मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016
कहानी
नया आश्रम --
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मुडकर पीछे देखता हूँ लगता है किसी की छाया मेरा पीछा कर रही है लगातार, बार बार पीछे की ओर देखने से मेरी हैैरानी जेना समझ जाती है, वह पूछ बैठती है, क्या बात है जी ? " कुछ नहीं" जेनी यू ही । वह मुस्कुरा देती है पर्स से चाकलेट निकाल अपने उजले दाँतों के बीच रखकर दूसरा मेरे मुंह में रख देती है। जेनी साधारण बातों को लेकर भी देर तक तर्क करती है, लेकिन वह आदत के विरूघ्द इस समय चुप है।
अप्रेल की तेज धूप पाँच बजते - बजते नर्म पड़ने लगी है। गुलमोहर की छाँव में कैद हो गयी हवा मुक्त होकर बहने लगी है। लोग काम से लौट रहे हैं । टेफिक में भीड़ है। भीड़ अनेक सड़को को क्रास करती हुई लिंक रोड़ पर दूर तक पसर गयी है। भीड़ - भीड़ है। भीड़ को चीरकर निकल जाना हिम्मत की बात है। भीड़ हमारी खुली वासनाओं पर पर्दा है । जेनी मुझसे सटी - सटी जा रही है।धक्कम - धक्कम में हम दोनों घसीटे जा रहे हैं, जेनी को इसमें आनंद आ रहा है। वह खुली हुई बांहो को मेरी बांहों के पीछे ले जाती है। एक नुकीला उभार मेरी कोहनी को बार - बार छू रहा है। मैं उसकी नम अंगुलियाँ दबा लेता हूँ। बहुत मुलायम है फूल सी नम ......वह कसमसा जाती है।
मैं फिर मुडकर देखता हूँ - अब की बार उसकी जंजीर का लाँकेट सीधे मेरे सीने पर उलझ गया है। यौवन का गदराया उभार मेरी आँखों के नीचे है। लेकिन मेरी दृष्टि उस पर ठीक से गड़ नहीं पाती और न जेनी को रोमांच का अनुभव करने का अवसर ही दे पाती । जेनी मेरी हैैरानी समझकर हँस देती है और गले में नंगी बाहें डाल देती है। मैं इन्कार नहीं कर सकता ।
मेरी निगाहेें इस समय तेज है। हर चलने वाला आदमी मुझे सूदखोर नजर आता है। मैं भीड़ में छिपना चाहता हूँ........... भीड़ में धसना चाहता हूँ। मेरे बौनेपन को क्या जेनी नहीं समझती होगी ?
वह मैरून कलर की कार है। मैं उसे उसकी हार्न से पहचानता हूँ। यह फर्म के सेठ वाकमल की है।मैं फूट - पाथ में आ जाता हूँ, मगर जेनी फिर सड़क के बीच मुझे खींच ले गयी है....... बड़ी हिम्मती है। इसके मेरा जैसा डर नहीं है , जैसे गाड़ी में दब जाने की ही इसकी नियति है। हमसे सटकर वह कार आगे निकल गयी है। पसीने में मेरा अन्दर बाहर भी गया है। वह पूछती है - प्रकाश ? हाँ , " बड़े खोये - खोये नजर आता रहे हो ? " मैं परेशानी में छोटा - सा उत्तर देता हूँ " नहीं तो"। दरअसल काम से कंधा दुख रहा है। वह फिर चुप हो जाती है।
भीड़ हमें घसीटकर बहुत दूर ले आयी है , हम इस भीड़ से किनारे लग जाते हैं। झील के इस पार रात में हम हैं और हमारे साथ है बासन्ती प्यास , हम उस सुरमई साँझ की तलाश में हैं जो एक क्षण हमारा अपना निजी हो. बिल्कुल एकान्त और आत्मीय , मेरा इतना सोचना था कि छतरी के नीचे बैठा हुआ कोई आदमी फेन्टा की अधूरी वाटल फैंक , पलटकर चहक उठता है - " हलो जेनी हाउ", वह बिजली सी पलटती है और दौड़कर बाहें फैला देती है। भारी भरकम अधेड़ उम्र का आदमी उसे पूरी तरह बाहों में भर लेता है। उसकी गोरी बाहों में जेनी नीले गुलाब - सी खिल उठती है मैं अकचका जाता हूँ। यहाँ ज्यादा भीड़ नहीं । एक ओर दूर तक जा कर पहाड़ी में खो जाने वाली सड़क , सड़क के किनारे वाले युकिलिप्टस की कतारे , दूसरी ओर गहरी हरीतिमा और रंग बिरंगें फूलों वाला यह पार्क । पार्क के पीछे झील और झील के उस पार हर कहीं हरित वन - प्रदेश और झाऊ वनों से झरता हुआ मीठा संगीत।
