शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

डाँ. बलदेव की काव्य भाषा(समीक्षा)लेखक बसन्त राघव

डाँ. बलदेव की काव्य भाषा
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बसन्त राघव

मैं स्वयं स्व.डाँ. बलदेव की रचनाओं का पहला पाठक ही नहीं, कुछ कुछ उनकी रचना प्रक्रिया और उसकी पृष्ठभूमि का साक्ष्य रहा हूँ इसलिए उनकी काव्य-भाषा पर कुछ कहने कुछ लिखने की कोशश की है।उनकी छत्तीसगढ़ी भाषा की चिंता को स्पष्ट करने के लिए यह मुझे जरूरी भी लगा अन्यथा उनकी कविताएं स्वयं बोलती है, विशेष व्याख्या की जरुरत नहीं....

             भारत कृषि प्रधान देश है, आज भी देश की कुल आबादी का पचास प्रतिशत परिवार कृषि पर ही निर्भर है, और पच्चीस प्रतिशत परिवार कृषि-मजदूरों का है, याने भारत की कला-संस्कृति, श्रम-सौंदर्य का ही पर्याय है।डाँ. बलदेव कृषक-पुत्र थे,उनकी समस्त रचनाओं के केंद्र में प्राणस्वरूप यही कृषि-संस्कृति या श्रम-सौंदर्य है।उनका यह विषय नया नहीं है, पर उनका शिल्प ,उनकी शैली एकदम नयी है।इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य के विव्दान ,नंदकिशोर तिवारी की टिप्पणी गौरतलब है, उनके शब्दों में "सन् 1950 से आजतक की छत्तीसगढ़ी कविता में बिल्कुल अलग प्रयोग के दर्शन बलदेव की कविता में देखने को मिलते हैं। इस किस्म की कविता को लेंड स्केपिंग की कविता कहा जाता है। लैंडस्केपिंग अंग्रेज़ी का शब्द है,इसका अर्थ है,जो चीज जैसी दिखाई दे रही है, उसका चित्रण वैसा ही होना चाहिए।हिंदी में इसे परिदर्श कहा गया है।हिन्दी में इसका विस्तार चौतरफा है, जैसे ऊपर से देखना, आगे-पीछे,दांये-बाएं से देखना। अंग्रेजी में इसका इतना विस्तार नहीं है, अस्तु इसे देखी हुई चीज का पूर्णता के साथ प्रस्तुति मानना चाहिए।इससे अलग हिंदी में संस्कृत के समान"प्रकृत काव्य" की बात कही गयी है। प्रकृति को जैसा देखा जाय उसका चित्रण वैसा ही किया जावे।यह वर्णन मात्र फोटोग्राफी नहीं होता, उसमें कवि के साथ उसका सांसारिक ज्ञान ,वासना,समाज से प्राप्त संस्कार और संस्कृति अन्तर्मूत होती है। ऐसा करके ही कवि अपने सामाजिक सरोकार का भी परिचय देता है।"दरअसल डाँ. बलदेव की काव्य-भाषा में जो खुलापन है, अर्थ का विस्तार है वही परिदर्श का कारण है, खासकर प्रकृति और ऋतुओं के वर्णन में कवि ने ऐसा रच-रचाव किया है, जो कि परम्परागत बिम्ब और प्रतीक से बिल्कुल भिन्न है, सादृश्य -विधान वैसे भी अर्थ से ज्यादा सुबोध ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा विस्तार देने वाले होते हैं। उदाहरण के लिए उनका "दोंगरा"शीर्षक कविता ली जाय, दोंगरा या दवंगरा,छत्तीसगढ़ का अप्रचलित शब्द है जिसका अर्थ वर्षा की पहली बौछार होता है प्रचलित के लिए ही कवि ने उसका यहाँ प्रयोग किया है इससे उनकी छत्तीसगढ़ी-भाषा -विषय का चिंता भी प्रकट होती है।अदभुत लय और बिम्ब -विधानी काव्य-भाषा की प्रस्तुत कविता का स्थाई या टेक इस प्रकार है:-
           लगत असाढ के संझाकुन
           घन-घटा उठिस उमड़िस घुमड़िस घहराइस
           एक सरबर पानी बरस गइस
