रविवार, 10 सितंबर 2017

पं.मुकुटधर पांडेय लेखक डाँ. बलदेव

पं. मुकुटधर पांडेय ----------------------- डाँ. बलदेव पं. मुकुटधर पांडेय का.जन्म 30 सितंबर सन् 1895 को बिलासपुर जिले बालपुर ग्राम में हुआ था। किंशुक-कानन-आवेष्टित चित्रोत्पला के तट - प्रदेश में बसा यह गाँव रायगढ़ - सारंगढ़ मार्ग पर चन्द्रपुर (जमींदारी) की पूर्व में स्थित है। और महानदी के पुल या किसी टीले से घनी अमराइयों से झाकता हुआ दिखाई देता है। सूर्यास्त के समय यहाँ की छटा निराली होती है। एक बालक पत्रिकाओं को उलट-पुलट कर देख रहा है, किस पन्ने में किन चित्रों के साथ भैया की कविता छपी है। उधर ममतामयी मां देवहुती रसोई से टेर लगा रही है..... इसी वातावरण में लुका-छिपी ... तुकबंदी होने लगती है। पितृशोक से वह और भी प्रबल हो जाती है। खेल ही खेल में ढेर-सी कविताएं रजत और स्वर्ण-पदकों की उद्घोषणा के साथ 'हितकारिणी', 'इन्दु', 'स्वदेश-बान्धव', आर्य महिला', 'सरस्वती', -जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपने लगती है। देखते ही देखते सन् 1916 में मुरली मुकुटधर पाण्डेय के नाम से इटावा के ब्रह्म प्रेस से सज-धज के साथ "पूजाफूल" का प्रकाशन होता है। उसी वर्ष प्रयाग विश्वविद्यालय से किशोर कवि प्रवेशिका में उत्तीर्ण भी हो जाता है। प्रयाग के क्रिश्चियन काँलेज में प्रवेश के साथ ही बचपन जैसे दूर-बहुत दूर छूटने लगता है.... कवि अधीर हो कर पुकार उठता है- बालकाल! तू मुझसे ऐसी आज विदा क्यों लेता है। मेरे इस सुखमय जीवन को दुःख भय से भर देता है। इलाहाबाद में रहते हुए दो-तीन माह मजे में गुजरे, फिर वहां से एक दिन अचानक ही टेलिग्राम और फिर सदा के लिए काँलेज का रास्ता बंद। बालपुर में पिताश्री व्दारा स्थापित विद्यालय में अध्ययन.... बाकी समय में हिन्दी, अँग्रेजी, बँगला और उड़िया साहित्य का गम्भीर अध्ययन, अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। अब उनका ध्यान गाँव के काम करने वाले गरीब किसानों की ओर गया। उन्होंने श्रम की महिमा गाईः- छोड़ जन-संकुल नगर निवास किया क्यों विजन ग्राम में गेह नहीं प्रासादों की कुछ चाह कुटीरों से क्या इतना नेह फिर तो मानवीय करुणा का विस्तार होता ही गया और वह करुणा पशु-पंक्षियों और प्रकृति में भी प्रतिबिंबित होने लगी...... कुछ कुछ अँग्रेजी रोमांटिसिज्म की शुरुआत-जैसी। हिन्दी काव्य में एक नई ताज़गी पैदा हुई। स्थूल की जगह सूक्ष्म ने ली। व्दिवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता फीकी पड़ने लगी। प्रेम और सौंदर्य का एक नया ताना-बाना बुना जाने लगा, जिसमें वैयक्तिक रागानुभूति के साथ ही रहस्यात्मक प्रवृतियां बढ़ने लगीं और पद्यात्मकता की जगह प्रगीतात्मकता प्रमुख होती गई। इसी धारा पर मैथिली शरण गुप्त, ब्रदीनाथ भट्ट, और जयशंकर प्रसाद भी अग्रसर हो रहे थे। इस समय तो पांडेय जी प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण हो उठे। इतना ही नहीं, "सरस्वती" की फ्री लिस्ट में उनका नाम दर्ज हो गया। पहले तो उन्होंने विशुद्ध मानवीय प्रेम का गीत गायाः- हुआ प्रथम जब उसका दर्शन गया हाथ से निकल तभी मन फिर यह पार्थिव प्रेम अपार्थिव प्रेम में बदल गयाः- देखेंगे नक्षत्रों में जा उनका दिव्य प्रकाश किसकी नेत्र ज्योति है अद्भुत किसके मुख का हास "कुटिल केश-चुंबित मुखमंडल का हास" कवि के मलिन लोचनों में.सदा के लिए दिव्य प्रकाश बन गया। लेकिन यह अलौकिक सत्ता निवृत्तिमूलक नहीं प्रवृत्तिमूलक है। इसीलिए कवि उसे स्पष्ट भी कर देता है :- हुआ प्रकाश तमोमय जग में मिला मुझे तू तत्क्षण जग में तेरा बोध हुआ पग पग में खुला रहस्य महान साहित्य - संसार में युवा कवि मुकुटधर पांडेय का जीवन आनंद से बीत रहा था- कि एक दिन इधी रात किसी पक्षी के करुण विलाप से वें नींद से जाग उठे, करुणा से उनके हृदय के तार झनझना उठे। उन्होंने कविता लिखी -"कुररी के प्रति'।तब क्या उन्हें मालूम था कि छायावादी कविता आप से आप लिख जाती है। अकेली इस अमर रचना से छायावाद की भूमि निर्दिष्ट हो जाती है। अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप? ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप? किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग और तब तक स्वच्छन्दावादी काव्यधारा आवेग में आ चुकी थी। समस्या उठी नामकरण की, पुराने आचार्य उसे मान्यता देना नहीं चाहते थे। नई कविता उनकी समझ में आती नहीं थी। तब इस नूतन पध्दति पर चलने वाली कविता पर चर्चाएँ होने लगीं। पं. मुकुटधर पांडेय ने सर्वप्रथम अपनी तर्कपूर्ण शैली में इस कविता-धारा को "छायावाद" नाम दिया। स्पष्ट विवेचना के कारण यह नाम सभी को उपयुक्त जान पड़ा। फिर शीध्र ही "छायावाद"नाम प्रचार में आ गया। लोगों ने उसे जितना ही दबाने का प्रयत्न किया, उतना ही वह उभरने लगा। "श्रीशारदा" में प्रकाशित उनके चार निबन्धों की यह लेखमाला हिन्दी साहित्य की अनुपम धरोहर है। युग -प्रर्वतक के साथ ही सब कुछ धुँधलाने लगा और पीड़ा से कवि का मुखर उद्गार अवरुध्द सा हो गया। एक लम्बे मौन के बाद .....मध्याह्न में बादलों में छिपा मार्तण्ड अपनी मोहक मुस्कान से पश्चिम की ओर एक बार फिर झाँकने लगा। अखबारों में उ.प्र. "हिन्दी संस्थान" व्दारा प्रकाशित सम्मानित साहित्यकारों की सूची में वयोवृद्ध साहित्यकार मुकुटधर पांडेय का नाम देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। अपनी प्रसन्नता न रोक पाने के कारण मैं उनके पास तुरन्त पहुंचता हूँ। बधाई देने पर वे क्षण भर कुछ चकित-से होते हैं, फिर मुस्कुरा कर पूछते हैं- मैं संकोच मिश्रित हर्ष से कहता हूँ, "तीन अन्य साहित्यकार जगन्नाथ मिलिन्द, सोहनलाल व्दिवेदी, आदि प्रसिद्ध कवियों के सहित हिन्दी संस्थान लखनऊ आपको सम्मानित करने जा रहा है, तो वे कुछ संकोच में पड़ जाते हैं। पांडेय जी जितने सरल और निश्छल थे, उतने ही संकोची। इस सम्मान में उक्त प्रत्येक साहित्यकार को पन्द्रह हजार की राशि भेंट की गई थी। मुकुटधर पाण्डेय की अब तक प्रकाशित कृतियाँ इस प्रकार हैं :- 1- पूजाफूल, 1916, ब्रह्म प्रेस,इटावा 2- हृदयदान(कहानी-संग्रह) , 1918, गल्पमाला,बनारस 3- परिश्रम(निबंध-संग्रह) , 1917, हरिदास एवं कम्पनी, कलकत्ता। 4- लच्छमा (अनुदित उपन्यास), 1917 , हरिदास एण्ड कम्पनी, कलकत्ता 5- शैलबाला, 1916 6- मामा, 1924, रिखवदास वाहिनी एण्ड कम्पनी, कलकत्ता। 7- छायावाद एवं अन्य निबंध, 1979, म.