इसमें निगारे फरहत एवं जोशे फरहत ही प्रकाशित हो पाई। निगारे फरहत और दूसरी किताब जोशे फरहत की एक समय बड़ी चर्चा थी, लेकिन आजकल ये पुस्तकें दुर्लभ हो गई हैं। निगारे फरहत की भूमिका लेखन भगवती चरण वर्मा ने राजा साहब का समग्र मूल्यांकन करते हुए कहा था राजा चक्रधर सिंह फरहत दाग स्कूल के शायर हैं। उनकी विशेषता है सरलता, स्पष्टता और साथ ही सुन्दर श्रृंगार। यह पुस्तक कविता के भण्डार का एक रत्न है। सन् 1977 में डाँ. हरिसिंह जी ने मुझे प्रथम दो पुस्तकें पढ़ने को दी थीं । अभी हाल में ठाकुर वेदमणी सिंह के प्रयत्न से अजीत सिंह ने निगारे फरहत उपलब्ध कराई हैं, जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है और जिसमें से अंतिम सौ पृष्ठ करीब -करीब गायब हैं। जोशे फरहत :- जोशे फरहत का प्रकाशन गुरू पूर्णिमा संवत 1989 को हुआ था। इसमें कुल 178 गजलें हैं। गजलों की प्रथम पंक्तियाँ सूची में दी गई हैं, लेकिन 28 गजलों के चुनिंदा शेर जिन पर रंगीन चित्र दिये गए हैं सूची के बाद के क्रम में दिये गए हैं। चित्रों में कहीं धीर ललित नायक की अधीरता, तो कहीं अंकुरित यौवना, मुग्धा, प्रेषित पतिका, अभिसारिका, कृष्णाभिसारिका, ज्योत्स्नाभिसारिका, अधीरा, रमणी आदि के रूप में एक ही नायिका के कहीं नायक के साथ, तो कहीं अकेली तो कहीं सहेलियों के साथ भाव-प्रधान चित्र हैं, जो गजलों के भावानुरूप अंकित हैं। दो-तीन को छोड़ प्रायः सभी चित्र रंगीन हैं। बेशकीमती जिल्दसाजी बेलबूटों के बीच राजा साहब का शायराना अंदाज , मनमोहक चित्रों से सुसज्जित यह कृति भी नायाब उदाहरण है। बैरागढ़िया राजकुमार:- बैरागढ़िया राजकुमार राजा चक्रधर सिंह का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। उनके दीवान बलदेव प्रसाद मिश्र ने उसका नाट्य रूपांतरण कर उसे और भी लोकप्रिय बना दिया था। सरस्वती सन् 1933 के एक सूची में छपे हुए विज्ञापन के अनुसार सचित्र ऐतिहासिक उपन्यास पृ. संख्या लगभग 250 । चित्र संख्या 23 तिरंगे, 13 दुरंगे, 5 इकरेंगी, सुन्दर सुनहरी छपी हुई रेशमी जिल्द। यदि आप संगीत के साहित्य तथा इतिहास और उपन्यास का एक साथ मजा लेना चाहें, तो एक बार इस उपन्यास को अवश्य पढ़े। इस उपन्यास में यर्थाथ कम, कल्पना की उड़ानें अधिक हैं। राजा साहब के अनुसार राजकुमार बैरागढ़िया अपने बाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु के कारण राजा है गए थे, अस्तु इसका नाम राजकुमार बैरागढ़िया और उपन्यास में उसे ही ज्यों का त्यों रखा गया है। उपन्यास में वर्णित कथापात्र हृदय शाह ऐतिहासिक है, और उसका समय भी यही है। अलकापुरी ;- आर्चाय महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने सरस्वती में अलकापुरी की निम्न शब्दों में तारीफ की है - "आज घर बैठे नयनाभिराम पुस्तक की प्राप्ति हुई।'" आर्चाय महावीर प्रसाद के अनुसार यह ऐतिहासिक उपन्यास (पृ.300) आदि से अंत तक अद्भुत मनोरंजक और वीरतापूर्ण घटनाओं से भरा हुआ है। अनेक आश्चर्य-पूर्ण वैज्ञानिक यंत्रों का हाल पढ़ कर आप चकित हो जाएंगे। अलकापुरी भी तिलस्मी उपन्यास है, इसमे अनेक लोमहर्षक घटनाएं वर्णित हैं । ऐसा लगता है इसका काव्य नायक रायगढ़ राजवंश का संस्थापक मदनसिंह है। इसमेँ रायगढ़ के आसपास की पहाड़ियों, घने जंगलों, नदी-नालों की प्राकृतिक छटा, निराली है। पदलालित्य से इसके वाक्य विन्यास स्पर्धा करते दिखाई देते हैं। माया चक्रः- माया चक्र भी रायगढ़ के र्पूव पुरुषों का समवेत चित्रण है, भले ही नाम और स्थान अलग हैं, फिर भी इसे पढ़ने के बाद जुझार सिंह का चित्र आँखों के सामने आ जाता है। (विस्तार से जानने के लिए देखे "रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव"लेखक:-डाँ. बलदेव) प्रकाशक:- छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी ।

