सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

डाँ० बलदेव की कहानी

कहानी:- मंगलू चोर ------------ मंगल सिंग को कोई नहीं जानता। मंगलू चोर को सब जानते हैं। लूटमार के उसके सैकड़ों किस्से बहुतों की जुबान पर है। मंगल सिंह भरे-पूरे किसान का लड़का था। जमीन की मामूली सी विवाद पर भाई मारा गया। जमीन से बेदखल होने पर मंगल सिंह बागी हो गया। उसके नाम से जमीदारों की नींद हराम होने लगी। मंगलू जब भी मौका पाता सेठ -साहूकारों , मालगुजारों और जमीदारों के यहाँ चोरी करता।चोरी का माल वह गरीब और जरुतमन्द लोगों में बाँट दिया करता था। जनश्रुतियों में मंगलूचोर आज भी जिन्दा है।.... वह ऊँची ऊँची हवेलियों को फर्लांग जाता है। उसके छूते ही ताले टूट जाते हैं। बिना चाबी की तिजोरियाँ खुल जाती है। पीले चावल छिड़कते ही घर मालिक मूक दर्शक हो जाता है। जितनी आवश्यकता होती उतनी ही उठाकर ले जाता । शाम को फिर खाली हो जाता। माखूर - गुड़ाखू, चोंगी -बीड़ी , भाँग-गाँजा दारु जैसे नशे से वह दूर रहता। निंगोटी का भी वह सच्चा था। गरीब लोगों में उसकी पूजा होती थी। लोग उसे फरिश्ता समझते थे।लेकिन .सेठ साहूकारों , जमीदारों के लिए वह एक काँटा था। दूर दूर तक वह अब मंगलू चोर के नाम से पुकारा जाने लगा। खाने-पीने , रहने-सोने का उसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं था। रात के अंधेरे में जिस गरीब-किसान का दरवाजा खटखटाता , वहाँ जो मिलता उससे ही पेटपूजा कर रात के अंधेरे में गायब हो जाता था।चोरियाँ वह रात में ही करता था। कहते हैं उसे नींद नहीं आती थी। दगाबाज या मुखवीरों के लिए तो वह यमराज ही था। कोई गरीब को सताता , वह सूंघ ही लेता और दूसरे-तीसरे दिन उसके हौसले ठिकाने लग जाते। एक - दो माल-गुजार तो उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते थे। जमीदार हुकुमसिंह के बहनोई साहब बेरीस्टर थे। उन्होंने अँगरेजी सरकार से लिखा-पढ़ी की। जिस जंगल में वह कभी -कभी विश्राम करता था, उसके आस-पास रंगरुटों का कैम्प लगा। गाँव से छीनकर मूर्गे-बटोर लाते, काटते और शराबखोरी शुरु हो जाती। रात को जलसा जैसा दृश्य नजर आने लगा।मंगलू चोर मशक की नाई कैसे तो रेशमी झालरों वाले कैम्प में घुसा। मेजर साहब खर्राटे भर रहे थे। टेबल पर रखी लैम्प की बत्ती मंगलू ने तेज की। एक नजर साहब-बहादुर के चेहरे पर दौड़ाई। फिर आहिस्ते से साहब बहादुर की कलाई से घड़ी और अँगुली से हीरे जड़े सोने की अँगूठी उतार ली। वह छावनी में कब आया कब घुस कर वापस हुआ किसी को पता नहीं चला।सुबह साहब बहादुर उठे। हाथ-मुँह धोया।कलई सूनी थी। गद्दे पर देखा..... आसपास देख कहीं पता न.चला कि अचानक ही उनका ध्यान अँगुली पर गया। अँगूठी गायब थी। साहब -बहादुर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गए .... किसी से कुछ कहा नहीं और दिन भर अनुमान करते रहे, कौन हो सकता है किसकी हिम्मत है, उनका शक रंगरुटों पर था। शाम को साहब बहादुर चुरुट पीते आराम कुर्सी में पसरे हुए थे। इतने में ही एक संतरी आया। स्लाम बजाया । अर्ज किया - हुजूर आपसे मिलने कोई आदमी आया है। अच्छा उसे ले आ , आगंतुक ने साहब बहादुर की बंदगी की। साहब बहादुर गजट में आँखें गड़ाए हुए बोले - हाँ बोलो क्या बात है ? हुजूर माई बाप ।