मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016
कहानी
नया आश्रम --
___________
मुडकर पीछे देखता हूँ लगता है किसी की छाया मेरा पीछा कर रही है लगातार, बार बार पीछे की ओर देखने से मेरी हैैरानी जेना समझ जाती है, वह पूछ बैठती है, क्या बात है जी ? " कुछ नहीं" जेनी यू ही । वह मुस्कुरा देती है पर्स से चाकलेट निकाल अपने उजले दाँतों के बीच रखकर दूसरा मेरे मुंह में रख देती है। जेनी साधारण बातों को लेकर भी देर तक तर्क करती है, लेकिन वह आदत के विरूघ्द इस समय चुप है।
अप्रेल की तेज धूप पाँच बजते - बजते नर्म पड़ने लगी है। गुलमोहर की छाँव में कैद हो गयी हवा मुक्त होकर बहने लगी है। लोग काम से लौट रहे हैं । टेफिक में भीड़ है। भीड़ अनेक सड़को को क्रास करती हुई लिंक रोड़ पर दूर तक पसर गयी है। भीड़ - भीड़ है। भीड़ को चीरकर निकल जाना हिम्मत की बात है। भीड़ हमारी खुली वासनाओं पर पर्दा है । जेनी मुझसे सटी - सटी जा रही है।धक्कम - धक्कम में हम दोनों घसीटे जा रहे हैं, जेनी को इसमें आनंद आ रहा है। वह खुली हुई बांहो को मेरी बांहों के पीछे ले जाती है। एक नुकीला उभार मेरी कोहनी को बार - बार छू रहा है। मैं उसकी नम अंगुलियाँ दबा लेता हूँ। बहुत मुलायम है फूल सी नम ......वह कसमसा जाती है।
मैं फिर मुडकर देखता हूँ - अब की बार उसकी जंजीर का लाँकेट सीधे मेरे सीने पर उलझ गया है। यौवन का गदराया उभार मेरी आँखों के नीचे है। लेकिन मेरी दृष्टि उस पर ठीक से गड़ नहीं पाती और न जेनी को रोमांच का अनुभव करने का अवसर ही दे पाती । जेनी मेरी हैैरानी समझकर हँस देती है और गले में नंगी बाहें डाल देती है। मैं इन्कार नहीं कर सकता ।
मेरी निगाहेें इस समय तेज है। हर चलने वाला आदमी मुझे सूदखोर नजर आता है। मैं भीड़ में छिपना चाहता हूँ........... भीड़ में धसना चाहता हूँ। मेरे बौनेपन को क्या जेनी नहीं समझती होगी ?
वह मैरून कलर की कार है। मैं उसे उसकी हार्न से पहचानता हूँ। यह फर्म के सेठ वाकमल की है।मैं फूट - पाथ में आ जाता हूँ, मगर जेनी फिर सड़क के बीच मुझे खींच ले गयी है....... बड़ी हिम्मती है। इसके मेरा जैसा डर नहीं है , जैसे गाड़ी में दब जाने की ही इसकी नियति है। हमसे सटकर वह कार आगे निकल गयी है। पसीने में मेरा अन्दर बाहर भी गया है। वह पूछती है - प्रकाश ? हाँ , " बड़े खोये - खोये नजर आता रहे हो ? " मैं परेशानी में छोटा - सा उत्तर देता हूँ " नहीं तो"। दरअसल काम से कंधा दुख रहा है। वह फिर चुप हो जाती है।
भीड़ हमें घसीटकर बहुत दूर ले आयी है , हम इस भीड़ से किनारे लग जाते हैं। झील के इस पार रात में हम हैं और हमारे साथ है बासन्ती प्यास , हम उस सुरमई साँझ की तलाश में हैं जो एक क्षण हमारा अपना निजी हो. बिल्कुल एकान्त और आत्मीय , मेरा इतना सोचना था कि छतरी के नीचे बैठा हुआ कोई आदमी फेन्टा की अधूरी वाटल फैंक , पलटकर चहक उठता है - " हलो जेनी हाउ", वह बिजली सी पलटती है और दौड़कर बाहें फैला देती है। भारी भरकम अधेड़ उम्र का आदमी उसे पूरी तरह बाहों में भर लेता है। उसकी गोरी बाहों में जेनी नीले गुलाब - सी खिल उठती है मैं अकचका जाता हूँ। यहाँ ज्यादा भीड़ नहीं । एक ओर दूर तक जा कर पहाड़ी में खो जाने वाली सड़क , सड़क के किनारे वाले युकिलिप्टस की कतारे , दूसरी ओर गहरी हरीतिमा और रंग बिरंगें फूलों वाला यह पार्क । पार्क के पीछे झील और झील के उस पार हर कहीं हरित वन - प्रदेश और झाऊ वनों से झरता हुआ मीठा संगीत।