स्व.डाँ०बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन,स्टेडियम के पीछे श्रीराम काँलोनी, जूदेव गार्डन, रायगढ़ छत्तीसगढ़, मो.नं. 9039011458 -- फास्ट Notepad से भेजा गया

बुधवार, 23 अगस्त 2017


रायगढ़ दरबार:- 
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 डाँ०बलदेव रायगढ़ 
दरबार का संगीत साहित्य का असली उत्कर्ष रायगढ़ का गणेशोत्सव है, जो सन् 1905 से एक माह तक राजमहल के दरबार और परिसर में होता था। राजा भूपदेव सिंह शास्त्रीय कलाओं के साथ लोक-कला के भी महान सरक्षक थे। दरबार में तो शास्त्रीय संगीत का आयोजन होता था, और परिसर में नाचा, गम्मत ,सुआ , डंडा , करमा की शताधिक पार्टियां रात भर राज महल परिसर को मशाल के प्रकाश में झांझ और घुंघरुओं की झनकार से गुलजार किए रहती थी। राजा भूपदेव सिंह अपने भाई नारायण सिंह के संयोजकत्व में इनकी प्रतियोगिताएं रखवाते थे, और विजेता पार्टी को पुरस्कृत करते थे। राजा भूपदेव सिंह काव्य रसिक भी कम न थे। उनके गणेशोत्सव में देश के कोने कोने से जादूगर, पहलवान, मुर्गे-बटेर लड़ाने वाले , यू.पी. की नृत्यांगनाएं खिंची चली आती थीं। एक बार राजा साहब इलाहाबाद गए, वही उन्होंने प्रसिद्ध गायिका जानकी बाई से ठुमरी, गजल, खमसा सुनीं। उनकी मीठी आवाज से वे मुग्ध हो गए। राजा साहब ने बन्धू खां नाम के एक गवैये को गणेश मेला के अवसर पर इलाहाबाद भेजा। एक बार मशहूर नृत्यांगना आई और कहा जाता हैं विदाई में उसे लाख रुपये दिए गए। बिन्दादीन महाराज की शिष्या सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान पहले अकेले आई, फिर उन्हीं की ही शिष्या ननुआ और बिकुवा भी आने लगी। राजा भूपदेव सिंह के दरबार में सीताराम महाराज (कत्थक-ठुमरी भावानिभय) मोहम्मद खाँ (बान्दावाले दो भाई , ख्याल टप्पा ठुमरी के लिए प्रसिद्ध) कोदउ घराने के बाबा ठाकुर दास (अयोध्या के पखावजी) संगीताचार्य जमाल खाँ, सादिर हुसैन(तबला) अनोखे लाल , प्यारे लाल (पखावज) चांद खाँ(सांरगी) , कादर बख्श आदि राजा भूपदेव सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये कलाकार लम्बे समय तक रायगढ़ दरबार में संगीत गुरू के पद पर नियुक्त रहे। उनके शिष्य कार्तिकराम , कल्याण दास मंहत, फिरतू महाराज, बर्मनलाल (कथक) , कृपाराम खवास (तबला) , बड़कू मियाँ (गायन) , जगदीश सिंह दीन, लक्ष्मण सिंह ठाकुर आदि ने दरबार में ही दीक्षित हो कर हिन्दुस्तान के बड़े शहरों में यहाँ का नाम रोशन किया। दरबार के रत्न :- यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बीसवीं सदी से ही यहाँ नृत्य संगीत की सुर-लहरियां गूंजने लगी थी । पं. शिवनारायण , सीताराम, चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, चिरंजीलाल, झंडे खाँ, (कथक) , जमाल खाँ, चांद खाँ, (सांरगी) , सादिर हसन (तबला) , करामतुल्ला खां, कादर बख्श, अनोखेलाल, प्यारेलाल, (गायन) , ठाकुर दास महन्त , पर्वतदास (पखावज), जैसे संगीतज्ञ , नन्हें महाराज के बचपन में ही आ गये थे, जो रायगढ़ दरबार में नियुक्त थे। सन् 1924 