इस कविता के चार प्रखंड हैं, प्रथम खंड में बादल का रुई जैसे इधर -उधर, उडना, फिर सघन होकर वासुकि नाग के फण जैसे ठढियाना फिर अग्नि -रेख (बिजली) जैसी उसकी जीभ का लपलपाना धरती का कंपना,आकाश  का दपदपना (रह-रहकर प्रकाशित होना) और सूर्य का बादलों में छिपने का बिम्ब है, जिससे कालिया-दह जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है। दूसरे प्रखंड में बादलों का भारी होना, चमकीले काले जामुन जैसे भार से नीचे झुकना, मकुना हाथी के सूंड जैसे धरती की सोंधी वास को सूंघना फिर जलकणों का बरसना चकित कर देने वाला है:-
            मोती कस नुवा-नुवा
                     नान्हें-नान्हें जलकन उज्जर
            सूंढ़ उठा सुरकै-पुरकै
                       सींचै छिडकै छर छर छर
यहां विशेषण और क्रिया की झड़ी सी लग गई है, उपमा, रूपक,उत्प्रेक्षा, अनुप्रास का समवेत मानवीकरण का पूरा पूरा दृश्य बिम्ब खड़ा कर दिया है. 'बादर गुरुवाइस पांव'असन "पांव भारी"का सास्कृतिक मुहावरा है, इस कविता के आगे के प्रखंड धनुर्भंग और स्वयंबर की हल्की सी अनुगूंज सुनाई देती है:-
           के लड़ी लगा बरसै सुघ्घर
           करसा के सत्धारा ले सोनहा पानी
                      पिंवराए धरती के उप्पर
           पल्हरा पहार ले टकराइस
           तड़ तड़ तड़ तड़ाक तड़ धनुखा टूटिस
आगे सूर्य का पराभव और क्षुद्र -नदी नालों का खलखल रावण के अट्टहास की स्मृति करा देता है, इसके बाद दुब खेत हार का अंकुराना ,दुल्हन की मुस्कान ,कृषि का अधिष्ठात्री देवी का अवतरण करा देती है। यहाँ अन्तयानुप्रास की रक्षार्थ व्यतिक्रम हो गया है, वर्ना कायदे से चौथी और पांचवीं पंक्ति को शुरू में होना चाहिए था।
         डाँ. बलदेव गति, ध्वनि और प्रकाश के बिम्बांकन में अपनी प्रतिभा बिखरते नजर आते हैं, खांड़ाधार पहाड़ अपने नाम को सार्थक करता हुआ वर्षा और शरद का समवेत चित्र प्रस्तुत करता है. उप्पर सनसन हवा चलत में गति का घेरा-बेरी लउका हर लउके घिड़कावत हे मंदिर में ध्वनि का याने वर्षा का बिम्बांकन है, इसके तत्काल बाद कुमकुम जैसे बरसते प्रकाश का रंजक-रूप है:-
             पहाड़ में अनगढ़ गढ़ा अउ खोल
                               चांद म करिया दाग
             चमकै सूरज माथा उप्पर
                                 बरसै सोनहा फाग
यहां एक एक शब्द मणि जैसे है चांद और सूरज जैसे प्रस्तुत से रात और दिन जैसे अप्रस्तुत बिंम्ब बड़ा ही रंजक है--शरदकालीन सूर्य माथे ऊपर चमक रहा है फिर भी धूप काफी मीठी है, सोनहा फाग जैसी लग रही है, धूप में नहाया हुआ 'चील' सुनहला पंखों वाला हो गया है, भरपूर 'रवनिया'लेने के बाद ,पंखों को सेकने के बाद "झपट्टा मारकर पंजों पर चट्टान दबोचे उड़ गया ,यहां रुपकातिशयोक्ति अलंकार है जो गति और शक्ति दोनों को अभिव्यक्त करता है। क्वांर-कार्तिक के चित्रण के बाद कवि ने पौष और माघ शीर्ष का वर्णन दो ही पंक्तियों में सार्थक हो गया है यहाँ:-
            एकेच्च ठन कथरी अउ दूझिन प्रानी
            झींका -तानी के आधा रात मत पूछ
नींद मसक रही है, कथरी उघर रही है, दो प्राणियों के लिए एक ही कथरी है, खींचा-तानी हो रही है, इसमें गरीब दाम्पत्य और अभावों में भी मस्ती का आलम एक कड़ी ठंड जो हड्डियों में भी घुस रही है का अव्दितीय चित्रण है, कवि ने गरबैतिन के गीत में श्रृंगार के दोनों पक्षों के चित्रण में टटके बिम्बों का सृजन किया है:-
        दहकत परसा,टपकत महुवा,झिम-झिम बाजे ना
        धनुखा के टंकार बरोबर भंवरा गाजे ना
बसन्त ऋतु में भी अंगना सांय-सांय लग रहा है अंधेरे कमरे में सोये नायक का मस्तक गमक रहा है, सांझ होते ही ऊपर में "राख" भभूत जैसे झरने लगता है, और रात तो रात है जिंदगी उजाड़ हो चुकी हैं:-
       मोंगरा मम्हावे पुन्नी के चंदा अउ मउहारी जाड़
       अधिरथिया नींद उचट गै,जिंदगी लगै उजाड़
इसके बाद भी कवि की आकांक्षा है-
कोईली कूहके पिछवाड़ा म, मोर मोगंरा घर आ
                                            गरबैतिन घर आ
           काव्य-भाषा पाठक के हृदय में सीधे रागात्मक अनुभव पैदा करती है, यही उसकी पारदर्शिता या प्रेषणीयता का प्रमाण है। डाँ. बलदेव भी अपनी रचनाओं में यही राग पैदा करते थे।छत्तीसगढ़ी में 'साल्हो' यौन-गंधी गीतों को कहा जाता है, इस घनघोर श्रृंगारिक  गीत को कवि ने प्रकृति के माध्यम से और भी प्रभावशाली बना दिया है।
           हरदी चुपर के आमा बउराय
           रसे रस छींटा देंह लसलसाय
           मउरे के गमके सांस रुक जाय
           चपचपहा भुइंया ,पांव लपटाय
           गझिन अमरइय्या लुकाय हे कहूँ
           बइहर के बहके महक मारे
           मधुरस के लोरस म पंख लपटाय
           उड़े के सख नइये,भौंरा टन्नाय
          नग्न-यर्थाथ भी प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त होकर रमणीय बन जाता है। बसन्त यहाँ पूरे सबाब पर है, आम्रमजरियों के चुए हुए रस धरती भीग गई है, पांवों में चिपकने लगती है जरा सी हवा चली और गमन इतनी तीखी हो गयी है, कि सांस रुकने सी लगती है।मनसिज अपने नाम को सार्थक करता हुआ पुष्पवाण लिए यहीं कहीं अमराई में छुपा हुआ है प्रकृति वर्णन में कवि ने प्रस्तुत के प्रस्तुत विधान कर के भी अपनी कारयित्री प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है:-
                फूल की घाटी लुचकी घाटी
                               झुमरत हावं अइसे
                बीन के आघू कुंडलि मारे
                                फन काढे नागिन जइसे
यह उपमा कवि के सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण का ही परिणाम है, डाँक्टर बलदेव ने नारी की मांसलता का भी प्रकृत-वर्णन किया है लेकिन लज्जा के झीने आवरण ने उसे लावण्यमयी बना दिया है।जहाँ वासना की जगह वात्सल्य का भाव उमड़ने-घुमड़ने लगता है।ग्राम्य -वधु नाला पार कर रही है, घुंठुवा भर पानी में वह जल्दी जल्दी पांव उठाती है, माड़ी भर पानी आने पर साड़ी थोड़ा और ऊपर उठाती है, ताकि वह  गहराई में  बह न जाये ,इसलिए वह धीरे धीरे पांव (थेमत-थमात)रोप रही है:-
    निट रंग पानी फरियर-झलके जांघ गाघ हरियर
    लपट-उठत उप्पर उठात लाली फरिया फहरै फर
                                                                   फर
   छबकय छेंकय छाती उघरै अगम धार कांपै थर थर
   जांघ छुवत मछरी चमकै,उतरय चघय धार उप्पर
    तुर्र तुर्र तुर्र तितुर बोलय
                               टिहीं टिंही टिटही टिंहकय
तेज-धार है, हवा भी तेज है लाल रंग की फरिया (चूनर) उड़ने लगती है, वह बार बार उघरी हुई छाती को ढांपने लगती है याने संकट के समय भी वह स्वभाव वश अपने शील के प्रति सचेत है, इधर मछली का चमकना ,तितुर और टिटही का बोलना कामोत्तेजक है, वह पूर्ण युवती है,इसे व्यक्त करने के लिए कवि ने जांघ गाथ हरियर और थन भार जैसे शब्दों का सार्थक प्रयोग किया है, लेकिन अगले ही क्षण उसमें संपूर्ण मातृत्व का बोध करा दिया गया है, नारी के इस मांसलता के ऊपर लज्जा का झीना आवरण उसे वासनामयी से लावण्यमयी ममतामयी बना देता है। यहीं डाँ. बलदेव की काव्य की काव्य कला के असली दर्शन होते हैं। वास्तव में उक्त "लेवई"(पहली बार ब्याही गैया)  कविता छत्तीसगढ़ के यौवन और श्रम-सौंदर्य और मांसलता के ऊपर लज्जा के अवगुंठन को व्यक्त करने वाली सशक्त रचना है, इसी प्रकार कवि ने छ्त्तीसगढ़ को कामधेनु या कलोर गाय के रूप में चित्रण कर उसे और भी महिमा मंडित कर दिया है। कवि के प्रकृति सौंदर्य का यह अनूठा बिम्ब दृष्टव्य है:-
            चरत हे गइय्या कलोर रे कदली बन मा
            छुए ले पर जाही लोर रे कदली बन मा
            माछी फिसल जाही बइठेच म ओ
            पेट-पीठ ले उठै हिलोर रे कदली बन मा
       यह वस्तु जगत का शाब्दिक चित्र है लेकिन इसके भाषा संकेत अमूर्त भावनाओं का उद्भाषित करते नजर आते हैं, विशिष्ट अर्थ में या व्यंग्यार्थ में यह छत्तीसगढ़ की सुख शांति, रिजुता,समृद्धि और निष्कलुष सौंदर्य को अभिव्यक्त करता है यही कवि की निजता(शैली) है। डाँ. बलदेव अपने अनुभवों को चाहे वह सरल हो या जटिल समर्थ भाषा देने में सक्षम थे।
        डाँ. बलदेव का मन प्रकृति-सौंदर्य में बार बार रमता रहा था,उन्होंने प्रकृति-सौंदर्य के एक से बढ़कर एक टटके बिम्बों का सृजन किया है जिसमें गति,छाया और प्रकाश को पकड़ने की अद्भुत कला थी-
               उड़त हे भंवरा करौंदा के झुंड
               डोले हिंडोलना कउहा अउ कुंड
               अंजोरी पाख दिखै जल मोंगरा
               उछलै मछली छलकै कुंड
छाया-चित्रों के गति और निर्मल जल के भीतर अंजोरी पाख की कल्पना डाँ. बलदेव ही कर सकते थे। इसमें रंग संयोजन और ध्वनि-संयोजन भी अद्भुत है, अबाधित लय में यह रचना भीतर से बाहर की ओर प्रक्षेपित होती नजर आती है, इस संदर्भ में उनकी "फटक्का"शीर्षक रचना भी अव्दितीय है, जिसमें सरल से सरल वाक्य संरचना से तीब्र ,मध्य और मन्द ध्वनियों तथा हल्के गाढे,धूसर चटक रंगों के विरोधाभासी बिम्बों का निर्माण कर दीप पर्व के सौंदर्य को निखारा गया है-
       कहूँ धमाक ले गोला छूटे, कहूँ दनाक ले
       कहूँ बम फूटै भांय, गगन घटा घहराय
        कहूँ सर्रट ले उड़के फेंकाय फक ले
        कहूँ फुस्स ले बिन फूटे बुझ जाय
इसी प्रकार चटक रंगों का अनूठा प्रयोग देखिए:-
         झलकत हे अगिन जोत लड़ी
         नदी तलाव म अउ उबक जाय
         जगमगात खंभा नीला-पीला कहूँ हरा लाल
ऐसे ही कई प्रकाश पर्व रंग पर्वों, तीज-त्यौहार आदिवासियों के कर्मानृत्य झांझ-मादल की थाप से समूची गीत-पंक्तियाँ झंकृत होती रहती है। करमा नृत्य का दृश्य बिम्ब देखिए जिसमें झूमर और लहकी में नृत्य दल के साथ समूची धरती नृत्य करती घूमती नजर आती है।
                   धांधिन तिंता धाधिन्ना
                   झझरंग झझरंग झर्रंग ले
मादल के बोल के साथ पगडी के झूमर,हाथों की लूर  हिलने डुलने लगती है और सारा गाँव मादल की आवाज,नृत्य की लय में डूबने उतरने लगता है-
                बाजत हे मांदर झूमरत हे गाँव
                कर्मा के बोल उठै थिरकत हे पांव
                झूमर अउ लहकी म घुमरत हे गुइंया
                अखरा म माते झुमरत हे गुइंया
       यह नृत्य संगीत का प्रभाव समूचे चराचर पर पड़ रहा है।ध्वन्यात्मक और चित्रात्मकता से यहाँ भाषा तक मांसल हो गयी है।श्री भगत सिंह सोनी ने डाँ. बलदेव की रचनाओं पर सटीक टिप्पणी की है" इनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ी जीवन शैली की ,संस्कृति  एवं प्रकृति पर फोकस किया गया है। उनकी कविता की भाषा में बनावटीपन के दर्शन नहीं होते।बरबस भाषाई मिठास एवं सधे हुए शिल्प से वे भाषा में जादु या चमत्कार पैदा करते हैं।"(लोकाक्षर अंक 6सितं.1999पृ.12)डाँ. बलदेव की कविता श्रम की महागाथा लिखती है, जहाँ बुध्दिजीवी कठिन श्रम से जी चुराता है।वहीं मेहनतकश आदमी कठिन संघर्ष करता हुआ अपने लक्ष्य में कामयाब हो जाता है। दो विरोधी चरित्रों से देखिए भला कविता किस कदर ऊंचे उड़ान भरती है-
          ठाढ़ मंझनियाँ
          नान-नान सुरुज के रूप धरे
          गुखरू-मन सोनहा उजास फेंकत हें चारों मुड़ा
          आँखी ल सूजी कस हूबत हें
          फांस कस बारीक गुखरू के कांटा मन चुभत हे
          बिवाई फटे पांव
               ** *
           गर्सहन रेंगत हे गुखरू उप्पर
           जाल अउ ढिटोरी धरे
                     डबरी म सुरुज ल पकड़े बर
प्रचंड सूर्य के ताप को असंख्य सूर्यो के रूप में उद्भाषित गुखरू के कांटे और भी बढा रहे हैं। विराट की लघु से तुलना यहाँ विचलन है, जो अर्थ गौरव हेतु है।यहाँ सूर्य केन्द्रीय बिम्ब है जो क्रमशः गोखरू तथा मछली में रूपांतरित होता है ,उत्कट जिजीविषा का सटीक प्रतीक है यह सूर्य जो अमूर्त मछली को मूर्त करता है। एक बात यहाँ बार बार कहने को मन होता है कि डाँ.बलदेव मूलतः कृषक पुत्र थे ग्रामवासी थे जिसके कारण वे बार बार कृषि ,श्रम,ग्राम्य सौंदर्य का चित्रण करते नहीं अघाते थे,लेकिन वे आनंद उन्मादना के ही चितेरे नहीं हैं, बल्कि वे उनके दुख दर्द में  अभावों में गहरे उतरते हुए नजर आते हैं।
         वे मूक-दर्शक न होकर मारक भाषा में तकलीफों को व्यक्त करते हुए कारणों की जांच करते हैं। फिर उसके उच्छेद के लिए वातावरण भी तैयार करते हैं।इस संदर्भ में "धुन" और "इज्ज़त"उनकी प्रतिनिधि कविताएं हैं जिसमें जितना ताकतवर कथ्य है, उतना ही ताकतवर उसका शिल्प भी है-
            पाटी ल धुन हर चरत हे, खोलत हे
            घुप अंधियारी हर दांत ल कटरत हे
            मुडका म माथा ल भंइसा हर ठेंसत हे
            मन्से के ऊपर घुना हर गिरत हे झरत हे
घुन लकड़ी को खोखला कर देता है(खाद बना देता है) लकड़ी के कटने की आवाज़ अंधकार या नैराश्य के दांत कटरने (चबाने) में रूपांतरित हो जाती है, इसी प्रकार किसान की चिंता को तकलीफ का भैंसों का मुडका में माथा ठूंसने(पटकने) जैसी क्रिया से व्यक्त किया गया है, यह पीड़ा की चरम सीमा है। आदमी के ऊपर घुन का झरना नियति की मार को और भी भयानक बना देता है
           छत्तीसगढ़ का किसान अत्यधिक परिश्रमी है। वह इतना सरल,सीधा, और सहनशील होता है कि कोई भी उसका आसानी से शोषण कर लेता है उसकी  सुविधाओं जरूरतों की बात तो छोड़िए उसके प्रति होने वाले अन्याय-शोषण के प्रतिकार की भी चिंता इस सभ्य समाज को नहीं है।मेहनतकश आदमी मार खाकर भी कुछ नहीं बोलता पर प्रताड़ित करने वाले को वह एक बार अपनी गीली आँखों से देख ही लेता है।उसके आक्रोश का न फूटना  ही छत्तीसगढ़ के उग्र जन क्रांति की आसन्न सूचना है।अद्भुत शिल्प का एक नमूना और देखिए-

            बासी के सेवाद लेत
            मस्तराम /मुचुर मुचुर हांसथे
             एक बटकी बासी देवा
                    अउ दिन भर जानवर कस काम लेवा
                 *           *           *        *
            मस्त राम कभू कभू लहुलुहान हो जाथे
                      तभ्भो ले कुछु नइ कहै

            न रोवै न चिल्लाय
            भेद भरे मुस्कान के संगे संग आँखी चमकथे
            अउ कोरा कोरा आँखी के भीग जाथे

            मस्तराम गूंगा हे साँइत
                   ओला जुबान चाही
            मस्तराम तो मस्तराम आय
                     ओला भला का चाही
ऊपर से शांत -प्रकृति की यह रचना भयंकर क्रांतिकारी है,यह मात्र छत्तीसगढ़ के "संतोष"को व्यक्त  करने वाली रचना नहीं है।करूणा और कभी न फटने वाला आक्रोश दरअसल किसी भंयकर क्रांति की सूचना है 'गूंगा'और 'वाणी'शब्दों का प्रयोग इसी के प्रतीक है।
             डाँ. बलदेव संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला याने श्रेष्ठ भाषा साहित्य के गंभीर अध्येता थे,अस्तु उनके इस गहन अध्यवसाय का उनकी रचनाओं में यथेष्ठ प्रभाव पड़ा है।डाँ. बलदेव ,कभी कभी महान रचनाकारों की रचनाओं की पुनर्रचना कर छत्तीसगढ़ी की अभिव्यंजना शक्ति को उदाहरण बतौर रखना चाहते थे।यहाँ दो ही रचनाएं पर्याप्त होंगी, इस बात को पुख्ता करने के लिए वाल्मीकि के एक श्लोक की पुनर्रचना उन्होंने इन शब्दों में की है:;
            जाड़ के दिन चौमास के बाद
            जादा चमकीला
            अउ अकास बड़ चमकीला हो  जाथे
            बिर्खरा
            गोज छोड़े के बाद
            पहिली ले जादा चमकीला
            अउ जहरीला हो जाथे
इसी प्रकार शेक्सपीयर के 'बटरफ्लाई'कविता की पुनर्रचना देखिए-
             दंतइय्या कस लकलक ले
             दिखत हस गोई
             ओइसनेच रंग
                      तपे सोना कस
             ओइसनेच रूप
                       कनिहा मुठा भर
             अउ डंक ओइसनेच
             दंतइय्या कस
                   ***
संक्षेप में कहें तो डाँ.बलदेव की काव्य भाषा अत्यधिक रागात्मक है।यह सौंदर्य बोध का ही एक प्रकार से पर्याय है।

                         बसन्त राघव
          पंचवटी कालोनी, बोईरदादर, रायगढ़
           छत्तीसगढ़,मो.न.8319939396

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