प्र. हि. सा. सम्मेलन, भोपाल 8- स्मृति-पुंज , 1983, तिरुपति प्रकाशन, हापुड़ 9- विश्वबोध (काव्य-संग्रह) 1984, श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़ 10- छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध, 1984, श्रीशारदा साहित्य सदन, रायगढ़ 11-मेघदूत1984 छत्तीसगढ़ लेखक संघ, रायगढ़ मुकुटधर पाण्डेय उन यशस्वी साहित्यकारों में हैं , जो दो चार रचनाओं से ही अमर हो जाते हैं। एक बार आचार्य महावीर प्रसाद व्दिवेदी ने उन्हें लिखा था "आप वर्ष में कोई तीन रचनाएँ भेज दिया करें। उनकी सीख , कम लिखिए पर अच्छा लिखने की कोशिश कीजिए। दो चार कविताएं लिखकर ही आदमी अमर हो सकता है और यों बहुत लिखने पर सौ-पचास वर्षों के बाद लोग नाम तक याद नहीं रखते", ये वाक्य उनके लिए गुरुमंत्र सिध्द हुए। हिंदी में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, सरदार पूर्णासिंह और पण्डित मुकुटधर पांडेय ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिन्हें लोग उनकी दो-चार रचनाओं पर ही वर्षों से ससम्मान स्मरण करते आ रहे हैं और करते रहेंगे। काल की बेला ने मनीषी पं. मुकुटधर पांडेय को 6 नवंबर 1989 को हमसे छीन लिया। कुररी के प्रति ............................ बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात निद्रा में जा पड़े कवि के ग्राम -मनुज स्वच्छंद अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते है सानन्द इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात पिछड़ा था तू कहाँ , हुई क्यों तुझको इतनी रात? देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल? क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीँ था भूल? क्या उसकी सौंदर्य-सुरा से उठा हृदय तब ऊब? या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब? या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल? किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल? अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप? किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग? शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप? बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप? यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद? या तुझको निज-जन्म भूमि की सता रही है याद? विमल ब्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद? नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद? कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास वहाँ कौन नक्षत्र - वृन्द करता आलोक प्रदान? गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान? कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास? **** *** कुररी के प्रति ............................ विहग विदेशी मिला आज तू बहुत दिनों के बाद तुझे देखकर फिर अतीत की आई मुझको याद किंशुक-कानन-आवेष्टित वह महानदी-तट देश सरस इक्षु के दण्ड, धान की नव मंजरी विशेष चट्टानों पर जल-धारा की कलकल ध्वनि अविराम, विजन बालुका-राशि , जहाँ तू करता था विश्राम चक्रवाक दंपत्ति की पल पल कैसी विकल पुकार कारण्डव-रव कहीं कहीं कलहंस वंश उद्गार कठिनाई से जिसे भूल पाया था हृदय अधीर आज उसी की स्मृति उभरी क्यों अन्तस्तल को चीर? किया न तूने बतलाने का अब तक कभी प्रयास किस सीमा के पार रुचिर है तेरा चिर-आवास सुना, स्वर्णमय भूमि वहाँ की मणिमय है आकाश वहाँ न तम का नाम कहीं है, रहता सदा प्रकाश भटक रहा तू दूर देश में कैसे यों बेहाल? क्या अदृष्ट की विडंबना को सकता कोई टाल अथवा तुझको दिया किसी ने निर्वासन का दण्ड? बता अवधि उसकी क्या , या वह निरवधि और अखण्ड? ऐसा क्या अक्षम्य किया तूने अपराध अमाप? कथ्य रहित यह रुदन , तथ्य का अथवा है अप्रलाप? या अभिचार हुआ कुछ, तुझ पर या कि किसी का शाप? प्रकट हुआ यह या तेरे प्राक्तन का पाप-कलाप? कोई सुने न सुने , सुनता कुछ अपने ही आप, अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप? शरद सरोरुह खिले सरों में, फूले वन में कास सुनकर तेरा रुदन हास मिस करते वे परिहास। क्रौंच, कपोत, कीर करते हैं उपवन में अलाप सुनने को अवकाश किसे है तेरा करुण - विलाप? जिसे दूर करने का संभव कोई नहीं उपाय, निःसहाय , निरुपाय उसे तो सहना ही है हाय! दुःख -भूल , इस दुःख की स्मृति को कर दे तू निर्मूल, पर जो नहीं भूलने का है , सकता कैसे भूल? मंडराता तू नभो देश में, अपने पंख पसार, मन में तेरे मंडराते हैं, रह रह कौन विचार? जिसके पीछे दौड़ रहा तू, अनुदिन आत्म-विभोर जाने वह कैसी छलना है, उसका ओर न छोर ठिठक पड़ा तू देख ठगा सा सांध्य क्षितिज का राग जगा चुका वह कभी किसी के भग्न हृदय में आग परदेशी पक्षी , चिंता की धारा को दे मोड़ अंतर की पीड़ा को दे अब अन्तर-तर से जोड़। प्रियतम को पहचान उसे कर अपर्ण तन-मन-प्राण उसके चरणों में हो तेरे क्रन्दन का अवसान। सुना, उसे तू अपने. पीड़ित -व्यक्ति हृदय का हाल भटक रहा तू दूर देश में, क्यों ऐसा बेहाल? *** *** (छायावाद और पं. मुकुटधर पांडेय लेखक डाँ०बलदेव) (कुररी के प्रति :- " विश्वबोध " काव्य संग्रह से संपादक:- डाँ०बलदेव, श्रीशारदा साहित्य सदन,स्टेडियम के पीछे, श्रीराम काँलोनी, रायगढ़, छ.ग, मो.नं. 9039011458) -- फास्ट Notepad से भेजा गया

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

मुकुटधर पांडेय :- लेख

छायावाद के प्रर्वतक पं. मुकुटधर पांडेयः - ----------------------------------------------- (विश्वबोध कविता संग्रह से, संपादक -डाँ०बलदेव) प्रकाशकीय:- युग प्रवर्तक कवि पं. मुकुटधर पांडेय की श्रेष्ठ और विलुप्त प्राय रचनाओं को प्रथम बार पुस्तकाकार प्रकाशित करते हुए हमें आपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। पांडेय जी के नाम पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से जिज्ञासा भरे पत्र आते रहे हैं। जिनमें हिन्दी के समर्थ आलोचकों से लेकर सामान्य पाठकों तक ने उनकी रचनाओं को पढ़ने की बार बार इच्छा प्रकट की है। हिन्दी के अनेक शोधकर्ताओं को भी उनकी प्रमाणित सामग्री के अभाव में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। इस अभाव को पूर्ण करने की दृष्टि से सीमित साधनों के बीच यह छोटा सा प्रयास है। ये कविताएं व्दिवेदी युग और छायावाद युग की कविताओं के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। इनसे खड़ी बोली काव्य धारा के इतिहास को समझने में मदद मिलेगी। आशा ही नहीं हमें पूर्ण विश्वास है हिन्दी संसार इस कविता-संग्रह का स्वागत करेगा। हम पांडेय जी के ऋणी हैं जिन्होंने कृपा पूर्वक हमें यह सुन्दर अवसर प्रदान किया। बसन्त राघव 1983 श्रीराम दो शब्द ये कविताएं अधिकांश व्दिवेदी युग की उपज हैं। कविता के क्षेत्र में खड़ी बोली अपने पैर जमा चुकी थी। ब्रजभाषा के पूर्ण कवि, हरिऔध आदि जो दो चार समर्थ कवि थे। नवयुवकों में मैथिलीशरण गुप्त, लोचन प्रसाद पाण्डेय (मेरे अग्रज), आदि प्रासादिक शैली में राष्ट्रीय और आख्यानक कविताएं