में चक्रधर सिंह का राज्याभिषेक हुआ तो रायगढ़ नगरी धारा नगरी के रूप में तब्दील हो गई जिसके राजा स्वयं चक्रधर सिंह थे। उनकी योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने उन्हें 1931 में राज्याधिकार दिया और तब रायगढ़ के गणेश मेला में चार चांद लग गए। उनके जमाने में गणेशोत्सव को राष्ट्रव्यापी प्रसिद्ध मिली, जिसमें विष्णु दिगम्बर पुलस्कर, ओंकारनाथ ठाकुर, मनहर बर्वे, अल्लार खां, अलाउद्दीन खां, मानसिंह, छन्नू मिश्र, फैयाज खां साहेब, कृष्णकाव शंकर राव, (पंडित) ,करीम खां,.सीताराम(नेपाल) , गुरु मुनीर खां, अनोखेलाल(बनारस), बाबा ठाकुर दास, करामततुल्ला खां, कंठे महाराज(पखावज एवं तबला), जैसे उस्तादों ने अपनी -अपनी उपस्थिति से रायगढ़ के गणेशोत्सव को अविस्मरणीय बनाया। रायगढ़ गणेशोत्सव में पं. विष्णु दिग्म्बर पुलस्कर अपने दस शिष्यों के साथ ग्यारह दिन रहे। शहनाई नवाज बिस्मिल्ला खां ने कई आयोजनों में शिरकत की थी, उन्होंने राजा साहब के विवाह में भी शहनाई की धुनों से रायगढ़ और सारंगढ़ के राजमहलों को रोमांचित कर दिया था। ओंकारनाथ ठाकुर भी कई बार गणेशोत्सव में शामिल हुए। अच्छन महाराज, अलकनन्दा, बिहारीलाल, चिरौंजीलाल, चौबे महाराज, हीरालाल (जैपुर), जयलाल महाराज, कन्हैयालाल, लच्छू महाराज, रामकृष्ण वटराज (भारतनाट्यम), जैसे महान नर्तक और बिस्मिल्ला खां(शहनाई) इनायत खां, (सितार), जैसी हस्तियों ने रायगढ़ गणेशोत्सव में भाग लिया।

 भारतीय संगीत में रायगढ़ नरेश का योगदान:-
 -------------------------------------------------------- रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह का जन्म भारतीय नृत्य संगीत के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इनका जन्म भाद्र पक्ष चतुर्थी संवत 1962 अर्थात 19 अगस्त, 1905 को हुआ था। इनकी माताश्री का नाम रानी रामकुंवर देवी था। वे 1931 में सम्पूर्ण सांमती शासक घोषित किये गये। उनकी मृत्यु आश्विन कृष्ण चतुर्थी संवत 2004 अर्थात 07 अक्टूबर 1947 को हुई। राजा चक्रधर सिंह सर्वगुण सम्पन्न पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था। 40-44 साल की उम्र बहुत कम होती है पर अल्पायु में ही राजा साहब ने जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में बड़ी ऊंचाइयां छू ली थी जिन्हें सुनकर चकित होना पड़ता है।उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजमहल में हुई थी । इन्हें नन्हें महाराज के नाम से पुकारा जाता था। आठ वर्ष की उम्र में नन्हे महाराज को राजकुमार कालेज , रायपुर में दाखिला दिलाया गया था। वहाँ शारीरिक, मानसिक , दार्शनिक और संगीत की शिक्षा दी जाती थी। अनुशासन नियमितता और कभी कठिन परिश्रम के कारण नन्हे महाराज प्रिंसिपल ई.ए. स्टाँव साहब के प्रिय छात्र हो गये। वहाँ उन्हें बाक्सिंग, शूटिंग, घुडसवारी, स्काउट आदि की अतिरिक्त शिक्षा दी गई थी। नन्हे महाराज जनवरी 1914 से 1923 तक काँलेज में रहे। उसके बाद एक वर्ष के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए उन्हें छिंदवाड़ा भेजा गया था। प्रशिक्षण के दौरान इनका विवाह छुरा के जमींदार की कन्या डिश्वरीमती देवी से हुआ। राजा नटवर सिंह के देह - पतन के बाद 15 फरवरी 1924 को उनका राज्यभिषेक हुआ। ललित सिंह का जन्म भी इसी दिन हुआ। 1929 में उनकी दूसरी शादी सांरगढ़ नरेश जवार सिंह की पुत्री बंसतमाला से हुई, उनसे अगस्त 1932 में सुरेंद्र कुमार सिंह पैदा हुए। विमाता होने के कारण छोटी रानी लोकेश्वरी देवी ने इनका लालन -पालन किया। कुंवर भानुप्रताप सिंह बड़ी रानी की कोख से 14 मई 1933 को पैदा हुए। राजा चक्रधर सिंह को राज्य प्राप्त करने में बड़ी कठिनाईयां थी। विव्दानों की मदद से उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं तब कहीं सरकार ने उन्हें योग्य समझकर पूर्ण राजा घोषित किया। राजा साहब प्रजा वत्सल थे। प्रजा हित में उन्होंने अनेक कार्य किये। उन्होंने बेगारी प्रथा बंद की। स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने राज्य की सर्वांगीण उन्नति के लिए सन् 1933 से रायगढ़ समाचार का भी प्रकाशन कराया था। राजा साहब को पशु-पक्षियों से प्यार था। उनके अस्तबल में पहाड़ी टट्टू और अलबक घोड़ा आकर्षण केंद्र थे। शेर के शिकार के लिए राजकुंवर गजमा नाम की हथनी विशेष रूप से प्रशिक्षित की गई थी। राजा साहब को पतंग- बाजी का भी शौक कम न था । उनके समय रोमांचक कुश्तीयां होती थीं। दरबार में पूरन सिंह निक्का, गादा चौबे जैसे मशहूर पहलवान भी रहते थे। रायगढ़ घराने का अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा साहब व्दारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार परण हैं, जो नर्तन सर्वस्व, तालतोयनिधि, रागरत्न, मंजूषा, मूरज परण पुष्पाकर और तालबल पुष्पाकर में संकलित है। उनके शिष्य अधिकांशयता उन्हीं की रचनायें प्रदर्शित करते हैं। इस उपक्रम के व्दारा गत- भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुये। यहां कड़क बिजली, दलबादल, किलकिलापरण जैसे सैकड़ों बोल, प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पंक्षी आदि के रंग ध्वनियों पर आधारित है। जाति और स्वभाव के अनुसार इनका प्रदर्शन किया जावे तो ये मूर्त हो उठते हैं। चक्रप्रिया नाम से रचनाएँ की:- छायावाद के प्रर्वतक कवि मुकुटधर पांडेय लंबे समय तक राजा साहब के सानिध्य में थे। उन्होंने एक जगह लिखा है आंखों में इतना शील वाला राजा शायद कोई दूसरा रहा होगा। राजा की उदारता, दानशीलता और दयालुता भी प्रसिद्ध है। लेकिन इन सबसे बढ़कर वे संगीत, नृत्य के महान उपासक थे। वे कला पारखी ही नहीं अपने समय के श्रेष्ठ वादक और नर्तक भी थे।तबला के अतिरिक्त हारमोनियम, सितार और पखावज भी बजा लेते थे। तांडव नृत्य के तो वे जादूगर थे। एक बार अखिल भारतीय स्तर के संगीत समारोह में वाईसराय के समक्ष दिल्ली में कार्तिकराम एवं कल्याण दास मंहत के कत्थक नृत्य पर स्वयं राजा साहब ने तबले पर संगत की थी। उनका तबलावादन इतना प्रभावशाली था कि वाईसराय ने उन्हें संगीत सम्राट से विभूषित किया। राजा साहब की संगीत साधना के कारण ही उन्हें सन् 1936 तथा 1939 म़े अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन, इलाहाबाद का अध्यक्ष चुना गया था। वे वाजिदली शाह और सवाई माधव सिंह की तरह कथक नृत्य के महान उन्नायकों में थे। राजा चक्रधर सिंह को नृत्य की विधिवत शिक्षा तो किसी विशेष गुरु से नहीं मिली, लेकिन चाचा लाला नारायण सिंह की प्रेरणा और विलक्षण प्रतिभा के कारण उन्होंने तबला वादन और कथक नृत्य में महारत हासिल कर ली थी। पंडित शिवनारायण, झण्डे खान, हनुमान प्रसाद, जयलाल महाराज, अच्छन महाराज से दरबार में नृत्य की और भी बारीकियों और कठिन कायदों को सीख लिया था। उनके दरबार में जगन्नाथ प्रसाद , मोहनलाल, सोहनलाल, जयलाल, अच्छन, शंभू, लच्छू महाराज, नारायण प्रसाद जैसे कथकाचार्य नियुक्त थे। जिनसे उन्होंने अनुजराम, मुकुतराम, कार्तिक , कल्याण, फिरतू दास, बर्मनलाल और अन्य दर्जनों कलाकारों को नृत्य की शिक्षा दिलाई, जो आगे चलकर समूचे देश में मशहूर हुए। जय कुमारी और रामगोपाल की नृत्य शिक्षा रायगढ़ दरबार में ही हुई थी। राजा साहब ने संगीत और नृत्य के पराभव को देखते हुए उसके स्थान की ठान ली। राजा चक्रधर सिंह साहित्य रचना में भी पांरगत थे। वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, बंगला, उड़िया आदि भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने चक्रप्रिया के नाम से हिन्दी में और- फरहत के नाम से उर्दू में रचनाएं की। जिनमें रम्यरास, जोशे फरहत, निगारे फरहत काफी प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ हैं। बैरागढ़िया राजकुमार और अलकापुरी अपने समय के बहुत लोकप्रिय उपन्यास हैं। उन्होंने प्रेम के तीर नामक नाटक का भी प्रणयन किया था, जिसकी कई प्रस्तुतियां हुई थी। रायगढ़ दरबार में भानु कवि को पिंगलाचार्य की उपाधि मिली थी। आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी को पचास रुपया मासिक पेंशन दी जाती थी। उनके दरबार में कवि लेखकों का जमघट लगा रहता था। माखनलाल चतुर्वेदी , रामकुमार वर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, भगवती चरण वर्मा, दरबार में चक्रधर सम्मान से पुरस्कृत हुए थे। राजा चक्रधर सिंह के दरबार में संस्कृत के 21 पंडित समादृत थे। पंडित सदाशिवदास शर्मा, भगवान दास, डिलदास, कवि भूषण, जानकी वल्लभ शास्त्री, सप्ततीर्थ शारदा प्रसाद, काशीदत्त झा, सर्वदर्शन सूरी, दव्येश झा, आदि की सहायता से उन्होंने अपार धनराशि खर्च करके संगीत के अनूठे ग्रंथ नर्तन सर्वस्वम्, तालतोयनिधि, तालबलपुष्पाकर, मुरजपरणपुस्पाकर और रागरत्न मंजूषा की रचना की थी। प्रथम दो ग्रंथ मंझले कुमार सुरेन्द्र कुमार सिंह के पास सुरक्षित है जिनका वजन क्रमशः 8 और 28 किलो है। कथक को उनके मूल संस्कार और नये जीवन संदर्भो से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरुप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है। रायगढ नरेश चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने फूलने का यथेष्ट अवसर मिला। रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू और बर्मन लाल जैसे महान नर्तक तैयार हुये। उन्होंने अपने शिष्यों के व्दारा देश में कथक रायगढ़ का विकास किया। आज भी नृत्याचार्य रामलाल , राममूर्ति वैष्णव, बांसती वैष्णव, सुनील वैष्णव, शरद वैष्णव, मीना सोन, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के बाहर सराहनीय योगदान दे रहे हैं। कथक रायगढ़ घराने पर सबसे पहले हमने 1977-78 में बहस की शुरुआत की थी, जिसका समर्थन और विरोध दोनों हुआ, लेकिन आज तो कथक रायगढ़ घराना एक सच्चाई बन चुकी है। कुमार देवेंद्र प्रताप सिंह , नये सिरे से राजा साहब की फुटकर रचनाओं को सुश्री उवर्शी देवी एवं अपने पिता महाराज कुमार सुरेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में संकलित कर रहे हैं। कुंवर भानु प्रताप सिंह ने भी विरासत संजोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

 डाँ०बलदेव 
 श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे, जूदेव गार्डन, रायगढ़, छत्तीसगढ़ मो.नं. 9039011458 -- फास्ट Notepad से भेजा गया