वह अंधेड़ उम्र का व्यक्ति जेनी के गालों को , अंग प्रत्यंगों को ताबड़ तोड़ चूम लेता है और अपनी विजय पर मुझे घृणा की हँसी से घूरने लगता है। मुझे अंधेरा घिरता दिखाई देता है। मैं उससे आँखे नहीं मिला पाता। मुझे अपनी कमजोरी आफिस के बाहर भी महसूस होने लगती है। मैं विकल हो उठा हूँ अपनी असहाय अवस्था पर। जेनी मेरी स्थित समझ मुझे उबार लेना चाहती है। वह उससे छूटकर मेरा इन्टोडक्शन करना चाहती है कि मेरा परिचय वह स्वंय आगे बढ़कर देता हैं - आप हैं मिस्टर प्रकाश , हमारे फर्म में अकाउन्ट सेक्शन सम्हालते हैं। मैं अवाक् रह जाता हूँ। और जेनी प्लीज डोन्ट माइंड, कहती हुई सेठ साहब के शहजादे के साथ आगे निकल जाती है। वे मोटरवोट में सवार हो गये हैं। एक बार भक - भक कर इंजन स्टार्ट हो जाती है, झील के व को चीरती हुई वोट किनारे लग जाती हैं। कुछ ही क्षणों में वे हरित गुल्म लताओं के बीच खो जाते है। सूरज का आहत चेहरा झील की लहरों पर खून उगलता हुआ एक ओर चला जाता है। आकाश के ऊपर झीने नीले रंग का पर्दा लहराने लगता है। मैं अपनी कापुरूषता को फेंक चुका हूँ और दूसरी बोट से वहीं पहुँचते गया हूँ जहाँ खून के किसी भी प्यास को पहले ही पहुँच जाना चाहिए था। मैं आदमी रक्तचाप से थरथरा रहा हूँ। सहसा मैं रूक गया हूँ । झील में वहीं छाया तैरती हुई आ रही है जिसे पीछे मैं छोड़ आया था।
मेरी आँखे जलते हुए प्रश्नों से अब सीधा साक्षात्कार करना चाहती हैं। वही आँखे जेनी को इस समय मौन ढँढ रही हैं । सोचता हूँ मुझे इस तरह चोरी - चोरी नहीं आना चाहिए था। यह तो एक औरत की रूचि का प्रश्न है। उसकी स्वीकृति अस्वीकृति उस पर ही निर्भर है। सहसा कोई आवाज इसी समय उठ खड़ी हुई, ओह " अब छोड़ो तो , छोड़ो भी", जेनी की कराह है। सोचता हूँ कैसे कैसे बेदर्दी लोग होते हैं। स्त्री को भी अपनी हिम्मत की बात पहले सोचना चाहिए। अचानक ही मेरे सामने खुले इलेक्टिक वायर - सा वह कुत्सित दृश्य जल उठता है। सेठ का बच्चा अंधेड़ उम्र का आदमी भाग रहा है। मेरी जलती आँखे लगातार उसका पीछा कर रही हैं, लेकिन पाँव वहीं जमे हैं । जेनी उठ खड़ी है। सिंहनी - सी उसकी दृष्टि । स्कर्ट फट गयी है। लाँकेट के नीचे उभरे भागों पर दांत और नाखूनों के नियमित कल्पना में उभर आने वाले चित्र मुझे आंतकित कर उठते हैं। जेनी मेरी ओर हिंसंक जानवरों सी आगे बढ़कर रही है। उसकी मारक आँखे ........ ओफ्फ, खूंखार हो उठी हैं । जम्फर खून से भीग गया है। लगता है अभी अभी किसी ने इस जगह छुरा भोंका है। एक गाल पर उसका भरपूर तमाचा उभर जाता है। आँखे खुलने पर देखता हूँ जेनी वहाँ नहीं हैं। सिर्फ कुचली हरी - भरी घास है। दूर दूर घाटियों में किसी के सरपट दौड़ने के पदचाप हैं।. मैं अपनी असफलता तथा घोर अपमान पर बुरी तरह पिट गया हूँ। विकल मन तन्हाई में खो जाता है। मैं अपने ही एकान्त मेें मौत ढूढ़ने लगता हूँ। वर्षो से जीवन के पति व्याप्त अवस्था,घुटन, वितृष्णा, चारित्रिक विघटन, क्षोभ संगठित हो गए हैं। एक दूसरे का गली दबाती हुई उनकी खौफनाक आवाजें कारों के दरवाजे से, आँखों की खिड़कियों से चिक उठा उठाकर आ रही है। हर कहीं गुपचुप है।मेरी आँखों में रेशमी डोरा झूल जाता है। टाई ढीला कर उसका एक छोर मुट्ठी में ले रहा हूँ। मगर मेरा दूसरा मन इस तरह के विकर्म से डरता रहा है। आँखों में अंधकार गहन होकर सिमट रहा हैं। सात की पैंसेजर सीटी देती हुई आ रही है। मेरा नन्हा प्रमोद हाथ हिलाता हुआ को रहा है। मैं आँखे मलता हूँ,, नहीं , कुछ नहीं हुअा ........... मैं ईश्वर को पुकार उठा हूँ। अशुभ विचार कैसे कौन कैसे विजन का निर्माण कर लेते हैं। पर क्या ये विजन सच नहीं हो सकते।इसके आगे मैं कुछ नहीं सोच पाता। टाईका छोर ढीला किए पेड़। से उतर आता हूँ, और लौटता हूँ। अब चाँद निकल आया है। ........ वृक्ष के नीचे कोई वस्तु चमक जाती है। मैंने अपने से कहा अरे यह तो वही जगह है जहाँ पहले खड़ा था। अभी तक क्रियाहीन वही खड़ा हूँ। कब से खड़ा हूँ। मैं भभकती हुई चट्टान पर बैठ जाता हूँ, चांद अब बिल्कुल अलग लग रहा हैं । ऊजाला हर कहीं बिछा जा रहा है। घड़ी के कोण को आँख और चांद के बीच स्थिर करता हूँ। एक आकार ग्रहण करता है, काँच में कैमरे के लैंस जैसा आकार जेनी का है.............वह मुस्कुरा रही है। हम दोनों गलबहियाँ दिए झरनों में उतर रहे हैं। फुहारों में भीग रहे हैं। हरी घाटियों में मृगछोने - सा छलागें भर रहे हैं । अब वहीं पुरानी जगह शिरीष वृक्ष के नीचे बैठा हैं। शिरीष के लम्बे - लम्बे गुच्छा के गुचछा दूधिया फूल कंधे पर झुक आए हैं। जेनी की वही मुस्कुान । दूसरा व्यक्ति भारी भरकम शरीर का अंधेड़ उम्र का और मैं काँच को फेंक देता हूँ। चट्टान पर वह तड़़क उठती है।
मुझे लग रहा हैं मैंने अपने इस शरीर को इस भभकती चट्टान पर कपड़ा - सा उतार दिया है। मन प्राण जैसे चाँदनी में घुल रहे हैं। मैं ऊँचे पर्वत , गहरी घाटियाँ पारकर रहा हूँ, झील की लहरों में डूबता - उतराता हूँ। मुक्त पवन में रंगै पँख खोले हौले - हौले उड़ रहा हूँ। मैं वहीं पहुँचते गया हूँ। कितना चमक रहा था । ओह कितना कुरूप है इसका असली चेहरा । इसकी छाती पर ज्वालामुखी का मुहाना है। जैसे मेरी छाती पर रिसता हुआ घाव । चन्द्रमा की इन्द्रजालिक दुनिया से लौट आया हूँ। अब मैं यहाँ वियावान में भटक सकता हूँ, लेकिन अब मुझे आफिस से सीधे घर जाना चाहिए था। यह महसूस करता हुआ दूर छोड़े हुए कपड़ो से लिपट अपने शरीर को देख रहा हूँ।
डाँ०बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन रायगढ़(छ.ग)
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सोमवार, 10 अक्टूबर 2016
जमीन
जमीन-
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लहुरमन छोटा सा किसान। उसका छोटा सा घर परिवार। पत्नी, सुबह से शाम तक काम में खँटने वाली, छरहरे बदन की सांवली फूलबासन । दो बच्चों की माँ होगी विश्वास नहीं होता। छोटे भाई का छोटा सा घर लेकिन आंगन एक,ऐसी सुमति। इस छोटे से सुखी- शान्त परिवार को तबाह कर देने के लिए गांव का पुराना मालगुजार बदनसिंग ने कमर कस ली है। बदनसिंग
माने सकल - कर्मी, शराबी, जुवाँड़ी, और अय्यास । लहुरमन को गुंड़ी में बुलवाकर उसने फैसला सुना दिया है -. " खेत का हक छोड़ो नहीं तो जान जायेगी "। इंकार करने पर उसने अपने लठैतों से पिटवाया और ललकारा -- यदि मर्द है तो कल धान काट कर बतला !
लहुरमन तीस बरिस का भरा पूरा जवान भारी बहंगर ! लठैतों की भीड़ चीरकर वह दौड़ता हुआ घर आया । शंका - कुशंकाओं से घिरी फूलबासन उसका रास्ता देख रही थी । लहुरमन को हथियार खोजते देखी तो वह मामला ताड़ गई, और उसके रास्ते में खड़ी हो गयी । भीतर का संकल लगा कर बोली --
" का करत हो, का होगे तुंहला, बइहा हो गया का ?"
" हाँ बइहा होगय हौं, मोर रस्ता छोड़ ! मैं मरिहौं, नइ तो मार डारिहौं !"अउ काला ! बदनसिंग ल "। बदनसिंग के आगे लहुरमन कुछ नहीं बोला , उसकी आँखे लाल थी। मन मसोस कर वह रह गया । फूलवासन ने उसे खींचकर खाट में बैठाया और समझाया - " रात म अकेल्ला जाना ठीक नोहय , काल देखबो, अभी खा पी के कलेचाप सुत जावा"
आधीरात हो चुकी थी ,पर दोनों की आंखों में नींद कहाँ ।लहुरमन झगड़ा बढ़ाना नहीं चाहता था, और न ही वह झगड़ालू स्वभाव का था , लेकिन बदनसिंग की ललकार उसे बेचैन किए देती थी। " यदि मर्द है तो कल धान काट कर बतला" लहुरमन को इज्जत जान से भी ज्यादा प्यारी है। वह सुबह का इंतजार करनेे लगा।
फूलवासन को भी रात भर नींद नहीं आई-- "कल का होही ! खात - पियत देखत हें त जात -सगा मन के घलोक छाती फाटत हे।ऊपर ले बदनसिंग के ललकार अउ इंकर मरे - कटे के टेंक ! का इंकर बिना मैं एको छिन जी पाहौं ? के , का , हमर बिना ए दूनों गेदा लइका मन जी पाहीं ? इससे भी ज्यादा दुःख , चिन्ता और गुस्सा ... लम्पट बदनसिंग के छेड़छाड़ की याद आते ही फूलवासन का सारा शरीर जलने लगा। वह अंधेरे में ही दांत पीसने लगी "। "नाश होवय ये दोखहा रावन के , हे सुरूज नरायन भगवान तैं तो सब देखत हस, मोर सत के साखी हस । तहीं सहाय हो, ए बड़खा संकट ले बचा।"
लहुरमन हड़बड़ा कर भिनसारे ही खाट से उठ बैठा। फरसा पकड़ा और फुर्ती से घर के बाहर हो गया। वह कब थाना पहुँचा और लौटा किसी को पता ही नहीं चला। वह मुंह अंधेरे ही नहाकर पूजा के लिए बैठ गया। कुल देवी का उसने अच्छी तरह से स्मरण किया। इसके बाद दही के साथ बासी खाया। हंसिया और फरसा रखकर बाहर निकलने को तैयार हो गया। पत्नी उसकी हर गति - विधि को देख रही थी। वह भी खाट से उठी हँसिया और डोरी पकड़ी और पति के पीछे चलने को तैयार हो गई। दोनों की बातचीत सुनकर छोटा भाई और दोनों बच्चे भी जग गये। माँ - बाप को देखकर बच्चे रोने लगे। छोटा भाई भी साथ जाने को तैयार था। लहुरमन ने उसे टोका - " तू घर में ही ठहर , यदि तू भी साथ चला जावेगा तो इन बच्चों को कौन देखेगा ? हमारे मरने के बाद इनकी गति कुत्ते - बिल्ली जैसी हो जावेगी।
बहुत सोच - विचार के बाद बच्चों को काकी के हिल्ले छोड़ के तीनों दम साधे बाहर खेत की ओर निकल पड़े ।
खेत की मेड़ पर पहुंचते ही, लहुरमन ने सचेत किया - " खेत की कटाई बीच से करना है। मेरे "हूँ' कहने पर तुम दोनों सीधे थाने की ओर दौड़ना।"
पूरब दिशा में लालिमा फैलने लगी। बाल सूर्य की किरणें देखते ही देखते फूट पड़ी। घास और धान की झुकी स्वर्ण बालियों में ओस कण झिलमिलाने लगे। तेजधार हंसिए भी चमकने लगे, खर्र खर्र आवाज के साथ लज्झ लज्झ बालियाँ कटनें लगी ।
थोड़ी ही देर बाद बदनसिंग बीस - पच्चीस लठैतों के साथ वहाँ पहुँचा। खेत चारों ओर से घिर गया। बदनसिंग मेढ़ पर खड़ा होकर ललकारने लगा - अरे नीच यदि जान प्यारी है तो खेत छोड़ कर भाग जा।यह मेरी अन्तिम चेतावनी है, नहीं तो बोटी बोटी कटवा दूंगा"। उधर से लहुरमन की हुंकार - मेरा खेत है।यह मेरी माँ है जान रहे या जाय , रन नहीं छोडूगाँ।"
बदनसिंग उघ्दत सा चिल्लाया-- " जोरू जमीन जोर का, सुना नहीं है क्या रे ?
लहुरमन भी गरजा " असली वीर है तो मैदान में उतरता क्यों नहीं ? मुंह चलाने से क्या होता है ?
इतना सुनते ही बदनसिंग के बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई। लहुरमन अपने मजबूत किले मेें निर्भय और ताकतवर था। धान के सघन और पके पौधे शहतीर से खड़े थे।
लठैतों का मुखिया अब सामने आया। ननकू और लहुरमन बचपन के दोस्त , कभी किसी बात को लेकर कहा सुनी हो गयी , फिर दोनों अलग थलग एक मेहनत करके कमिया से किसान बन गया दूसरा माँ - बाप के बिना मवाली , गुण्डा ..... शहर की फिल्मी हवा उसे लग चुकी थी। देहातों में उसके नाम का खौफ था । दोनों की आँखे चार हुई, चिनगारियाँ छूटीं। ननकू देर तक ठहर नहीं सका, उसकी आँखे नीचे हो गई। लहुरमन की आँखे छलछला उठीं भर्राए कंठ से बोला-- " भैया मैं तो रण में भाई के साथ खड़ा हूँ। तुम्हारी फौज के सामने कितनी देर टिकूंगा , फिर भी रण नहीं छोड़ूगा जीते जी क्योकि इस आदमी का पुराना कर्ज भी चुकाना है ? वो देख , मैंने मेढ़ पर चूल्हा लकड़ी और हांड़ी रख दी है। माचिस भी है।" सचमुच खाने पकाने का सामान देख कर ननकू को अचरज हुआ, इसका रहस्य उसकी समझ में नहीं आया तो पूछा -- " यह सब किस लिए"।
इसलिए कि यदि मैं मारा जाऊं तो मेरा कलेजा निकाल कर अपने इस मालिक को खिला देना, ताकि इसका पेट भर जाय और मेरी इज्जत से खेल सके। बहुत दिनों से इसकी नजर फूलवासन पर है। झगड़ा की जड़ यही है।
मन मुटाव के बाद भी ननकू के हृदय के किसी कोने में फूलवासन के लिए थोड़ी जगह अब भी बाकी थी। वह उसे भाई बहु मानकर "डहर" छोड़ देता था। वह भी जेठ को देखकर सिर ढाँक लेती थी। लहुरमन की मर्म भेदी वाण ननकू को आहत किये देते थे। वह बोला -" अच्छा लहुरमन यहाँ आ "।
उसकी बातें सुनकर भाई - भौजाई लहुरमन को इशारे से रोकने लगे।
ननकू ने विश्वास दिलाते हुए कहा - "डर मत मेरे रहते तेरा बाल भी बांका नहीं होगा"
वे दोनों भाई फरसा और टांगी से लैश मेढ़ पर आए । सिर ढांककर हँसिया रखी फूलवासन भी आकर पीछे खड़ी हो गयी।
अब बदनसिंग उनके ऊपर कुटिल मुस्कुान फेंकने लगा और विजयगर्व से लठैतों को हुंमकाने लगा। कोई आगे बढ़ता कि ननकू की एक ही घुड़की से सबकी सिट्टी - पिट्टी गुम हो गई। ननकू के बदले हुए तेवर से बदनसिंग को बुखार चड़ गया। ननकू प्रेम से समझाने लगा - " देख भाई लहुरमन , यह जमीन बदनसिंग की है, इसे छोड़ दे, मालिक से रार क्यों लेता है।"
लहुरमन सम्हल कर बोला - " भैया यह जमीन मैंने बड़े गौटिया से खरीदी है, तब यह भरी - भांठा था। हम लोगों ने पसीने से सींच सीच कर इसे खेत बनाया है। यदि बड़े गौटिया खेत बेचने की बात से इंकार कर दें तो मैं अपना कब्जा आज ही छोड़ने को तैयार हूँ.......
इसी समय बड़े गौटिया हपटते - गिरते बदनसिंग को पुकारते इधर ही आते दिखाई दिए। उनके पहुँचते ही ननकू ने व्यंग किया - " बड़े गौंटिया गांव को क्यो लड़ा रहे हो ? बड़े गौंटिया के उत्तर सुनकर सभी दंग रह गए - " यह जमीन लहुरमन की है। एक जोड़ी भैंसा और पाॉच हजार रूपये देकर इसने खरीदी है, तब यह भर्री - भांठा था। मैंने बदन को खाता दिखा दिया है और बार बार समझाया भी है, तुम गांव वालों से मत लड़ो। अनीति मत करो, पर यह अपनी जिद में अड़ा है। अब तुम लोग इसे समझाओ।"
बदनसिंग गरजा - " तो क्या रजिस्टी करा दिए हो, इसका पैसा फेंक दो "।
"रजिस्टी की क्या कीमत ! कीमत होती है जुबान की, रहा पैसा वापस करने की बात उसका सवाल ही नहीं उठता ! मैंने जब यह जमीन बेची तब तुमने उजर क्यो नहीं किया ?
बदनसिंग उत्तेजित हो बकने लगा _" अरे असली बात क्यों नहीं बतलाते "। फूलवासन की ओर उंगली दिखाकर बोला _" यह इसकी रखेल है। इसी एवज में यह जमीन है"।
इतना सुनते ही फूलवासन आग हो गयी बघनीन सा झपट्टा मारती हुई चिल्लायी - " हत रे छुतहा , दोखहा , पापी । सेत - मेंत म मोर मांस ल बेचत हस। तोला थोरको लाज - शरम नइए।" हँसिया से वार करती हुई होली - ले तोला आज जीयत नई छोड़वँ।"
हँसिए की वार से बचने के लिए बदनसिंग पलक झपकते पीछे हट गया । तब भी फूलवासन लठैतों के बीच घुस पड़ी,भगदड़ मच गई। लहुरमन और उसका भाई उसे मुश्किल से काबू मैे कर सके , तब भी वह लहुरमन की मजबूत बाहों में छटपटाने लगी और हँसिया अपनी ही गर्दन तक ले गयी। देवर ने हँसिया छिनने में रंचमात्र देरी की होती , तो अनर्थ हो जाता।
अब असहाय फूलवासन फफक फफक कर रोती हुई चिल्लाने लगी - " अब कोन मुंह लेके जीहूँ , ए पापी रावन हर मोर जिनगी म दाग लगा दिस । " लहुरमन का कलेजा छलनी हो रहा था, बोला - " कुक्कुर के भूँके ले का होही का मैं तोला नई जानत हौं।"
बड़े भाई के ऊपर बदनसिंग के इलजाम का उल्टा असर हुआ। गाँव में वे देवता जैसे पूजेे जाते थेे। छोटे बड़े सब उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे। छोटे भाई की घृणित और अपमान जनक बातें सुनकर वे असह:य वेदना से भर गए। सांस रूकने जैसी हो गयी। आँखे भर गयीं, वे सिर झुकाए गाँव की ओर लौट गए। अब पासा पलट चुका था। ननकू अब रोसिया गया बदनसिंग से बोला -" क्यों छोटे मालिक आप हमसे झूठ क्यों बोले ?"
बदनसिंग को कोई उत्तर नहीं सूझता था। अब झूठ ही सहारा था, बोला-- जमीन मेरी थी, भाई साहब ने पटवारी से मिलकर अपने नाम करा लिया होगा। मुझे पता नहीं। " अच्छा ! पता नहीं । लेकिन अब तो साफ हो गया कि बड़े गौंटिया ने इस जमीन को लहुरमन के पास बेची है।"
" तो क्या कोई किसी की जमीन को बेच सकता है ?
हकलाते हुए बदनसिंग बोला।"
" जमीन आपकी है या बड़े गौंटिया की इसका फैसला तो अदालत में होगा "
" फैसला तो अभी हो़गा ननकू ! मारो इस साले को"
" तो कान खोलकर सुन लो। हम बिना कुसुर के किसी के ऊपर हाथ नहीं उठाते ? अपना दारू वारू अपने पास रखो। हमारा कहा मानो और वापस चलो।"
" मैं ऐसे ही वापस होने नहीं आया हूँ , और न तुम लोगों के ऊपर हराम का पैसा खर्च कर रहा हूँ। यह खेत कैसे काटेगा देखता हूँ"। फिर दोनों भाइयों को ललकारता हुआ बोला - " खेत में उतरकर देखो लाश गिरा दूँगा।
अब ननकू को भी गुस्सा आया बोला - " हाँ तो , तुम निपटो ! हम चलते हैं, चलो रे" । उसका आदेश सुनकर लठैत एक एक करके वहाँ से कब खिसके बदनसिंग को पता ही नहीं चला क्योकि उसका सारा ध्यान लहुरमन की ओर था।
बदनसिंग के ऊपर काल मंडरा रहा था। उसने गाली देना शुरू किया । उसकी यह ललकार बरदाशत के बाहर हो गयी -" मरद है तो सामने आ " ।
वह फरसा लेकर दौड़ा। बदनसिंग चिल्लाने लगा ! देखो यह नीच भागने न पाए.......पर वहाँ तो उसका एक भी लठैत सामने नहीं आया। अगल बगल देखा। अपने को अकेला पाकर वह घबराया , बुरी तरह कांपने और भागने लगा। लेकिन बाघ के पंजे से भागकर कहाँ जाता । लात की एक ही ढोकर से वह गेंद की तरह लुढ़कने लगा। आँखे घूमने लगी - धरती घूमती नजर आई।
लहुरमन तनकर खड़ा हो गया, चिल्लाने के साथ उसका फरसा पूरे जोर से उठा , इसके पहले कि सिर धड़ से अलग हो, फूलवासन ने पूरी ताकत से उसका बेंठ बीच में ही रोक लिया । फरसा का एक कोना उसके कंधे पर पड़ा और खून का पिचक्का छूट पड़ा । इसके बाद भी वह अपनी जान की परवाह न कर मैदान में डँटी रही । बदनसिंग उठकर भागने की कोशिश में था कि लहुरमन का दुबारा उठा फरसा फूलवासन की कसम देने पर हवा में लहराकर दूर छिटक गया। शेरनी जैसी फूलवासन हाथ जोड़े , प्राणों की भींख माँगते बदनसिंग को देखकर दया और क्षमा की मूर्ति बन गयी। उसकी हृदय - विदारक वाणी वातावरण में गूंज उठी - " जान देवा ए पापी ल, एला मारके हाथ झन गंधावा। हत्या के पाप अपन मूंड ऊपर झन लेवा। फेर लहुट के एहर अब कभू खेत ल नई देख सकै।"
फूलवासन मेहनती थी हिम्मती थी, पति को प्यारी थी, लेकिन इन सबसे भी ज्यादा वह समझदार थी। उसने जघन्य हत्या करने से अपने पति को बचा लिया ।
डाँ०बलदेव
श्रीशारदा साहित्य सदन,रायगढ़(छ.ग)
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