हाँ कहो । आपसे कुछ गुजारिश है। मुझसे? क्या बात है? हुजूर सरकार के यहाँ कुछ चोरी-वोरी हुई है क्या ? तुम्हें कैसे मालूम? वाह हुजूर भला चोरी करने वाले को मालूम न हो तो किसे मालूम होगा। अब साहब बहादुर ने गजट रखते हुए सामने खड़े युवक पर नजर दौड़ायी - देखा छ: - साढ़े छः फीट का छरहरा बदन गोरा-नारा एक जवान साहब बहादुर को अनुमान लगाते देरी न लगी। नीचे की जमीन उन्हें खिसकती नजर आयी फिर भी अपनी झेंप दबाते हुए बोले अच्छा तो मंगलू तुम्हीं हो। जिसकी हमें बहुत दिनों से तलाश थी। हाँ हुजूर,.मैं ही मंगलू हूँ, मंगलू चोर। आपकी घड़ी और अंगूठी मैंने ही चुराई.है। लीजिए सम्हालिए इसे। अब गई तो दुबारा नहीं मिलेगी। साहब बहादुर को आश्चर्य हो रहा था। चारों ओर से संगीन तनी हुई थी। साहब ने इधर -उधर ताकते हुए पुछा -तुम्हें यहाँ घुसते हुए डर नहीं लगा मंगलू? हुजूर माई बाप से भला क्यों डर लगे? साहब ने फिर मंगलू की आँखों में देखा । साहब बहादुर समझदार थे। उन्होंने कुछ इशारा किया। तनी हुई संगीन नीचे झुक गयी। उन्हें पूरा विश्वास हो गया। पास खड़ा होकर भी मंगलू उन्हें कुछ नुकसान नहीं पहुँचाएगा।उन्होंने गंभीर स्वर में कहा -मंगलू तुम्हारे सिर पर सरकार ने एक लाख रुपए का इनाम रखा हैं। जिंदा या मुर्दा । मेरे पास तुम्हें अरेस्ट करने के लिए वारन्ट भी है। तुम्हारे लूट-पाट हत्या की जुमला सूची मेरे पास है। तुम्हींने जमीदार साहब के बेटे को सरे आम नीम के पेड़ में गले में रस्सी डालकर लटकाया था। हुजूर आप अच्छा फरमाते हैं। मैंने लुटेरों के यहाँ लूट-पाट की है। हत्यारों को ही मारा है। हुजूर आप चाहें तो हथकड़ी लगा सकते हैं। इतना कहकर सचमुच मंगलू ने अपने दोनों हाथ साहब की ओर बढ़ा दिए। साहब बहादूर की दिलचस्पी कुछ बढ़ी उन्होंने पूछा - मंगलू तुम तो नेक दिल इन्सान लगते हो । विश्वास नहीं होता तुमने इतने अपराध किये हैं। लेकिन तुम्हारे विरुध्द इतने मामले कैसे जुड़े । हुजूर शुरु में मुझे झूठे मुकदमे में फसाया गया। मैं निरपराध , सीधा सादा इन्सान था। आज बदले की आग में हैवान बन चुका हूँ। इसका जिम्मेदार ठाकुर हुकूमसिंह है। साहब की दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी। मंगलू ने उनके आगे जमींदार का कच्चा-चिट्ठा खोल दिया। हुजूर इस शैतान ने मेरे भोले- भाले भाई को जान से मारा । आज तक उसकी लाश का पता नहीं चला, जाने कहा गाड़ दिया।उसने मुझे मेरी पुस्तैनी जमीन से बेदखल किया। हुजूर उसनें गाँव की सैकड़ों बहू-बेटियों की इज्जत लूटी है। जो विरोध किया , उसी को न जाने कहाँ उठवा दिया। हुजूर मैंने इन सबका बदला ले लिया है। हाँ , मैंने ही जमीदार के बेटे को सरे आम नीम के पेड़ मे फाँसी दी थी। ये सब तो ठीक है मंगलू लेकिन तुमने कानून को हाथ में क्यों लिया? क्या करें हुजूर । कानून भी तो इन्हीं के व्दारा , इन्हीं की रक्षा के लिए बनाई गयी है। चाहे ये कितना भी अनाचार करें, गरीबों की पुकार कौन सुनता है।उन्हें न्याय कहाँ मिलता है? यही वजह है हुजूर, मेरे जैसे लोगों को चोर डाकू बनना पड़ा। साहब ने मंगलू की बातों को गंभीरता से लिया। बोले - कुछ पीओगे नहीं ?हुजूर । ये सब मैं कभी नहीं छूता। अच्छा साहब बहादुर ने ठहाका लगाते हुए कहा - मंगलसिंह।शेर का शिकार हम खुले मैदान में ही करते हैं। अच्छा अब.तुम जा सकते हो। मंगलू ने साहब को फौजी सैल्यूट बजाई और सबके सामने शेर जैसा वह अहिस्ता आहिस्ता संगीनों की छाया से दूर हो गया।.सबके लिए यह एक अभूतपूर्व अनुभव था। दूसरे दिन इलाके में यह खबर आग की लपट सी फैल गयी। फौज पकड़ने आई थी।लेकिन मंगलू चोर फौज का घेरा तोड़ भाग गया।यह मंगलू और साहब बहादुर दोनों के लिए अपमानजनक बात थी। दूसरे तीसरे दिन साहब बहादुर का ट्रान्सफर हो गया। पन्द्रह दिन बीत गए । जमींदारों की मीटिंग हुकुमसिंह की हवेली में हुई। रात हवेली के पिछवाड़े कंस बध खेला जा रहा था।दर्शक दीर्धा ठंसा ठंस भरी हुई थी।दूर दूर से बड़े नामी गिरामी लोग बैलगाड़ी जीप आदि में आए.थे। रात के दस बजे होंगे, दो बड़े बड़े पोलर गैस जल रही है खूब उजाला है।संगीत की स्वर लहली में हल्की हल्की हवा बहने लगी।सहसा ही हवा तेज हुई और आँधी पानी में बदल गई।गैस बत्ती बुझ गयी। घने अंधेरे में एक चीख सन्नाटे को चीर गयी। दर्जनों छोटी बड़ी टार्च रोशनी फेंकने लगी। देखा जमींदारिन दहाड़ मारकर रो रही है.-हाय मैं लूट गयी मैं बरबाद हो गयी।जमीदार साहब दौड़े।बार -बार पूछने पर जमींदारिन इतना ही बोल पाई - मुन्नी को गोदी से छीनकर कोई इधर भाग गया है। अनुमान लगाने में देरी नहीं हुई चारों ओर एक ही नाम बजबजा रहा था - मंगलू चोर मंगलू चोर।सभी दहशत में आ गए। बच्ची सुबह तालाब के किनारे तड़पती हुई मिली। उसका मुँह कुछ ऐसा दबाया गया था कि मुँह सदा के लिए टेढा हो गया । गले और हाथ-पैर से रत्न जड़ित आभूषण निकाल लिए गये थे। यह अपमान हुकुमसिंह के लिए जी-जान से बड़ा था। शाम गुडी बैठी, घनघोर चर्चा हुई। .इलाके भर के लठैत और पहलवान पुरानी हवेली में जमा हुए।जाल बिछाया गया। खड़ी दोपहरी थी जंगल में दूर दूर तक से सोये हुए शेर के खर्राटे की आवाज सुनाई दे रही थी। अनुमान सही निकला। मंगलू चोर यहीं कहीं सो रहा है। मकोय की घनी झाड़ी के नीचे घास पत्तर में मंगलू सो रहा था। जोर का हल्ला हुआ- कूदो , पचास साठ आदमी एक साथ कूद पड़े थे मंगलू के ऊपर। मंगलू को सम्हलने का मौका न लगा। उसने प्रतिकार बेकार समझा । प्रेम से रस्से में बंध गया। शाम हो रही है। हाँक पड़ चुका है। गुड़ी के.बीच मंगलू एक खंम्भें से जकड़कर बाँध दिया गया है।सोलह वर्ष से बड़े लड़के सयाने जा रहे हैं। आदेश के अनुसार पाँच -पाँच पनही (जूते) मंगलू को मार रहे है। मुँह चिथड़ा हो रहा है। सिर , नाक ,मूँह से खून निकल रहा है। अब अघोरी की पाली है - अघोरी बीस वर्ष का भरा-पूरा जवान। मंगलू के आगे जाकर वह ठिठक सा गया। इधर हुकुमसिंह का हुकुम बज रहा था- मारों साले को , ए छोकरा क्या देखता है रे, मार साले को। मंगलू खड़ा था। अघोरी तू भी मार बेटा। अघोरी की आँखें .........