वह अंधेड़ उम्र का व्यक्ति जेनी के गालों को , अंग प्रत्यंगों को ताबड़ तोड़ चूम लेता है और अपनी विजय पर मुझे घृणा की हँसी से घूरने लगता है। मुझे अंधेरा घिरता दिखाई देता है। मैं उससे आँखे नहीं मिला पाता। मुझे अपनी कमजोरी आफिस के बाहर भी महसूस होने लगती है। मैं विकल हो उठा हूँ अपनी असहाय अवस्था पर। जेनी मेरी स्थित समझ मुझे उबार लेना चाहती है। वह उससे छूटकर मेरा इन्टोडक्शन करना चाहती है कि मेरा परिचय वह स्वंय आगे बढ़कर देता हैं - आप हैं मिस्टर प्रकाश , हमारे फर्म में अकाउन्ट सेक्शन सम्हालते हैं। मैं अवाक् रह जाता हूँ। और जेनी प्लीज डोन्ट माइंड, कहती हुई सेठ साहब के शहजादे के साथ आगे निकल जाती है। वे मोटरवोट में सवार हो गये हैं। एक बार भक - भक कर इंजन स्टार्ट हो जाती है, झील के व को चीरती हुई वोट किनारे लग जाती हैं। कुछ ही क्षणों में वे हरित गुल्म लताओं के बीच खो जाते है। सूरज का आहत चेहरा झील की लहरों पर खून उगलता हुआ एक ओर चला जाता है। आकाश के ऊपर झीने नीले रंग का पर्दा लहराने लगता है। मैं अपनी कापुरूषता को फेंक चुका हूँ और दूसरी बोट से वहीं पहुँचते गया हूँ जहाँ खून के किसी भी प्यास को पहले ही पहुँच जाना चाहिए था। मैं आदमी रक्तचाप से थरथरा रहा हूँ। सहसा मैं रूक गया हूँ । झील में वहीं छाया तैरती हुई आ रही है जिसे पीछे मैं छोड़ आया था।
मेरी आँखे जलते हुए प्रश्नों से अब सीधा साक्षात्कार करना चाहती हैं। वही आँखे जेनी को इस समय मौन ढँढ रही हैं । सोचता हूँ मुझे इस तरह चोरी - चोरी नहीं आना चाहिए था। यह तो एक औरत की रूचि का प्रश्न है। उसकी स्वीकृति अस्वीकृति उस पर ही निर्भर है। सहसा कोई आवाज इसी समय उठ खड़ी हुई, ओह " अब छोड़ो तो , छोड़ो भी", जेनी की कराह है। सोचता हूँ कैसे कैसे बेदर्दी लोग होते हैं। स्त्री को भी अपनी हिम्मत की बात पहले सोचना चाहिए। अचानक ही मेरे सामने खुले इलेक्टिक वायर - सा वह कुत्सित दृश्य जल उठता है। सेठ का बच्चा अंधेड़ उम्र का आदमी भाग रहा है। मेरी जलती आँखे लगातार उसका पीछा कर रही हैं, लेकिन पाँव वहीं जमे हैं । जेनी उठ खड़ी है। सिंहनी - सी उसकी दृष्टि । स्कर्ट फट गयी है। लाँकेट के नीचे उभरे भागों पर दांत और नाखूनों के नियमित कल्पना में उभर आने वाले चित्र मुझे आंतकित कर उठते हैं। जेनी मेरी ओर हिंसंक जानवरों सी आगे बढ़कर रही है। उसकी मारक आँखे ........ ओफ्फ, खूंखार हो उठी हैं । जम्फर खून से भीग गया है। लगता है अभी अभी किसी ने इस जगह छुरा भोंका है। एक गाल पर उसका भरपूर तमाचा उभर जाता है। आँखे खुलने पर देखता हूँ जेनी वहाँ नहीं हैं। सिर्फ कुचली हरी - भरी घास है। दूर दूर घाटियों में किसी के सरपट दौड़ने के पदचाप हैं।. मैं अपनी असफलता तथा घोर अपमान पर बुरी तरह पिट गया हूँ। विकल मन तन्हाई में खो जाता है। मैं अपने ही एकान्त मेें मौत ढूढ़ने लगता हूँ। वर्षो से जीवन के पति व्याप्त अवस्था,घुटन, वितृष्णा, चारित्रिक विघटन, क्षोभ संगठित हो गए हैं। एक दूसरे का गली दबाती हुई उनकी खौफनाक आवाजें कारों के दरवाजे से, आँखों की खिड़कियों से चिक उठा उठाकर आ रही है। हर कहीं गुपचुप है।मेरी आँखों में रेशमी डोरा झूल जाता है। टाई ढीला कर उसका एक छोर मुट्ठी में ले रहा हूँ। मगर मेरा दूसरा मन इस तरह के विकर्म से डरता रहा है। आँखों में अंधकार गहन होकर सिमट रहा हैं। सात की पैंसेजर सीटी देती हुई आ रही है। मेरा नन्हा प्रमोद हाथ हिलाता हुआ को रहा है। मैं आँखे मलता हूँ,, नहीं , कुछ नहीं हुअा ........... मैं ईश्वर को पुकार उठा हूँ। अशुभ विचार कैसे कौन कैसे विजन का निर्माण कर लेते हैं। पर क्या ये विजन सच नहीं हो सकते।इसके आगे मैं कुछ नहीं सोच पाता। टाईका छोर ढीला किए पेड़। से उतर आता हूँ, और लौटता हूँ। अब चाँद निकल आया है। ........ वृक्ष के नीचे कोई वस्तु चमक जाती है। मैंने अपने से कहा अरे यह तो वही जगह है जहाँ पहले खड़ा था। अभी तक क्रियाहीन वही खड़ा हूँ। कब से खड़ा हूँ। मैं भभकती हुई चट्टान पर बैठ जाता हूँ, चांद अब बिल्कुल अलग लग रहा हैं । ऊजाला हर कहीं बिछा जा रहा है। घड़ी के कोण को आँख और चांद के बीच स्थिर करता हूँ। एक आकार ग्रहण करता है, काँच में कैमरे के लैंस जैसा आकार जेनी का है.............वह मुस्कुरा रही है। हम दोनों गलबहियाँ दिए झरनों में उतर रहे हैं। फुहारों में भीग रहे हैं। हरी घाटियों में मृगछोने - सा छलागें भर रहे हैं । अब वहीं पुरानी जगह शिरीष वृक्ष के नीचे बैठा हैं। शिरीष के लम्बे - लम्बे गुच्छा के गुचछा दूधिया फूल कंधे पर झुक आए हैं। जेनी की वही मुस्कुान । दूसरा व्यक्ति भारी भरकम शरीर का अंधेड़ उम्र का और मैं काँच को फेंक देता हूँ। चट्टान पर वह तड़़क उठती है।
मुझे लग रहा हैं मैंने अपने इस शरीर को इस भभकती चट्टान पर कपड़ा - सा उतार दिया है। मन प्राण जैसे चाँदनी में घुल रहे हैं। मैं ऊँचे पर्वत , गहरी घाटियाँ पारकर रहा हूँ, झील की लहरों में डूबता - उतराता हूँ। मुक्त पवन में रंगै पँख खोले हौले - हौले उड़ रहा हूँ। मैं वहीं पहुँचते गया हूँ। कितना चमक रहा था । ओह कितना कुरूप है इसका असली चेहरा । इसकी छाती पर ज्वालामुखी का मुहाना है। जैसे मेरी छाती पर रिसता हुआ घाव । चन्द्रमा की इन्द्रजालिक दुनिया से लौट आया हूँ। अब मैं यहाँ वियावान में भटक सकता हूँ, लेकिन अब मुझे आफिस से सीधे घर जाना चाहिए था। यह महसूस करता हुआ दूर छोड़े हुए कपड़ो से लिपट अपने शरीर को देख रहा हूँ।
डाँ०बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन रायगढ़(छ.ग)
--
Sent from Fast notepad
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें