शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

लेखःराजा चक्रधर सिंह : साहित्यिक अवदान

राजा चक्रधर सिंह साहित्यिक अवदान:- 
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लेखक:- डाँ०बलदेव 
 रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी और उर्दू भाषा साहित्य के विव्दान ही नहीं बल्कि रचनाकार भी थे, चक्रप्रिया के नाम से उन्होंने बहुत सी सांगीतिक रचनाएं दी। संस्कृत, उर्दू एवं हिंदी में उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं:- 1 रत्नहार 2 काव्य कानन 3 रम्यरास 4 बैरागढ़िया राजकुमार 5 निगारे फरहत 6 अलकापुरी -तीन भागों में 7 जोशे फरहत 8 माया चक्र 9 प्रेम के तीर 1:- रत्नहारः- यथा नाम तथा रुपम् को चरितार्थ करने वाला संस्कृत काव्य संग्रह रत्नहार सचमुच काव्य रसिकों का कंठहार है। इसका प्रकाशन साहित्य समिति, रायगढ़ ने किया , लेकिन मुद्रण कलकत्ता से संवत् 1987 में हुआ था। इसमें संस्कृत के ख्यात -अख्यात कवियों के 152 चुनिंदा श्लोक राजा चक्रधर सिंह ने संकलित किये हैं। इस संकलन के पीछे संस्कृत भाषा के काव्य रसिक होने का प्रमाण मिलता है। इस बात को उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है- " जब मैं राजकुमार काँलेज रायपुर में पढ़ रहा था, उस समय से ही मुझे संस्कृत साहित्य से विशेष अनुराग हो चला था। संस्कृत काव्य काल की कितनी ही कोमल घड़ियां व्यतीत हुई थी।उन घड़ियों की मधुर स्मृति आज भी मेरे मानस पटल पर वर्तमान की भांति स्पष्ट रेखांओं में अंकित है। "रत्नहार" उसी मधुर स्मृति का स्मारक स्वरूप है।" संकलनकर्ता ने संस्कृत के श्लोकों का गद्यानुवाद न कर भावानुवाद किया है। अनुवाद की यांत्रिकता से राजा साहब वाकिफ थे। उन्हीं के शब्दों में " गद्यानुवाद में न तो काव्य का रहस्यपूर्ण स्वर्गीय आंनद ही रह जाता है, और न ही उसकी अनिर्वचनीय रस-माधुरी। सूक्ष्म से सूक्ष्म कवितापूर्ण कल्पनाएं गद्य रूप में आते ही कथन -मात्र सी रह जाती हैं।" इसीलिए चक्रधर सिंह जी ने, जो स्वयं एक अच्छे कवि-शायर थे, श्लोकों के आंतरिक कवित्वपूर्ण भावों को सुरक्षित करने के लिए अनुवाद में पूरी स्वच्छंदता से काम लिया है। जहाँ स्पष्टीकरण में अवरोध आया है, वहाँ उन्होंने स्वतंत्र टिप्पणीयों से उसे स्पष्ट करने का भरसक प्रयास किया है। "रत्नहार" पढ़ने से लगता है, राजा साहब सचमुच रस-आखेटक थे। उन्होंने नायिकाओं के रूप वर्णन के साथ ही उनके आंतरिक भावों को व्यंजित करनेवाले श्लोकों का खास कर चुनाव किया है। नेत्रों के बहाने उन्होंने आभ्यंतर और बाह्मंतर दोनों को, याने रुप और भाव दोनों को इस श्लोक के बहाने रेखांकित करने का यत्न किया है- श्याम सितं च सदृशो: न दृशोः स्वरुपं किन्तु स्फुटं गरलमेतदथामृतं च । नीचेत्कथं निपतनादनयोस्तदैव मोहं मुदं च नितरां दधते युवानः ।। राजा साहब ने इस सौंदर्य को अक्षुण्ण रखते हुए इसका सरल अनुवाद इन शब्दों में किया है - नेत्रों की श्यामलता और धवलता को शोभा मात्र न समझना चाहिए। इस श्यामलता और धवलता के समागम का रहस्य और ही है। श्यामलता विष है और धवलता सुधा। यदि ऐसा न होता तो मृगनयनी के कटीले कटाक्ष की चोट लगते ही रसिक युवक मादक मूच्छर्ना और स्वर्गीय आन्नद का अनुभव एक साथ ही कैसे करते? "रत्नहार" में रीति सम्प्रदाय का अनुगमन होता दिखाई देता है। यहाँ अंग-प्रत्यंग सभी प्रकार की संचारी-व्यभिचारी भाव प्रधान रचनाएँ शामिल की गई हैं। अवाप्तः प्रागल्भ्य परिणत रुचः शैल तनये कलग्डों नैवायं विलसित शशांकस्य वपुषि। अमुष्येयं मन्ये विगलदमृतस्यन्द शिशिरे रति श्रान्ता शेते रजनिरमणी गाढमुरसि ।। - हे पार्वती , पूर्णिमा के चांद में बड़ा धब्बा सा दिखलाई पड़ता है। वह कलंक नहीं है तो फिर क्या है? निशा नायिका रतिक्रीड़ा से शिथिल हो कर अपने प्रियतम के अमृत प्रवाह से शीतल अंक में गाढ़ी नींद सो रही है। संयोग के बाद वियोग श्रृंगार का एक अनूठा उदाहरण दृष्टव्य है- सखि पति - विरह -हुताश: किमिति प्रशमं न याति नयनोदैः । श्रृणु कारणं नितम्बिनि मुञ्चसि नयनोदकं तु ससँनेहम्।। हे सखी मेरे नेत्रों से इतना जल टपक रहा है तो भी यह प्रबल विरहानल क्यों नहीं बुझता? चतुर सखी का उत्तर है- हे सखी मैं मानती हूँ कि तेरी आँखों से अविरल वारिधारा बह रही है। परंतु एक बात तू भूली जाा रही है- यह जल साधारण जल नहीं है। इसमेँ तो स्नेह के कारण आग बुझने के बदले और भी भभक उठती है। "रत्नहार" का गेटअप रत्नहार जैसा ही है- रंगीन बेलबूटों के बीच दो परियां इनके बीच नायिका आभूषणों से लदी हुई। इसमें अन्य आकर्षक चित्र हैं- रति श्रान्ता शेते रजनि रमणी गाढ़ मुरसी कृतं मुखं प्राच्या, व्दीपाद दीपं भ्रमति दधाति चन्द्र मुद्रा कपाले । इसी प्रकार श्लोकों के आधार पर चटक रंगों में चित्रकारी की गई है। इन चित्रों के चित्रकार है एम.के.वर्मा, जो दरबार के ही कलाकार थे। काव्य-कानन:- काव्य कानन में एक हजार एक रचनाएँ है, जिसमें सैकड़ों कवियों की बानगी दिखाई पड़ती है। विशेषतः कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, पद्माकर, सेनापति, मतिराम, ठाकुर, बोधा, आलम, नंददास, रसलीन, बिहारी, भूषण, धनानंद, रसखान, रत्नाकर, मीर, गिरधर जैसे ख्यात कवियों से ले कर वे कवि भी शामिल हैं जिन्हें उतनी लोकप्रियता उस दौर में नहीं मिली थी। जाहिर है इतने बड़े संकलन के लिए कई सहायकों की जरुरत पड़ी होगी। "काव्य शास्त्र विनोदन कालोगच्छति धीमताम्" की उक्ति रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह के संबंध में सटीक बैठती है। ब्रजभाषा की बढ़ती हुई उपेक्षा से चिंतित रायगढ़ नरेश ने उसकी उत्कृष्ट रचनाधर्मिता के महत्व को ही दिखाने के लिए खड़ी बोली और पड़ी बोली (ब्रजभाषा) के पाठकों याने दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों के लाभ के लिए "काव्य कानन' नामक ग्रंथ का प्रकाशित किया। रम्यरास:- रम्यरास का आधार श्रीमद्भागवत पुराण का दशम स्कंध है। रम्यरास राजा चक्रधर सिंह की अक्षय कीर्ति का आधार है। इसका प्राक्कथन राजा साहब की गहन आस्तिकता, भक्ति और अध्यवसाय का परिचायक है। इस उच्चकोटि. के काव्य ग्रंथ में शिखरणी छंद का सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है। यह 155 वंशस्थ वृत्त का खंडकाव्य है। आरंभ में मंगलाचरण है और समापन भगवान कृष्ण के पुनर्साक्षात्कार की कामना से होता है। रम्यरास को पढ़ते हुए कभी आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी की "सुरम्य रुप , रस राशि रंजित। विचित्र वर्णा भरणे कहाँ गई" जैसी कविता का स्मरण हो आता है तो कभी हरिऔध की "रुपोद्यान प्रफुल्ल प्राय कलिका राकेन्दु बिंबानना" जैसी संस्कृत पदावली की याद हो आती है। जिस समय "रम्यरास" लिखा जा रहा था उस समय छायावाद उत्कर्ष पर था, और छायावाद के प्रवर्तक कवि मुकुटधर पांडेय उनके ही सानिध्य में थे। डाँ० बलदेव प्रसाद मिश्र दीवान तो और भी करीब थे। तब "रीति" का इतना आग्रह क्यों हुआ? शायद इसके लिए 'दरबार' ही जिम्मेदार है। प्रकाशन के पूर्व इसे संशोधन के लिए पंडित महावीर प्रसाद व्दिवेदी के पास भेजा गया था, परन्तु उन्होंने कतिपय दोष के कारण मिश्रजी का अनुरोध स्वीकार नहीं किया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की चर्चा आगे की जाएगी। इसका प्रकाशन सितंबर 1934 में साहित्य समिति रायगढ़ ने किया था, तब इसकी कीमत मात्र सवा और अढ़ाई रुपए थी। निगारे फरहत:- राजा चक्रधर सिंह के दरबार में शेरो-शायरी का बेहतरीन चलन था। अरबी और फारसी के नामवर विव्दवानों की नियमित आवाजाही थी। राजा साहब ने उर्दू में गजलों की चार किताबें लिखी:- 1. निगारे फरहत 1930, 2. जोशे फरहत 1932, 3. इनायत-ए-फरहत, 4. नगमा-ए-फरहत। इसमें निगारे फरहत एवं जोशे फरहत ही प्रकाशित हो पाई। निगारे फरहत और दूसरी किताब जोशे फरहत की एक समय बड़ी चर्चा थी, लेकिन आजकल ये पुस्तकें दुर्लभ हो गई हैं। निगारे फरहत की भूमिका लेखन भगवती चरण वर्मा ने राजा साहब का समग्र मूल्यांकन करते हुए कहा था राजा चक्रधर सिंह फरहत दाग स्कूल के शायर हैं। उनकी विशेषता है सरलता, स्पष्टता और साथ ही सुन्दर श्रृंगार। यह पुस्तक कविता के भण्डार का एक रत्न है। सन् 1977 में डाँ. हरिसिंह जी ने मुझे प्रथम दो पुस्तकें पढ़ने को दी थीं । अभी हाल में ठाकुर वेदमणी सिंह के प्रयत्न से अजीत सिंह ने निगारे फरहत उपलब्ध कराई हैं, जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है और जिसमें से अंतिम सौ पृष्ठ करीब -करीब गायब हैं। जोशे फरहत :- जोशे फरहत का प्रकाशन गुरू पूर्णिमा संवत 1989 को हुआ था। इसमें कुल 178 गजलें हैं। गजलों की प्रथम पंक्तियाँ सूची में दी गई हैं, लेकिन 28 गजलों के चुनिंदा शेर जिन पर रंगीन चित्र दिये गए हैं सूची के बाद के क्रम में दिये गए हैं। चित्रों में कहीं धीर ललित नायक की अधीरता, तो कहीं अंकुरित यौवना, मुग्धा, प्रेषित पतिका, अभिसारिका, कृष्णाभिसारिका, ज्योत्स्नाभिसारिका, अधीरा, रमणी आदि के रूप में एक ही नायिका के कहीं नायक के साथ, तो कहीं अकेली तो कहीं सहेलियों के साथ भाव-प्रधान चित्र हैं, जो गजलों के भावानुरूप अंकित हैं। दो-तीन को छोड़ प्रायः सभी चित्र रंगीन हैं। बेशकीमती जिल्दसाजी बेलबूटों के बीच राजा साहब का शायराना अंदाज , मनमोहक चित्रों से सुसज्जित यह कृति भी नायाब उदाहरण है। बैरागढ़िया राजकुमार:- बैरागढ़िया राजकुमार राजा चक्रधर सिंह का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। उनके दीवान बलदेव प्रसाद मिश्र ने उसका नाट्य रूपांतरण कर उसे और भी लोकप्रिय बना दिया था। सरस्वती सन् 1933 के एक सूची में छपे हुए विज्ञापन के अनुसार सचित्र ऐतिहासिक उपन्यास पृ. संख्या लगभग 250 । चित्र संख्या 23 तिरंगे, 13 दुरंगे, 5 इकरेंगी, सुन्दर सुनहरी छपी हुई रेशमी जिल्द। यदि आप संगीत के साहित्य तथा इतिहास और उपन्यास का एक साथ मजा लेना चाहें, तो एक बार इस उपन्यास को अवश्य पढ़े। इस उपन्यास में यर्थाथ कम, कल्पना की उड़ानें अधिक हैं। राजा साहब के अनुसार राजकुमार बैरागढ़िया अपने बाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु के कारण राजा है गए थे, अस्तु इसका नाम राजकुमार बैरागढ़िया और उपन्यास में उसे ही ज्यों का त्यों रखा गया है। उपन्यास में वर्णित कथापात्र हृदय शाह ऐतिहासिक है, और उसका समय भी यही है। अलकापुरी ;- आर्चाय महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने सरस्वती में अलकापुरी की निम्न शब्दों में तारीफ की है - "आज घर बैठे नयनाभिराम पुस्तक की प्राप्ति हुई।'" आर्चाय महावीर प्रसाद के अनुसार यह ऐतिहासिक उपन्यास (पृ.300) आदि से अंत तक अद्भुत मनोरंजक और वीरतापूर्ण घटनाओं से भरा हुआ है। अनेक आश्चर्य-पूर्ण वैज्ञानिक यंत्रों का हाल पढ़ कर आप चकित हो जाएंगे। अलकापुरी भी तिलस्मी उपन्यास है, इसमे अनेक लोमहर्षक घटनाएं वर्णित हैं । ऐसा लगता है इसका काव्य नायक रायगढ़ राजवंश का संस्थापक मदनसिंह है। इसमेँ रायगढ़ के आसपास की पहाड़ियों, घने जंगलों, नदी-नालों की प्राकृतिक छटा, निराली है। पदलालित्य से इसके वाक्य विन्यास स्पर्धा करते दिखाई देते हैं। माया चक्रः- माया चक्र भी रायगढ़ के र्पूव पुरुषों का समवेत चित्रण है, भले ही नाम और स्थान अलग हैं, फिर भी इसे पढ़ने के बाद जुझार सिंह का चित्र आँखों के सामने आ जाता है। (विस्तार से जानने के लिए देखे "रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव"लेखक:-डाँ. बलदेव) प्रकाशक:- छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी ।