एक बार उस वीर मूर्ति की ओर उठी। उसने.मन ही मन नमन किया। दुबारा उसने जलती आँखों से हुकुमसिंह को देखा -चिनगारियाँ झर गयी। हुकूमसिंह का सिंहासन डोलने सा लगा। उसे दो दो मंगलसिंह दीखाई देने लगे । फिर अघोरी ने अपनी लम्बी भुजाओं और चौड़ी छाती में मंगलू को भर लिया। इसके बाद मंगलू की ओर दुबारा देखने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। डाँ० बलदेव श्रीशारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पिछे रायगढ़ , छत्तीसगढ़ मो०न० 9039011458 -- Sent from Fast notepad

डाँ० बलदेव की कहानी

jकहानीः- कला की मासूम आँखे --------------------------- सहसा ही काले -डैश के ऊपर दूधिया प्रकाश का एक नन्हा सा टुकड़ा पंख फड़फड़ाने लगा। इसके साथ ही वातावरण को झंकृत करने वाले उद्दाम संगीत का बनरिया सुर झन्नाटे से शान्त हो गया। जादुई छड़ी के नट से जादूगर ने उस नन्हीं सी बुलबुल को हाथों में लिया और फूल सा सूंघता रहा, फिर सीने से.लगा लिया। हल्के नीले रंग की शेरवानी और मोतियों की लड़ियों के.ऊपर उस नन्हीं बुलबुल के पंख फूल की पंखरियां से कोमल प्रतीत हो रहे थे। इतना ही हिस्सा प्रकाशित था, बाकी दृश्य , जादूगर का सिर पगड़ी , तुर्रा और जड़ीदार जूते गायब थे अंधेरे में। अब बुलबुल के चहचहाकर नीले आकाश का शुभ-गीत गाना शुरू किया। एक सुरमुई उजास के बाद. पर्दे पर लालिमा छा गयी, फिर धुंध , बदली ..........उनमें से छनकर आती हुई किरणे और धान की हरी-बालियाँ नाचनें लगी, दूर कहीं झरने का कलनाद फूट पड़ा। उसके मधुर संगीत से दर्शकों के हृदय के तार तड़फकर बजने से लगे। जादू का असर जड़ चेतन को एकाकार कर रहा था, तभी जादूगर ने छड़ी घुमाई....... मधुर सिम्फनी की मूच्छर्ना जैसी टूटी और छड़ी पर पंख फड़फड़ाकर बुलबुल बैठ गयी। अब जादूगर दर्शकों के बीच था वह जिस पंक्ति में जाता , दर्शकों का अभिवादन झुककर स्वीकार करता और बुलबुल.सीटी बजाकर उनका अभिनन्दन करती , तभी एक नौजवान डाँक्टर अपनी सीट से उठा । उसने जादूगर से चुनौती के स्वर में कुछ कहा। सभी का ध्यान उन दोनों पर केन्द्रित हो गया। डाँक्टर ने पूछा -क्यों जनाब, यदि इस बुलबुल के पंख कतर दिए जाँए, तब भी क्या आप अपना शो दिखा सकते हैं? मेरा मतलब आपके जादू का राज कहीं यह बुलबुल ही तो नहीं है? जादूगर भी नौजवान था और प्रयोगशील कलाकार भी । वह दर्शकों के समक्ष कठिन परीक्षा की स्थिति से भी कभी विचलित नहीं हुआ । इन्हीं जन-परीक्षणों के बीच उसका जादू परवान चढ़ रहा था। उसने डाँक्टर के चेहरे पर भरपूर मुस्कान फेकी और कहा - जनाब , इससे मेरे जादू में कोई फर्क नहीं आयेगा। दूसरे ही क्षण बुलबुल बाज के पंजे में थी। डाँक्टर ने अपना बैग खोला और एक छोटा सा तेजधार चक्कू निकाल लिया। पहले उसने बुलबुल का बांया पंख काट डाला । फिर भी बुलबुल सीटी बजाकर उसका अभिनन्दन करती रही।दर्शकों का एक वर्ग उसके इस दुष्कृत्य से दुखी और परेशान हो रहा था। दूसरा तबका तमाशबीनों का था। वे साँस रोककर इंतजार कर रहे थे कि डाक्टर कितनी जल्दी बुलबुल का दूसरा पंख काटता है। जाने कौन सी शैतानियत उस उत्साही डाँक्टर के भीतर पैठ गई थी कि दूसरे ही क्षण उसने बुलबुल का दाहिना डैना भी जड़ से काट दिया। बुलबुलब चीख उठा। गाढ़े खून की गरम धार बह चली। बुलबुल ने बड़ी मासूम नजरों से जादूगर की ओर देखा। उसकी आँखें भीग चुकी थी। फिर उसने मुँह फेर लिया। बुलबुल की करूण -चीत्कार से पूरा हाल गूंज उठा। दर्शकों का हृदय तड़फ उठा। वे सहसा ही गंभीर, उत्तेजित और आक्रमक हो उठे। एक तो खड़ा हुआ और जादूगर को ही खरी - खोटी सुनाने लगा। आपने इस क्रुर जर्राद के हाथों इस मासूम बुलबुल को क्यों सौंपा? जादूगर का स्वर संयत और गंभीर था हमें डाक्टर पर विश्वास और भरोसा करना चाहिए। यह दूसरी बात है कि.वह हमारे साथ कैसा सलूक करता है। "हमें कितनी सान्त्वना दे पाता है"। जादूगर के इस ठंडे व्यवहार पर हाल में बैठे प्रबुध्द लोग अपने आचरण के विपरीत उस दिन उत्तेजित हो गये और फर्नीचर पीट पीट कर न्याय की माँग करने लगे। भारी शोर -गुल के बीच एक प्रतिष्ठित , संवेदनशील तथा दार्शनिक से कवि को खोज निकाला गया। स्टेज पर खड़े होकर कवि ने अपने अगल -बगल , अपराधी मुद्रा में खड़े जादूगर और डाक्टर की ओर जांचती निगाहों से देखा। वह उत्तेजित भीड़ के ही पक्ष में निर्णय देना चाहता था, ताकि आगे का शो देखा जा सकें। किन्तु अचानक ही उसके भीतर के न्यायाधीश ने आदेश दिया - दबाव या भावावेश में निर्णय देना उचित नहीं होगा। आवश्यक पूछताछ के बाद अन्त में कवि ने लगभग निर्णय के स्वर में कहा - कलाकार की कोई भी कला उसकी आत्मा से पैदा होती है। जादूगर को इतने बड़े खतरे नहीं उठाने चाहिए। किसी की जान की बाजी लगाकर कला को जीवन्त बनाना कौन.सी बात हुई। और सिर्फ जीवन दान ही नहीं करती, हमारे काल को कला ही अमर करती है। मनुष्य को मनुष्य वही बनाती है। जादूगर .के सीने में अगर बुलबुल के प्राण धड़क रहे होते तो जादूगर ही छटपटाकर पहले गिर गया होता। लेकिन वह पीड़ा की अनुभूति मात्र करता रहा, शायद नफा नुकसान का ख्याल भी उसे रहा हो। जादू को खेल बनाये रखने के लिए.अपनी अनुभूति को ही गिरवी रख देना कौन सा न्याय है? इसी प्रकार परीक्षण के बतौर किसी साबूत और निरोग अंग को काटने का अधिकार किसी डाक्टर को भी नहीं हैं। चाहे उसे अपने व्यवसाय में घाटा ही क्यों न हो, क्या आप दोनों अपने पेशे से ऊपर उठकर अपने आँपरेशन या जादू से इसके कटे डैने जोड़.सकते.हैं? -जादूगर और डाँक्टर दोनों निरुत्तर थे। उनकी आंखों में पश्चात्ताप के कण झिलमिला. रहे थे। रोशनी का नन्हा सा टुकड़ा पर्दे से त्तिरोहित हो चुका था।.घने अंधकार में उस दिन का शो फिर शोक सभा में परिणत हो गया। डाँ० बलदेव .श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़ श्रीराम काँलोनी,जुदेव पार्क,स्टेडियम के पीछे, रायगढ़, छत्तीसगढ़। मो०न० 9826378186 -- Sent from Fast notepad