स्व.डाँ०बलदेव
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बुधवार, 23 अगस्त 2017


रायगढ़ दरबार:- 
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 डाँ०बलदेव रायगढ़ 
दरबार का संगीत साहित्य का असली उत्कर्ष रायगढ़ का गणेशोत्सव है, जो सन् 1905 से एक माह तक राजमहल के दरबार और परिसर में होता था। राजा भूपदेव सिंह शास्त्रीय कलाओं के साथ लोक-कला के भी महान सरक्षक थे। दरबार में तो शास्त्रीय संगीत का आयोजन होता था, और परिसर में नाचा, गम्मत ,सुआ , डंडा , करमा की शताधिक पार्टियां रात भर राज महल परिसर को मशाल के प्रकाश में झांझ और घुंघरुओं की झनकार से गुलजार किए रहती थी। राजा भूपदेव सिंह अपने भाई नारायण सिंह के संयोजकत्व में इनकी प्रतियोगिताएं रखवाते थे, और विजेता पार्टी को पुरस्कृत करते थे। राजा भूपदेव सिंह काव्य रसिक भी कम न थे। उनके गणेशोत्सव में देश के कोने कोने से जादूगर, पहलवान, मुर्गे-बटेर लड़ाने वाले , यू.पी. की नृत्यांगनाएं खिंची चली आती थीं। एक बार राजा साहब इलाहाबाद गए, वही उन्होंने प्रसिद्ध गायिका जानकी बाई से ठुमरी, गजल, खमसा सुनीं। उनकी मीठी आवाज से वे मुग्ध हो गए। राजा साहब ने बन्धू खां नाम के एक गवैये को गणेश मेला के अवसर पर इलाहाबाद भेजा। एक बार मशहूर नृत्यांगना आई और कहा जाता हैं विदाई में उसे लाख रुपये दिए गए। बिन्दादीन महाराज की शिष्या सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान पहले अकेले आई, फिर उन्हीं की ही शिष्या ननुआ और बिकुवा भी आने लगी। राजा भूपदेव सिंह के दरबार में सीताराम महाराज (कत्थक-ठुमरी भावानिभय) मोहम्मद खाँ (बान्दावाले दो भाई , ख्याल टप्पा ठुमरी के लिए प्रसिद्ध) कोदउ घराने के बाबा ठाकुर दास (अयोध्या के पखावजी) संगीताचार्य जमाल खाँ, सादिर हुसैन(तबला) अनोखे लाल , प्यारे लाल (पखावज) चांद खाँ(सांरगी) , कादर बख्श आदि राजा भूपदेव सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये कलाकार लम्बे समय तक रायगढ़ दरबार में संगीत गुरू के पद पर नियुक्त रहे। उनके शिष्य कार्तिकराम , कल्याण दास मंहत, फिरतू महाराज, बर्मनलाल (कथक) , कृपाराम खवास (तबला) , बड़कू मियाँ (गायन) , जगदीश सिंह दीन, लक्ष्मण सिंह ठाकुर आदि ने दरबार में ही दीक्षित हो कर हिन्दुस्तान के बड़े शहरों में यहाँ का नाम रोशन किया। दरबार के रत्न :- यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बीसवीं सदी से ही यहाँ नृत्य संगीत की सुर-लहरियां गूंजने लगी थी । पं. शिवनारायण , सीताराम, चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, चिरंजीलाल, झंडे खाँ, (कथक) , जमाल खाँ, चांद खाँ, (सांरगी) , सादिर हसन (तबला) , करामतुल्ला खां, कादर बख्श, अनोखेलाल, प्यारेलाल, (गायन) , ठाकुर दास महन्त , पर्वतदास (पखावज), जैसे संगीतज्ञ , नन्हें महाराज के बचपन में ही आ गये थे, जो रायगढ़ दरबार में नियुक्त थे। सन् 1924 में चक्रधर सिंह का राज्याभिषेक हुआ तो रायगढ़ नगरी धारा नगरी के रूप में तब्दील हो गई जिसके राजा स्वयं चक्रधर सिंह थे। उनकी योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने उन्हें 1931 में राज्याधिकार दिया और तब रायगढ़ के गणेश मेला में चार चांद लग गए। उनके जमाने में गणेशोत्सव को राष्ट्रव्यापी प्रसिद्ध मिली, जिसमें विष्णु दिगम्बर पुलस्कर, ओंकारनाथ ठाकुर, मनहर बर्वे, अल्लार खां, अलाउद्दीन खां, मानसिंह, छन्नू मिश्र, फैयाज खां साहेब, कृष्णकाव शंकर राव, (पंडित) ,करीम खां,.सीताराम(नेपाल) , गुरु मुनीर खां, अनोखेलाल(बनारस), बाबा ठाकुर दास, करामततुल्ला खां, कंठे महाराज(पखावज एवं तबला), जैसे उस्तादों ने अपनी -अपनी उपस्थिति से रायगढ़ के गणेशोत्सव को अविस्मरणीय बनाया। रायगढ़ गणेशोत्सव में पं. विष्णु दिग्म्बर पुलस्कर अपने दस शिष्यों के साथ ग्यारह दिन रहे। शहनाई नवाज बिस्मिल्ला खां ने कई आयोजनों में शिरकत की थी, उन्होंने राजा साहब के विवाह में भी शहनाई की धुनों से रायगढ़ और सारंगढ़ के राजमहलों को रोमांचित कर दिया था। ओंकारनाथ ठाकुर भी कई बार गणेशोत्सव में शामिल हुए। अच्छन महाराज, अलकनन्दा, बिहारीलाल, चिरौंजीलाल, चौबे महाराज, हीरालाल (जैपुर), जयलाल महाराज, कन्हैयालाल, लच्छू महाराज, रामकृष्ण वटराज (भारतनाट्यम), जैसे महान नर्तक और बिस्मिल्ला खां(शहनाई) इनायत खां, (सितार), जैसी हस्तियों ने रायगढ़ गणेशोत्सव में भाग लिया।

 भारतीय संगीत में रायगढ़ नरेश का योगदान:-
 -------------------------------------------------------- रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह का जन्म भारतीय नृत्य संगीत के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इनका जन्म भाद्र पक्ष चतुर्थी संवत 1962 अर्थात 19 अगस्त, 1905 को हुआ था। इनकी माताश्री का नाम रानी रामकुंवर देवी था। वे 1931 में सम्पूर्ण सांमती शासक घोषित किये गये। उनकी मृत्यु आश्विन कृष्ण चतुर्थी संवत 2004 अर्थात 07 अक्टूबर 1947 को हुई। राजा चक्रधर सिंह सर्वगुण सम्पन्न पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था। 40-44 साल की उम्र बहुत कम होती है पर अल्पायु में ही राजा साहब ने जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में बड़ी ऊंचाइयां छू ली थी जिन्हें सुनकर चकित होना पड़ता है।उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजमहल में हुई थी । इन्हें नन्हें महाराज के नाम से पुकारा जाता था। आठ वर्ष की उम्र में नन्हे महाराज को राजकुमार कालेज , रायपुर में दाखिला दिलाया गया था। वहाँ शारीरिक, मानसिक , दार्शनिक और संगीत की शिक्षा दी जाती थी। अनुशासन नियमितता और कभी कठिन परिश्रम के कारण नन्हे महाराज प्रिंसिपल ई.ए. स्टाँव साहब के प्रिय छात्र हो गये। वहाँ उन्हें बाक्सिंग, शूटिंग, घुडसवारी, स्काउट आदि की अतिरिक्त शिक्षा दी गई थी। नन्हे महाराज जनवरी 1914 से 1923 तक काँलेज में रहे। उसके बाद एक वर्ष के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए उन्हें छिंदवाड़ा भेजा गया था। प्रशिक्षण के दौरान इनका विवाह छुरा के जमींदार की कन्या डिश्वरीमती देवी से हुआ। राजा नटवर सिंह के देह - पतन के बाद 15 फरवरी 1924 को उनका राज्यभिषेक हुआ। ललित सिंह का जन्म भी इसी दिन हुआ। 1929 में उनकी दूसरी शादी सांरगढ़ नरेश जवार सिंह की पुत्री बंसतमाला से हुई, उनसे अगस्त 1932 में सुरेंद्र कुमार सिंह पैदा हुए। विमाता होने के कारण छोटी रानी लोकेश्वरी देवी ने इनका लालन -पालन किया। कुंवर भानुप्रताप सिंह बड़ी रानी की कोख से 14 मई 1933 को पैदा हुए। राजा चक्रधर सिंह को राज्य प्राप्त करने में बड़ी कठिनाईयां थी। विव्दानों की मदद से उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं तब कहीं सरकार ने उन्हें योग्य समझकर पूर्ण राजा घोषित किया। राजा साहब प्रजा वत्सल थे। प्रजा हित में उन्होंने अनेक कार्य किये। उन्होंने बेगारी प्रथा बंद की। स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने राज्य की सर्वांगीण उन्नति के लिए सन् 1933 से रायगढ़ समाचार का भी प्रकाशन कराया था। राजा साहब को पशु-पक्षियों से प्यार था। उनके अस्तबल में पहाड़ी टट्टू और अलबक घोड़ा आकर्षण केंद्र थे। शेर के शिकार के लिए राजकुंवर गजमा नाम की हथनी विशेष रूप से प्रशिक्षित की गई थी। राजा साहब को पतंग- बाजी का भी शौक कम न था । उनके समय रोमांचक कुश्तीयां होती थीं। दरबार में पूरन सिंह निक्का, गादा चौबे जैसे मशहूर पहलवान भी रहते थे। रायगढ़ घराने का अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा साहब व्दारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार परण हैं, जो नर्तन सर्वस्व, तालतोयनिधि, रागरत्न, मंजूषा, मूरज परण पुष्पाकर और तालबल पुष्पाकर में संकलित है। उनके शिष्य अधिकांशयता उन्हीं की रचनायें प्रदर्शित करते हैं। इस उपक्रम के व्दारा गत- भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुये। यहां कड़क बिजली, दलबादल, किलकिलापरण जैसे सैकड़ों बोल, प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पंक्षी आदि के रंग ध्वनियों पर आधारित है। जाति और स्वभाव के अनुसार इनका प्रदर्शन किया जावे तो ये मूर्त हो उठते हैं। चक्रप्रिया नाम से रचनाएँ की:- छायावाद के प्रर्वतक कवि मुकुटधर पांडेय लंबे समय तक राजा साहब के सानिध्य में थे। उन्होंने एक जगह लिखा है आंखों में इतना शील वाला राजा शायद कोई दूसरा रहा होगा। राजा की उदारता, दानशीलता और दयालुता भी प्रसिद्ध है। लेकिन इन सबसे बढ़कर वे संगीत, नृत्य के महान उपासक थे। वे कला पारखी ही नहीं अपने समय के श्रेष्ठ वादक और नर्तक भी थे।तबला के अतिरिक्त हारमोनियम, सितार और पखावज भी बजा लेते थे। तांडव नृत्य के तो वे जादूगर थे। एक बार अखिल भारतीय स्तर के संगीत समारोह में वाईसराय के समक्ष दिल्ली में कार्तिकराम एवं कल्याण दास मंहत के कत्थक नृत्य पर स्वयं राजा साहब ने तबले पर संगत की थी। उनका तबलावादन इतना प्रभावशाली था कि वाईसराय ने उन्हें संगीत सम्राट से विभूषित किया। राजा साहब की संगीत साधना के कारण ही उन्हें सन् 1936 तथा 1939 म़े अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन, इलाहाबाद का अध्यक्ष चुना गया था। वे वाजिदली शाह और सवाई माधव सिंह की तरह कथक नृत्य के महान उन्नायकों में थे। राजा चक्रधर सिंह को नृत्य की विधिवत शिक्षा तो किसी विशेष गुरु से नहीं मिली, लेकिन चाचा लाला नारायण सिंह की प्रेरणा और विलक्षण प्रतिभा के कारण उन्होंने तबला वादन और कथक नृत्य में महारत हासिल कर ली थी। पंडित शिवनारायण, झण्डे खान, हनुमान प्रसाद, जयलाल महाराज, अच्छन महाराज से दरबार में नृत्य की और भी बारीकियों और कठिन कायदों को सीख लिया था। उनके दरबार में जगन्नाथ प्रसाद , मोहनलाल, सोहनलाल, जयलाल, अच्छन, शंभू, लच्छू महाराज, नारायण प्रसाद जैसे कथकाचार्य नियुक्त थे। जिनसे उन्होंने अनुजराम, मुकुतराम, कार्तिक , कल्याण, फिरतू दास, बर्मनलाल और अन्य दर्जनों कलाकारों को नृत्य की शिक्षा दिलाई, जो आगे चलकर समूचे देश में मशहूर हुए। जय कुमारी और रामगोपाल की नृत्य शिक्षा रायगढ़ दरबार में ही हुई थी। राजा साहब ने संगीत और नृत्य के पराभव को देखते हुए उसके स्थान की ठान ली। राजा चक्रधर सिंह साहित्य रचना में भी पांरगत थे। वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, बंगला, उड़िया आदि भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने चक्रप्रिया के नाम से हिन्दी में और- फरहत के नाम से उर्दू में रचनाएं की। जिनमें रम्यरास, जोशे फरहत, निगारे फरहत काफी प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ हैं। बैरागढ़िया राजकुमार और अलकापुरी अपने समय के बहुत लोकप्रिय उपन्यास हैं। उन्होंने प्रेम के तीर नामक नाटक का भी प्रणयन किया था, जिसकी कई प्रस्तुतियां हुई थी। रायगढ़ दरबार में भानु कवि को पिंगलाचार्य की उपाधि मिली थी। आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी को पचास रुपया मासिक पेंशन दी जाती थी। उनके दरबार में कवि लेखकों का जमघट लगा रहता था। माखनलाल चतुर्वेदी , रामकुमार वर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, भगवती चरण वर्मा, दरबार में चक्रधर सम्मान से पुरस्कृत हुए थे। राजा चक्रधर सिंह के दरबार में संस्कृत के 21 पंडित समादृत थे। पंडित सदाशिवदास शर्मा, भगवान दास, डिलदास, कवि भूषण, जानकी वल्लभ शास्त्री, सप्ततीर्थ शारदा प्रसाद, काशीदत्त झा, सर्वदर्शन सूरी, दव्येश झा, आदि की सहायता से उन्होंने अपार धनराशि खर्च करके संगीत के अनूठे ग्रंथ नर्तन सर्वस्वम्, तालतोयनिधि, तालबलपुष्पाकर, मुरजपरणपुस्पाकर और रागरत्न मंजूषा की रचना की थी। प्रथम दो ग्रंथ मंझले कुमार सुरेन्द्र कुमार सिंह के पास सुरक्षित है जिनका वजन क्रमशः 8 और 28 किलो है। कथक को उनके मूल संस्कार और नये जीवन संदर्भो से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरुप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है। रायगढ नरेश चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने फूलने का यथेष्ट अवसर मिला। रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू और बर्मन लाल जैसे महान नर्तक तैयार हुये। उन्होंने अपने शिष्यों के व्दारा देश में कथक रायगढ़ का विकास किया। आज भी नृत्याचार्य रामलाल , राममूर्ति वैष्णव, बांसती वैष्णव, सुनील वैष्णव, शरद वैष्णव, मीना सोन, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के बाहर सराहनीय योगदान दे रहे हैं। कथक रायगढ़ घराने पर सबसे पहले हमने 1977-78 में बहस की शुरुआत की थी, जिसका समर्थन और विरोध दोनों हुआ, लेकिन आज तो कथक रायगढ़ घराना एक सच्चाई बन चुकी है। कुमार देवेंद्र प्रताप सिंह , नये सिरे से राजा साहब की फुटकर रचनाओं को सुश्री उवर्शी देवी एवं अपने पिता महाराज कुमार सुरेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में संकलित कर रहे हैं। कुंवर भानु प्रताप सिंह ने भी विरासत संजोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

 डाँ०बलदेव 
 श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे, जूदेव गार्डन, रायगढ़, छत्तीसगढ़ मो.नं. 9039011458 -- फास्ट Notepad से भेजा गया

रायगढ़ दरबार:-डाँ. बलदेव

रायगढ़ दरबार:- ------------------- डाँ०बलदेव रायगढ़ दरबार का संगीत साहित्य का असली उत्कर्ष रायगढ़ का गणेशोत्सव है, जो सन् 1905 से एक माह तक राजमहल के दरबार और परिसर में होता था। राजा भूपदेव सिंह शास्त्रीय कलाओं के साथ लोक-कला के भी महान सरक्षक थे। दरबार में तो शास्त्रीय संगीत का आयोजन होता था, और परिसर में नाचा, गम्मत ,सुआ , डंडा , करमा की शताधिक पार्टियां रात भर राज महल परिसर को मशाल के प्रकाश में झांझ और घुंघरुओं की झनकार से गुलजार किए रहती थी। राजा भूपदेव सिंह अपने भाई नारायण सिंह के संयोजकत्व में इनकी प्रतियोगिताएं रखवाते थे, और विजेता पार्टी को पुरस्कृत करते थे। राजा भूपदेव सिंह काव्य रसिक भी कम न थे। उनके गणेशोत्सव में देश के कोने कोने से जादूगर, पहलवान, मुर्गे-बटेर लड़ाने वाले , यू.पी. की नृत्यांगनाएं खिंची चली आती थीं। एक बार राजा साहब इलाहाबाद गए, वही उन्होंने प्रसिद्ध गायिका जानकी बाई से ठुमरी, गजल, खमसा सुनीं। उनकी मीठी आवाज से वे मुग्ध हो गए। राजा साहब ने बन्धू खां नाम के एक गवैये को गणेश मेला के अवसर पर इलाहाबाद भेजा। एक बार मशहूर नृत्यांगना आई और कहा जाता हैं विदाई में उसे लाख रुपये दिए गए। बिन्दादीन महाराज की शिष्या सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान पहले अकेले आई, फिर उन्हीं की ही शिष्या ननुआ और बिकुवा भी आने लगी। राजा भूपदेव सिंह के दरबार में सीताराम महाराज (कत्थक-ठुमरी भावानिभय) मोहम्मद खाँ (बान्दावाले दो भाई , ख्याल टप्पा ठुमरी के लिए प्रसिद्ध) कोदउ घराने के बाबा ठाकुर दास (अयोध्या के पखावजी) संगीताचार्य जमाल खाँ, सादिर हुसैन(तबला) अनोखे लाल , प्यारे लाल (पखावज) चांद खाँ(सांरगी) , कादर बख्श आदि राजा भूपदेव सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये कलाकार लम्बे समय तक रायगढ़ दरबार में संगीत गुरू के पद पर नियुक्त रहे। उनके शिष्य कार्तिकराम , कल्याण दास मंहत, फिरतू महाराज, बर्मनलाल (कथक) , कृपाराम खवास (तबला) , बड़कू मियाँ (गायन) , जगदीश सिंह दीन, लक्ष्मण सिंह ठाकुर आदि ने दरबार में ही दीक्षित हो कर हिन्दुस्तान के बड़े शहरों में यहाँ का नाम रोशन किया। दरबार के रत्न :- यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बीसवीं सदी से ही यहाँ नृत्य संगीत की सुर-लहरियां गूंजने लगी थी । पं. शिवनारायण , सीताराम, चुन्नीलाल, मोहनलाल, सोहनलाल, चिरंजीलाल, झंडे खाँ, (कथक) , जमाल खाँ, चांद खाँ, (सांरगी) , सादिर हसन (तबला) , करामतुल्ला खां, कादर बख्श, अनोखेलाल, प्यारेलाल, (गायन) , ठाकुर दास महन्त , पर्वतदास (पखावज), जैसे संगीतज्ञ , नन्हें महाराज के बचपन में ही आ गये थे, जो रायगढ़ दरबार में नियुक्त थे। सन् 1924 में चक्रधर सिंह का राज्याभिषेक हुआ तो रायगढ़ नगरी धारा नगरी के रूप में तब्दील हो गई जिसके राजा स्वयं चक्रधर सिंह थे। उनकी योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने उन्हें 1931 में राज्याधिकार दिया और तब रायगढ़ के गणेश मेला में चार चांद लग गए। उनके जमाने में गणेशोत्सव को राष्ट्रव्यापी प्रसिद्ध मिली, जिसमें विष्णु दिगम्बर पुलस्कर, ओंकारनाथ ठाकुर, मनहर बर्वे, अल्लार खां, अलाउद्दीन खां, मानसिंह, छन्नू मिश्र, फैयाज खां साहेब, कृष्णकाव शंकर राव, (पंडित) ,करीम खां,.सीताराम(नेपाल) , गुरु मुनीर खां, अनोखेलाल(बनारस), बाबा ठाकुर दास, करामततुल्ला खां, कंठे महाराज(पखावज एवं तबला), जैसे उस्तादों ने अपनी -अपनी उपस्थिति से रायगढ़ के गणेशोत्सव को अविस्मरणीय बनाया। , रायगढ़ गणेशोत्सव में पं. विष्णु दिग्म्बर पुलस्कर अपने दस शिष्यों के साथ ग्यारह दिन रहे। शहनाई नवाज बिस्मिल्ला खां ने कई आयोजनों में शिरकत की थी, उन्होंने राजा साहब के विवाह में भी शहनाई की धुनों से रायगढ़ और सारंगढ़ के राजमहलों को रोमांचित कर दिया था। ओंकारनाथ ठाकुर भी कई बार गणेशोत्सव में शामिल हुए। अच्छन महाराज, अलकनन्दा, बिहारीलाल, चिरौंजीलाल, चौबे महाराज, हीरालाल (जैपुर), जयलाल महाराज, कन्हैयालाल, लच्छू महाराज, रामकृष्ण वटराज (भारतनाट्यम), जैसे महान नर्तक और बिस्मिल्ला खां(शहनाई) इनायत खां, (सितार), जैसी हस्तियों ने रायगढ़ गणेशोत्सव में भाग लिया। भारतीय संगीत में रायगढ़ नरेश का योगदान:- -------------------------------------------------------- रायगढ़ नरेश चक्रधर सिंह का जन्म भारतीय नृत्य संगीत के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। इनका जन्म भाद्र पक्ष चतुर्थी संवत 1962 अर्थात 19 अगस्त, 1905 को हुआ था। इनकी माताश्री का नाम रानी रामकुंवर देवी था। वे 1931 में सम्पूर्ण सांमती शासक घोषित किये गये। उनकी मृत्यु आश्विन कृष्ण चतुर्थी संवत 2004 अर्थात 07 अक्टूबर 1947 को हुई। राजा चक्रधर सिंह सर्वगुण सम्पन्न पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था। 40-44 साल की उम्र बहुत कम होती है पर अल्पायु में ही राजा साहब ने जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में बड़ी ऊंचाइयां छू ली थी जिन्हें सुनकर चकित होना पड़ता है।उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजमहल में हुई थी । इन्हें नन्हें महाराज के नाम से पुकारा जाता था। आठ वर्ष की उम्र में नन्हे महाराज को राजकुमार कालेज , रायपुर में दाखिला दिलाया गया था। वहाँ शारीरिक, मानसिक , दार्शनिक और संगीत की शिक्षा दी जाती थी। अनुशासन नियमितता और कभी कठिन परिश्रम के कारण नन्हे महाराज प्रिंसिपल ई.ए. स्टाँव साहब के प्रिय छात्र हो गये। वहाँ उन्हें बाक्सिंग, शूटिंग, घुडसवारी, स्काउट आदि की अतिरिक्त शिक्षा दी गई थी। नन्हे महाराज जनवरी 1914 से 1923 तक काँलेज में रहे। उसके बाद एक वर्ष के लिए प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए उन्हें छिंदवाड़ा भेजा गया था। प्रशिक्षण के दौरान इनका विवाह छुरा के जमींदार की कन्या डिश्वरीमती देवी से हुआ। राजा नटवर सिंह के देह - पतन के बाद 15 फरवरी 1924 को उनका राज्यभिषेक हुआ। ललित सिंह का जन्म भी इसी दिन हुआ। 1929 में उनकी दूसरी शादी सांरगढ़ नरेश जवार सिंह की पुत्री बंसतमाला से हुई, उनसे अगस्त 1932 में सुरेंद्र कुमार सिंह पैदा हुए। विमाता होने के कारण छोटी रानी लोकेश्वरी देवी ने इनका लालन -पालन किया। कुंवर भानुप्रताप सिंह बड़ी रानी की कोख से 14 मई 1933 को पैदा हुए। राजा चक्रधर सिंह को राज्य प्राप्त करने में बड़ी कठिनाईयां थी। विव्दानों की मदद से उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं तब कहीं सरकार ने उन्हें योग्य समझकर पूर्ण राजा घोषित किया। राजा साहब प्रजा वत्सल थे। प्रजा हित में उन्होंने अनेक कार्य किये। उन्होंने बेगारी प्रथा बंद की। स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने राज्य की सर्वांगीण उन्नति के लिए सन् 1933 से रायगढ़ समाचार का भी प्रकाशन कराया था। राजा साहब को पशु-पक्षियों से प्यार था। उनके अस्तबल में पहाड़ी टट्टू और अलबक घोड़ा आकर्षण केंद्र थे। शेर के शिकार के लिए राजकुंवर गजमा नाम की हथनी विशेष रूप से प्रशिक्षित की गई थी। राजा साहब को पतंग- बाजी का भी शौक कम न था । उनके समय रोमांचक कुश्तीयां होती थीं। दरबार में पूरन सिंह निक्का, गादा चौबे जैसे मशहूर पहलवान भी रहते थे। रायगढ़ घराने का अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा ------------------------------------------------------------------- साहब व्दारा निर्मित नये-नये बोल और चक्करदार परण -------------------------------------------------------------------हैं, जो नर्तन सर्वस्व, तालतोयनिधि, रागरत्न, मंजूषा, ------------------------------------------------------------------ मूरज परण पुष्पाकर और तालबल पुष्पाकर में ------------------------------------------------------------ संकलित है। उनके शिष्य अधिकांशयता उन्हीं की ------------------------------------------------------------- रचनायें प्रदर्शित करते हैं। इस उपक्रम के व्दारा गत- ------------------------------------------------------------------ भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुये। यहां कड़क ------------------------------------------------------------------- बिजली, दलबादल, किलकिलापरण जैसे सैकड़ों बोल, ------------------------------------------------------------------ प्रकृति के उपादानों, झरने, बादल, पशु-पंक्षी आदि के ----------------------------------------------------------------- रंग ध्वनियों पर आधारित है। जाति और स्वभाव के ----------------------------------------------------------- ------ अनुसार इनका प्रदर्शन किया जावे तो मूर्त हो उठते हैं। ---------–------------------------------------------------------- चक्रप्रिया नाम से रचनाएँ की:- छायावाद के प्रर्वतक कवि मुकुटधर पांडेय लंबे समय तक राजा साहब के सानिध्य में थे। उन्होंने एक जगह लिखा है आंखों में इतना शील वाला राजा शायद कोई दूसरा रहा होगा। राजा की उदारता, दानशीलता और दयालुता भी प्रसिद्ध है। लेकिन इन सबसे बढ़कर वे संगीत, नृत्य के महान उपासक थे। वे कला पारखी ही नहीं अपने समय के श्रेष्ठ वादक और नर्तक भी थे।तबला के अतिरिक्त हारमोनियम, सितार और पखावज भी बजा लेते थे। तांडव नृत्य के तो वे जादूगर थे। एक बार अखिल भारतीय स्तर के संगीत समारोह में वाईसराय के समक्ष दिल्ली में कार्तिकराम एवं कल्याण दास मंहत के कत्थक नृत्य पर स्वयं राजा साहब ने तबले पर संगत की थी। उनका तबलावादन इतना प्रभावशाली था कि वाईसराय ने उन्हें संगीत सम्राट से विभूषित किया। राजा साहब की संगीत साधना के कारण ही उन्हें सन् 1936 तथा 1939 म़े अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन, इलाहाबाद का अध्यक्ष चुना गया था। वे वाजिदली शाह और सवाई माधव सिंह की तरह कथक नृत्य के महान उन्नायकों में थे। राजा चक्रधर सिंह को नृत्य की विधिवत शिक्षा तो किसी विशेष गुरु से नहीं मिली, लेकिन चाचा लाला नारायण सिंह की प्रेरणा और विलक्षण प्रतिभा के कारण उन्होंने तबला वादन और कथक नृत्य में महारत हासिल कर ली थी। पंडित शिवनारायण, झण्डे खान, हनुमान प्रसाद, जयलाल महाराज, अच्छन महाराज से दरबार में नृत्य की और भी बारीकियों और कठिन कायदों को सीख लिया था। उनके दरबार में जगन्नाथ प्रसाद , मोहनलाल, सोहनलाल, जयलाल, अच्छन, शंभू, लच्छू महाराज, नारायण प्रसाद जैसे कथकाचार्य नियुक्त थे। जिनसे उन्होंने अनुजराम, मुकुतराम, कार्तिक , कल्याण, फिरतू दास, बर्मनलाल और अन्य दर्जनों कलाकारों को नृत्य की शिक्षा दिलाई, जो आगे चलकर समूचे देश में मशहूर हुए। जय कुमारी और रामगोपाल की नृत्य शिक्षा रायगढ़ दरबार में ही हुई थी। राजा साहब ने संगीत और नृत्य के पराभव को देखते हुए उसके स्थान की ठान ली। राजा चक्रधर सिंह साहित्य रचना में भी पांरगत थे। वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, बंगला, उड़िया आदि भाषाओं के ----------------------------------------------------------------- जानकार थे। उन्होंने चक्रप्रिया के नाम से हिन्दी में और------------------------------------------------------------------- फरहत के नाम से उर्दू में रचनाएं की। जिनमें रम्यरास, ------------------------------------------------------- -- ------ जोशे फरहत, निगारे फरहत काफी प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ ------------------------------------------------------------------- हैं। बैरागढ़िया राजकुमार और अलकापुरी अपने समय ------------------------------------------------------------------- के बहुत लोकप्रिय उपन्यास हैं। -------------------------------------- उन्होंने प्रेम के तीर नामक नाटक का भी प्रणयन किया था, जिसकी कई प्रस्तुतियां हुई थी। रायगढ़ दरबार में भानु कवि को पिंगलाचार्य की उपाधि मिली थी। आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी को पचास रुपया मासिक पेंशन दी जाती थी। उनके दरबार में कवि लेखकों का जमघट लगा रहता था। माखनलाल चतुर्वेदी , रामकुमार वर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, भगवती चरण वर्मा, दरबार में चक्रधर सम्मान से पुरस्कृत हुए थे। राजा चक्रधर सिंह के दरबार में संस्कृत के 21 पंडित समादृत थे। पंडित सदाशिवदास शर्मा, भगवान दास, डिलदास, कवि भूषण, जानकी वल्लभ शास्त्री, सप्ततीर्थ शारदा प्रसाद, काशीदत्त झा, सर्वदर्शन सूरी, दव्येश झा, आदि की सहायता से उन्होंने अपार धनराशि खर्च करके संगीत के अनूठे ग्रंथ नर्तन सर्वस्वम्, तालतोयनिधि, तालबलपुष्पाकर, मुरजपरणपुस्पाकर और रागरत्न मंजूषा की रचना की थी। प्रथम दो ग्रंथ मंझले कुमार सुरेन्द्र कुमार सिंह के पास सुरक्षित है जिनका वजन क्रमशः 8 और 28 किलो है। कथक को उनके मूल संस्कार और नये जीवन संदर्भो से जोड़कर उसे पुनः शास्त्रीय स्वरुप में प्रस्तुत करने में रायगढ़ दरबार का महत्वपूर्ण योगदान है। रायगढ नरेश चक्रधर सिंह के संरक्षण में कथक को फलने फूलने का यथेष्ट अवसर मिला। रायगढ़ दरबार में कार्तिक, कल्याण, फिरतू और बर्मन लाल जैसे महान नर्तक तैयार हुये। उन्होंने अपने शिष्यों के व्दारा देश में कथक रायगढ़ का विकास किया। आज भी नृत्याचार्य रामलाल , राममूर्ति वैष्णव, बांसती वैष्णव, सुनील वैष्णव, शरद वैष्णव, मीना सोन, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के बाहर सराहनीय योगदान दे रहे हैं। कथक रायगढ़ घराने पर सबसे पहले हमने 1977-78 में बहस की शुरुआत की थी, जिसका समर्थन और विरोध दोनों हुआ, लेकिन आज तो कथक रायगढ़ घराना एक सच्चाई बन चुकी है। कुमार देवेंद्र प्रताप सिंह , नये सिरे से राजा साहब की फुटकर रचनाओं को सुश्री उवर्शी देवी एवं अपने पिता महाराज कुमार सुरेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में संकलित कर रहे हैं। कुंवर भानु प्रताप सिंह ने भी विरासत संजोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। डाँ०बलदेव श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे, जूदेव गार्डन, रायगढ़, छत्तीसगढ़ मो.नं. 9039011458 -- फास्ट Notepad से भेजा गया

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

लेख

(रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव लेखक डाँ०बलदेव)


राजा चक्रधर सिंह प्रणीत अनूठे संगीत ग्रंथः संगीत नृत्य संबंधी पाँच चर्चित ग्रंथ_ ___________________________

 नर्तन सर्वस्व/तालतोय निधि/तालबल पुष्पाकर/मुरजपरण पुष्पाकर/रागरत्न मंजूषा राजा साहब जब कोई बोल या तोड़ा टुकड़ा या परणों का निर्माण करते तब पहले उसे रफ कॉपी में रिकॉर्ड करते।इसके ब ाद संगीतकारों के बीच उस पर गंभीर विचार विमर्श होता। कई कलाकार अपने अपने ढ़ंग से भाव प्रदर्शन से उस रचना को स्पष्ट करते। जिसमें ज्यादा खूबसूरती मिलती उसे भी अलग से दर्ज करते।इसके बाद राजा साहब अंत में स्वयं उसे तबले पर निकालते । जब संतुष्ट हो जाते और एक प्रकार से सभा में सहमति मिल जाती तब रचना पूरी मानी जाती ।राजा साहब के तबला वादन के साथ ही साथ कविगण उसे श्लोकबध्द करते और चित्रकार मुद्राओं का अंकन करते,यानी भाव प्रदर्शन , नर्तन, वादन के साथ ही साथ लेखन। जिस कवि का श्लोक तथा चित्रकार का चित्र सबसे अच्छा होता उसे फाइनल करते, रजिस्टर में दर्ज करवाते और लेखन कक्ष में भेज देते। पैलेस मैनेजर श्यामलाल जिन्होंने कि मोतीमहल के पहले तल्ले में लेखन कक्ष का चयन किया था, अपनी निगरानी में उसे चिंतामणी कश्यप से लिखवाते। चिंतामणी के सहायक लेखकों में जगदीश प्रसाद थवाईत और लोकनाथ पुरोहित नाम के दो और व्यक्ति थे।लेखन कक्ष में राजा साहब के छोड़ किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं थी।लेखकों से बाहर भी कोई व्यक्ति बात नहीं कर सकता था। ये लेखक अंतिम रूप दी गई और राजा साहब व्दारा टिक की गई रचनाओं को ब्लू ब्लैक इंक से ग्रंथ निर्माण के लिए लाए गए स्पेशल पेपर पर लेखनीबध्द करते। एक ब्लॉट भी नहीं पड़ने देते। चिंतामणी कश्यप को हेडक्लर्क का वेतन २० रूपए प्रतिमाह दिया जाता था। वे दरबार में राजा की मृत्युपर्यन्त रहे। नर्तन सर्वस्वमः-नर्तन सर्वस्वम कथक के अंग उपांग का संपूर्ण ग्रंथ है। मजबूत काली जिल्द से बंधा यह ग्रंथ खासतौर पर कथक नृत्य का सबसे बड़ा और प्रमाणिक ग्रंथ है।इसके मुख पृष्ट पर सुनहरे अक्षरों से लिखा हुआ है- ऩर्तन सर्वस्वम।उसके नीचे राजा चक्रधर सिंह का नाम है तथा सबसे नीचे १९३८ ई० लिखा हुआ है। नर्तन सर्वस्वम का मुख्य आधार है भरतमुनि प्रणीत नाट्य शास्त्र, राजा सवाई प्रताप सिंह जयपुर व्दारा लिखित और २५ जून १९१० को प्रकाशित राधा गोविंद संगीत सार, श्री दुर्गाप्रसाद व्दारा प्रणूत संगीत दर्पण। किवंदती यह भी है कि नर्तन सर्वस्वम का असली आधार विशाखदत्त प्रणीत नर्तन रहस्यम है। इसके श्लोक को संस्कृत भाषा में आबध्द करने वाले आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं- जानकी वल्लभ शास्त्री,व्याकरणाचार्य पंडित सदाशिव दास, साहित्याचार्य पं० भगवान पांडे तथा कवि भूषण। दुर्लभ ग्रंथ नर्तन रहस्यम मे १००० से अधिक पृष्ट है। ३५० पृष्ठों की तो भूमिका ही है।इसे सबसे पहले सन १९३८ में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन इलाहाबाद में अवलोकनार्थ रखा गया था। रायगढ में जो भी विद्ववान आते राजा साहब सबसे पहले उन्हें इसी ग्रंथ को दिखाते थे।राजा साहब के निधन के बाद वह ग्रंथ छोटी रानी लोकेश्वरी देवी के पास सन १९७७ तक रहा।इसके बाद महाराज कुमार सुरेन्द्र कुमार के हाथों सौंप दिया गया तब से ग्रंथ उन्हीं के पास सुरक्षित है। तालबल पुष्पाकर :- सुलेखक चिंतामणी कश्यप के अनुसार यह ग्रंथ भी अपूर्ण लिखा गया है।इसके लिए तबले के बोल परन रफ में बना कर तैयार हैं।१९४६ में राजा साहब की आज्ञा से खम्हार ऑफिस में कार्य करना पड़ा । हो सकता है इस ग्रंथ को जगदीश थवाईत जी ने तैयार किया हो। तालबल पुष्पाकर की रफ कॉपी मझले कुमार के पास अब भी उपलब्ध है।इसे तुलसी राम देवांगन, महेन्द्र प्रताप सिंह और प्यारे लाल श्रीमाल ने खुद अपनी आँखों से देखा है और इनके बीरे में कई जगह जिक्र भी किया है। इल ग्रंथ में राजा साहब ने तबले के इतिहास पर शुरू में प्रकाश डाला है ।तबले की उत्पत्ति ताल और बल से मानते हैं। तालबल पुष्पाकर के अनुसार ताल तो एक है राकेन्दु ताल जिसे त्रिताल कहा जाता है, पर यहाँ उपभेद २०५७ बतलाए गए हां।यहाँ कायदा,रेला,पेशकार और तिहाइयों का भी सुन्दर वर्णन हुआ है ।वास्तव में तालबल पुष्पाकर तबला पर ही केन्द्रित ग्रंथ है। तालतोय निधि:- तालतोय निधि शायद भारतीय नृत्य संगीत का संबसे बड़ा ग्रंथ है। इसका कुल वजन ३२ किलो है। इस ग्रंथ को १९३८ में शुरू किया गया था जो कि माघ स० १९९७ बंसत पंचमी ,शनिवार , तारीख १/२/१९४१ को पूरा हुआ था। सुलेखक चिंतामणी कश्यप के अनुसार इसमें एक से लेकर २८४ मात्राओं तक के ताल आबध्द है। इसके तालों के बोल संस्कृत और हिन्दी दोनों में लिखे गए हैं। इसमें तालों के बोल, तालांग दून,चौगुने रेला एंव परण चक्र के अंदर लिखे गए हैं। इसमें १७,१९ जैसे विषम मात्रा के भी ताल हैं। राजा साहब ने उस्तादों को पर्याप्त धन देकर ,उन्हें खुश करके उनसे एक एक बोल प्राप्त किए थे। कहा जाता है नत्थू खां ने राजा के सामने बुलबुल परण से बुलबुल को चहकाया था। वह परण भी इस ग्रंथ में शामिल है ।कुछ विशिष्ट तालों के नाम हैं -- सवारी ताल, सरस्वती ताल,सप्तमुख ताल,सन्तिपाल ताल, दशमुख ताल, कलिंग ताल, लक्ष्मण विलास ताल अादि। मुरजपरण पुष्पाकर:- यथां नामं तथा गुणं के मुहावरे को चरितार्थ करने वाला तीसरा ग्रंथ है- मुरज परण पुष्पाकर । यह पखवज के बोल,परणों का खजाना है।इसमें ताल,परण,अंग,अणु, द्रुत, लघु, गुरूओं का विस्तार से वर्णन है। इस ग्रंथ को लिखने में तीन वर्ष (१८४३-१९४५) लगे। दरबार के नर्तक और वर्तमान में उनके शिष्यगण इसी ग्रंथ के बोल,परणों पर अधिकाँशतह नृत्य किया करते है। यह हरी और लाल जिल्दों की दो खण्डों में लिखा गया था । उसका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है । रागरत्न मंजूषा:- रागरत्न मंजूषा में १२०० राग-रागनियों का वंशवृक्ष सहित वर्णन है। इसकी पाण्डुलिपि शायद पंडित भूषण संगीताचार्य ने बनाई थी, राग रत्न मंजूषा संगीत पारिजात,अभिनव राग मंजरी जैसे प्रसिध्द ग्रंथों के आधार पर तैयार की गई थी।लेकिन सुलेखक चिंतामणी कश्यप बतलाते हैं यह ग्रंथ भी पूरा लिखा नहीं गया है सिर्फ राग के प्रकार गीत,सरगम आदि रफ में तैयार किया गया है । जैसा कि मझले कुमार बतलाते हैं उनके पास जीण-शीर्ण कापी है, उसमें भूषण महाराज के हस्ताक्षर है। इसमें राग और ३६ रागिनियों के अंग उपांगों का वर्णन है इस ग्रंथ का आधार राग विबोध, रागमाला आदि ग्रंथ है। 

 (विस्तार से जानने के लिए देखे:- रायगढ का सांस्कृतिक वैभव:- लेखक डाँ०बलदेव।)

रायगढ़ घराने के चार कीर्ति स्तंभ:-डाँ. बलदेव

रायगढ़ घराने के चार कीर्ति स्तंभ:-- -------------------------------------------- लेखक:-डाँ. बलदेव राजा चक्रधर सिंह को कथक नृत्य के विकास के लिए योग्य शिष्यों की तलाश थी। अक्सर गणेशोत्सव के समय जो गम्मत या नाचा पार्टियां आती, उन्हीं में से बाल कलाकारों का चुनाव किया जाता था। बाकायदा इन बाल कलाकारों का खर्चा , आवास व्यवस्था समेत 25 रूपये माहवारी छात्रवृति भी दी जाती थी। दरबार में प्रथम नृत्य गुरु जगन्नाथ प्रसाद थे और उनका पहला शिष्य थे अनुजराम मालाकार । वे रायगढ़ के पूर्व नेपाल दरबार में नियुक्त थे। कालांतर में पं. कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतू महाराज एवं बर्मनलाल जी इस घराने से दीक्षित होकर चार कीर्ति स्तंभ के रुप में सामने आये। पं. कार्तिकरामः- -------------------- अपने जीवन में कथक.नृत्य का पर्यायवाची बन गये कार्तिकराम का जन्म चांपा-जांजगीर के एक छोटे से गाँव भंवरमाल में सन् 1910 में हुआ था। वे अपने चाचा माखनलाल की गम्मत नाचा पार्टि में बतौर बाल कलाकार के रुप में हिस्सा लिया करते थे। एक दफा गणेश मेला के दौरान परी के रूप में राजा चक्रधर सिंह ने उन्हें देख लिया। बालक जितना सुन्दर था उसका पद चालन उतना ही सघन। राजा साहब ने तुरंत उन्हें दरबार के लिए चुनकर खान-पान और 25 रूपये मासिक वजीफे की व्यवस्था कर दी। कार्तिकराम की प्रारंभिक शिक्षा स्व. शिवनारायण, सुन्दरलाल, मोहनलाल और अच्छन महाराज के जरिये हुईं। उन्हें अच्छन महाराज से लास्य एवं शंभू महाराज से गति की तालीम मिली जबकि लच्छू महाराज से भाव पक्ष। कार्तिकराम जी को पहली प्रसिध्दि मिली इलाहाबाद म्यूजिक काँन्फेंस में वहां रायगढ़ दरबार की धूम मच गई, और कार्तिक समुचे देश में प्रसिद्ध हो गये। एक बार पुनः राजा साहब ने इलाहाबाद के उसी आखिर भारतीय संगीत समारोह मे कार्तिक राम के साथ कल्याणदास को मंच पर उतारा। स्वयं तबले पर संगति भी की। 1938 (रायगढ़ टाउन हॉल),1940(जालंधर),1940(मेरठ),1942(बिहार बैजनाथ धाम), 1943(मिरजापुर), 1945(कराची), इटावा 1954 के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में अपना एवं अपने साथ रायगढ़ दरबार का नाम रोशन करने वाले कार्तिकराम जी ने देश का कोई ऐसा समारोह न था जहाँ दस्तक न दी हो।अपने समय के इस महान नर्तक को सन् 1978 में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप एवं 1981 मे शिखर सम्मान (भोपाल) समेत अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे। पं. कल्याण दासः- प्रो. कल्याण दास देश के महान नर्तकों में से एक थे।उनका जन्म जांजगीर जिला के नवापारा गांव में 10अक्टूबर, सन् 1921 को हुआ था।पिता कुशलदास महन्त स्वयं संगीतज्ञ थे।वे इसराज, सारंगी आदि बजाने में प्रवीण थे।कल्याण दास बचपन से ही नृत्य की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनकी आवाज. भी बड़ी मीठी थी। संयोग से एक बार राजा चक्रधर सिंह ने सांरगढ़ दरबार में बालक कल्याणदास को नाचते हुए देख लिया, वे इस कदर प्रभावित हुए कि अपने ससुर से कल्याण दास को मांग कर उसे शिष्य बना लिया।कल्याणदास दरबार में अनुजराम, कार्तिकराम, और फिरतू महाराज के बाद आए। उन्हें कथक नृत्य की शिक्षा पं. जयलाल महाराज, अच्छन महाराज(भाव), लच्छू महाराज(अभिनय),शंभू महाराज (तीन ताल एंव खूबसूरती), नारायण प्रसाद(एक ताल), आदि गुरुओं से मिली। ख्याल, टप्पा, ठुमरी और गजल की तालीम हाजी मोहम्मद से प्राप्त की और नत्थू खाँ से उन्होंने तबले की उच्च शिक्षा ली। मुनीर खाँ, कादर बख्श और अहमद जान थिरकवा से तबले के कठिन कायदे सीखें। राजा साहब उन पर खास ध्यान दिया करते थे। नृत्य सम्राट कल्याणदास को पहली बार 1936 में इलाहाबाद म्यूजिक काँन्फेंस में उतारा गया। इसके बाद मेरठ, बरेली1934,रायगढ़1942,दिल्ली1944,खैरागढ़ आदि के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलनों में भाग लेकर पुरस्कार प्राप्त किया। 1964 में वे इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ में प्रोफेसर नियुक्त हुए। मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग से शिखर सम्मान प्राप्त कल्याण दास ने अपने अंतिम दिनों में भाव नृत्य नाम का एक सुंदर ग्रंथ भी लिखा। पं. बर्मनलाल:- कथक नृत्य के शिखर पुरूष पं. बर्मनलाल स्वयंसिध्द कलाकार थे। उनका जन्म वर्तमान चांपा-जांजगीर जिला में 24 अप्रेल, सन् 1916 को हुआ था और देहावसान 86 वर्ष की उम्र में 2 फरवरी,2005 को । पिता अजुर्नलाल किसान थे। वे चिकारा (सारंगी) के कुशल वादक थे। जैजैपुर निवासी उनके मातुल शिवप्रसाद एवं मुकुतराम इस अंचल के चर्चित गम्मतकार थे। बर्मनलाल जी को संगीत की आरंभिक शिक्षा पिता एवं मातुल श्री से प्राप्त हुई। बचपन से नाचा के कलाकार थे। उनके मातुल श्री मुकुतराम और घुरमिनदास राजा भूपदेव सिंह तथा चक्रधर सिंह के दरबारी कलाकार थे। ये दो कलाकार , जयपुर घराने के गुरु नारायण प्रसाद और सीताराम जी व्दारा पहली बार कथक में दीक्षित हुए। जब राजा चक्रधर सिंह गद्दीनशीन हुए तो उन्होंने मुकुतराम जी को दरबार में फिर से बुला लिया। उन्हीं के साथ मात्र आठ नौ वर्ष की उम्र में बर्मनलाल जी रायगढ़ आए। दुबारा वे 1929 में रायगढ़ आए। किशोर बर्मनलाल जी के नृत्य से प्रभावित हो कर राजा चक्रधर सिंह ने उन्हें नृत्य संगीत की ऊंची तालीम दिलाई। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने राजा चक्रधर सिंह के नेतृत्व में अपने गुरु भाईयों पं. कार्तिकराम , पं. कल्याण दास महन्त, पं. फिरतू महाराज के साथ साथ एक नूतन नृत्य शैली को जन्म दिया। बर्मनलाल जी को कथक की शिक्षा जयपुर घराने के जयलाल महाराज, सीताराम, नारायण प्रसाद और लखनऊ घराने के उस्ताद अच्छन महाराज, लच्छू महाराज, शंभू महाराज से गणितकारी (ताल-वाद्य) और नारायण प्रसाद से गायन की शिक्षा मिली। प्रसिद्ध तबलावादक कादर बख्श और नत्थू खाँ से तबले की शिक्षा ली। बर्मनलाल जी उन भाग्यवान शिष्यों में थे, जिन्हें जयपुर और लखनऊ दोनों घरानों की शिक्षा मिली। बर्मनलाल जी रायगढ़ दरबार में सन् 1932 से 1947 तक नृत्य की कठिन साधना करते रहे। सन् 1936 में इलाहाबाद और कानपुर के सम्मेलनों में वे प्रथम आए। इससे राजा चक्रधर सिंह इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें केलो तट पर रहने के लिए पर्याप्त जगह दे दी और फिर बर्मनलाल जी रायगढ़ निवासी हो कर रह गए। राजा चक्रधर सिंह की चर्चा मात्र से वे रोमांचित हो जाते थे। वे होठों से ही बांसुरी का ऐसा मधुर स्वर निकालते थे कि लोग चकित हो जाते थे। वे शायरी का भी शौक रखते थे। मौके पर शेर कह देना उनके लिए बाँए हाथ का खेल था। बर्मनलाल जी को सबसे पहले 26 जनवरी, 1954 को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश राज्य सरकार की ओर से माननीय मंडलोई जी ने उन्हें प्रशस्ति पत्र दे कर सम्मानित किया। गांधर्व महाविद्यालय देहली, प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद, श्रीराम संगीत महाविद्यालय रायपुर, भातखम्डे संगीत महाविद्यालय बिलासपुर और अनेक निजी तथा शासकीय सांस्कृतिक संस्थाओं ने भी उन्हें सम्मानों, पुरस्कारों से नवाजा था। पं. बर्मनलाल जी के चलनेे-फिरने की हर अदा में नृत्य संगीत प्रकट होता था। पं. फिरतू महाराज:- फिरतू महाराज का जन्म मेरे गाँव नरियरा के ही पास के गाँव बुंदेला मे 7जुलाई, 1921 को एक मंदिर के पुजारी के यहाँ हुआ था। रायगढ़ दरबार के हारमोनियम मास्टर मुकुतराम जी अक्सर अपने रिश्तेदार के यहाँ. बुंदेला जाते थे, और फिरतू महाराज के पिता त्रिभुवन दास वैष्णव के पास बैठते थे। उन्होंने रायगढ़ दरबार के लिए फिरतू और भाई घासी को उनके पिता से मांग लिया। फिरतू महाराज 1929 में मुकुतराम के साथ रायगढ़ आए। कार्तिकराम के बाद जयलाल महाराज के दूसरे शिष्य के रूप में फिरतू महाराज की शिक्षा शुरू हुई। पंडित जी इन दोनों बालकों को एक साथ नृत्य सिखलाते थे। पं. फिरतू महाराज ने जयलाल महाराज से तबले की भी शिक्षा ली। अच्छन महाराज, सीताराम जी और हरनारायण से गायन की, जगन्नाथ महाराज से भाव-नृत्य की, और मुहम्मद खाँ और छुट्टन भाई से गायन की तालीम पाई। फिरतू महाराज स्वतंत्र विचारों के कलाकार थे। अपने गाँव में उन्होंने भागवतदास नाम के एक लड़के को कथक में इतना योग्य बना दिया कि वह बड़े मंचों में भी प्रशंसित और पुरस्कृत होने लगा। एक बार फिरतू महाराज ने स्वयं उसे रायगढ़ गणेशोत्सव की प्रतियोगिता में उतारा। पं. जयलाल महाराज वहाँ उपस्थित थे। राजा साहब भागवतदास का नृत्य देख कर चमत्कृत हो गए और सोचने लगे कि फिरतू दास इसी तरह लड़को को गाँव में तालीम देते रहे तो दरबार के नौनिहालों का क्या हाल होगा? राजा साहब ने उन्हें रायगढ़ में फिर नियुक्त करना चाहा , पर वे नहीं माने और सीधे गाँव लौट गए।. उन्हें सबसे पहले 1933 में कार्तिकराम और जयकुमारी के साथ म्यूजिक काँन्फेंस आँफ इलाहाबाद (विश्वविद्यालय हाल) में उतारा गया।वहाँ उन्हें पुरस्कार एवं प्रमाण पत्र हासिल हुआ। दूसरी बार वे 1936 में इलाहाबाद के संगीत सम्मेलन में भाग लिए जहाँ राजा साहब स्वयं उपस्थित थे। तीसरी बार वे राजा चक्रधर सिंह के साथ कानपुर के संगीत सम्मेलन में गए। उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में उन्होंने शिष्य तैयार किए। फिरतू महाराज में ताण्डव की प्रमुखता थी। वे पढ़न्त में माहिर थे। पं. रामलाल:- दरबार की प्रमुख हस्तियों में अनुजराम, कार्तिकराम, मुकुतराम, फिरतू दास, कल्याण दास और बर्मनलाल के बाद पं. कलागुरु रामलाल नृत्याचार्य का नम्बर आता है। रामलाल को नृत्य की प्रारंभिक शिक्षा उनके पिता कार्तिकराम जी , फिर पं. जयलाल एवं दर्जनों गुरुओं से रायगढ़ दरबार में मिली थी। रामलाल जी का जन्म 6मार्च, 1936 को हुआ था। उनकी शैक्षणिक शिक्षा भले ही मिडिल स्कूल तक हो पाई , परन्तु उन्हें नृत्य संगीत की ऊंची शिक्षा मिली है, जो संगीत विद्यालयों में उस समय दुर्लभ थी। रामलाल जी ने 4 वर्ष की उम्र से नृत्य संगीत की शिक्षा 11वर्षों तक ली। कार्तिकराम जी के अनुसार वे उनके साथ करीब -करीब देश के सभी बड़े बड़े शहरों में कार्यक्रम दे चुके हैं। रामलाल नृत्य के अलावा तबला वादन और ठुमरी गजल गायकी में विख्यात हैं। राजा साहब कृत निगाहें-फरहत और जोशे फरहत के सैकड़ों शेर उन्हें आज भी कण्ठस्थ हैं। म.प्र. के भोपाल स्थित चक्रधर नृत्य केन्द्र में लम्बी अवधि तक नृत्य गुरु के रूप में सेवाएं देने का सुदीर्घ अनुभव रहा है। आपके प्रमुख शिष्यों में सुचित्रा डाकवाले, अल्पना वाजपेयी, रुपाली वालिया, मोहिनी पूछवाले, विजया शर्मा, भूपेन्द्र बरेठ , दादूलाल, अनुराधा सिंह आदि है। 1995 में संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली से से पुरस्कृत एवं छत्तीसगढ़ शासन संस्कृति विभाग का चक्रधर सम्मान 2006 प्राप्त हुए है। लेखक:- डाँ.बलदेव श्री शारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे, श्रीराम काँलोनी,चक्रधर नगर, रायगढ़ मो.नं.9826378186 -- Sent from Fast notepad