लिख रहे थे। हमारे घर के लघु पुस्तक-संग्रह में बंगला और ओड़िया के सामयिक काव्य साहित्य -मधुसूदन दत्त, हेमचन्द्र और राधानाथ की ग्रंथावलियों का प्रवेश हो चुका था। तब पूर्व में रव्युदय नहीं हुआ था, पर शीध्र ही रवीन्द्र नाथ और उनके समानांतर व्दिजेन्द्रनाथ राय भी पहुँच गए थे। इन सबका एक मिला जुला प्रभाव मुझ पर पड़ा था। तत्कालीन मासिक पत्र-पत्रिकाओं में मेरी छोटी - छोटी कविताएँ छपा करती थीं, पर 'पूजा फूल"के बाद उनका कोई संग्रह नहीं हो पाया था और वे इधर दुष्प्राप्य भी हो रही थी। डाँ० बलदेव के प्रयत्न से उनका जो संग्रह प्रस्तुत किया जा रहा है, वही इस पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके प्रकाशन का सम्पूर्ण श्रेय उन्हीं को है, जिसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। मुकुटधर पाण्डेय रायगढ़, मकर संक्रांति, सं २०४० वि **. ** पं. मुकुटधर पांडेय का जन्म सन् 1895 ई० को बिलासपुर जिले के बालपुर ग्राम में हुआ था। किंशुक-कानन आवेष्टित चित्रोत्पला के तट - प्रदेश में बसा गांव रायगढ़-सारंगढ़ मार्ग पर चन्द्रपुर (जमींदारी) की पूर्व दिशा में स्थित हैं और महानदी के पुल या किसी टीले से घनी अमराइयों से झांकता दिखाई देता है। सूर्योदय हो या सूर्यास्त दोनों ही समय यहाँ की छटा निराली होती है। अपने अच्छे दिनों में चाहे ग्रीष्म हो, चाहे भरी बरसात, सर्द हवाओं के दिन , अंधेरी रात हो या उजेली, उसकी श्री सुषमा में कहीं कोई अन्तर नहीं पड़ता, खेत धान की नवमंजरियों से भरे हों या तीसी के नीले उजले फूलों से। मेंड़ों पर निहारिकाओं से विमल प्रकाश फेंकते दूर्वादल हों या सरस इक्षु के दण्ड वाले खेत या वातावरण में भूख को बढ़ाती हुई औंटते रसों से छनकर आती हुई गुड़ की गंध, ये रंगरूप , ये गंध ध्वनियाँ आज भी पाण्डेय जी के किशोर मन को ललचाते हैं। पांडेय जी की कविताओं में बाग - बागीचों और पलाशवन से घिरा छोटा सा गाँव बालपुर अपने अतीत की स्मृतियों में खो जाता है। महानदी के सुरम्य तट पर मंजरित आम्रतरुओं में छिपकर गाती हुई कोयल, अंगारे से दहकते ठंडे पलाशवन, नदी के सुनील मणिमय आकाश में उड़ते कल -हंसों की पांत.....लहरों पर दूर तक जाती उनकी परछाइयां..... जल पंखियाँ का शोर, चक्रवाक दम्पति की प्रतिफल विकल पुकार, कारण्डवों का कल-कूंजन-चट्टानों पर जलधारा की अविराम कल-कल ध्वनि और दूर दूर तक विजन बालुकाओं का विस्तार , नौका बिहार करते.... फिरते अंधेरे के झुरमुट में जगमगाते जुगनुओं के बीच से गुजरते कवि का मन जब घर लौटता तो आंगन में उतर आई चांदनी में पुनः खो जाता.... न भूख न प्यास ... तब कवि की सुकुमार कल्पना एक अज्ञात रहस्य की ओर इंगित करती.... कच्चे धागे से वह कौन-सा पट बुनती यह भावानुभूति की चीज है। समूचा परिवार साहित्य साधना में आकंठ डूबा हुआ। पं. लोचन प्रसाद पांडेय की रचनाओं का सुलेख करते, आगन्तुक कवियों और सन्यासियों का गीत-संगीत सुनते, पार्वती लायब्रेरी में अध्ययन करते या रहंस बेड़ा में अभिनय करते, कवि मुकुटधर पांडेय का बचपन लुकाछिपी में कविता रचते बीत जाता है। पितृशोक से रचना कर्म गतिशील हो उठता है। चौदह वर्ष की उम्र में पहली कविता "स्वदेश बान्धव" में प्रकाशित होती है। खेल ही खेल में ढेर-सी कविताएँ रजत और स्वर्ण पदकों की उद्घोषणा के साथ हितकारिणी, इन्दु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत तथा सरस्वती जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर छपने लगती हैं। देखते ही देखते सन् 1916 में सन् 1909 से 15 तक की कविताएं मुरली-मुकुटधर पाण्डेय के नाम से इटावा के ब्रह्म-प्रेस से सज-धज के साथ "पूजा फूल'" शीर्षक से प्रकाशित होती है। उसी वर्ष किशोर कवि प्रवेशिका में प्रयाग विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण भी हो जाता है। बालपुर और रायगढ़ कुछ दिनों के लिए छूट-सा जाता है-- कवि अधीर हो पुकार उठता है-- "बालकाल तू मुझसे ऐसी आज बिदा क्यों लेता है, मेरे इस सुखमय जीवन को दुःखमय से भर देता है।" इलाहाबाद में रहते हुए दो तीन माह मजे में गुजरे, फिर वहाँ से एक दिन अचानक ही टेलिग्राम.... और तीसरे दिन अस्वस्थता की हालत में रायगढ़। यहाँ महामारी फैली हुई है। पूज्याग्रज पं० लोचन प्रसाद पांडेय ने जीप की व्यवस्था कर दी है। शाम होते-होते घर लौट आते हैं। फिर सदा के लिए काँलेज का रास्ता बन्द। वहीं बालपुर में पिता श्री व्दारा स्थापित विद्यालय में अध्ययन/ बाकी समय हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला और उड़ीया साहित्य के गंभीर अध्ययन, अनुवाद और स्वतंत्र लेखन में।अब उनका ध्यान गाँव के काम करने वाले गरीब किसानों की ओर गया। उन्होंने श्रम की महिमा गायी। "छोड़ जन-संकुल नगर निवास किया. क्यों विजन ग्राम में गेह , नहीं प्रसादों की कुछ चाह - कुटीरों से क्यों इतना नेह । फिर तो मानवीय करुणा का विस्तार होता ही गया और वह करुणा पशु-पंक्षियों और प्रकृति में भी प्रतिबिंबित होने लगी..... कुछ कुछ रोमाटिज्म की शुरूआत जैसी। हिन्दी काव्य में एक नई ताजगी पैदा हुई। स्थूल की जगह सूक्ष्म ने लिया, व्दिवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता फीकी पड़ने लगी। प्रेम और सौंदर्य का नया ताना-बाना बुना जाने लगा, जिसमें वैयक्तिक रागानुभूति के साथ ही रहस्यात्मक प्रवृत्तियां बढ़ने लगी और पद्यात्मकता की जगह प्रगीतात्मकता प्रमुख होती गयी। इस धारा पर मैथिली शरण गुप्त, बद्रीनाथ भट्ट और जय शंकर प्रसाद भी अग्रसित हो रहे थे। इस समय पांडेय जी प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं के लिए महत्वपूर्ण हो उठे। हितकारिणी के सम्पादक श्री नर्मदा मिश्र ने 5/10/1913 को एक पत्र लिखा था, जिसका एक अंश यहाँ उद्धृत है। - "आपकी एक कविता इस अंक में छप रही है। कृप्या दूसरी कोई अच्छी-सी कविता भेजियेगा। कृतज्ञ होउंगा। मेरी दृढ़ इच्छा रहती है कि प्रत्येक अंक में आपकी एक न एक लेख अवश्य रहे, पर यह आपकी कृपा और इच्छा के अधीन है। " इतना ही नहीं "सरस्वती" की फ्रि लिस्ट में उनका नाम दर्ज हो गया। "किसान"जैसी कविता के लिए सम्पादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा था-" ऐसी कोई चीज बन जाय तो रजिस्टर्ड डाक से सीधे "विशाल भारत" को भेजने की कृपा करेंगे।" "पूजा फूल" के प्रकाशन के बाद पहले-पहल तो उन्होंने विशुद्ध मानवीय प्रेम का गीत गाया:- हुआ प्रथम जब उसका दर्शन गया हाथ से निकल तभी मन। फिर यह पार्थिव प्रेम अपार्थिव प्रेम में बदल गया-:- "देखेंगे नक्षत्रों में जा उनका दिव्य प्रकाश, किसकी नेत्र ज्योति है अद्भुत किसके मुख का हास।" "कुटिल-केश चुंबित मुख मंडल का हास" कवि के मलिन लोचनों में सदा के लिए दिव्य प्रकाश बन गया। लेकिन यह अलौकिक सत्ता निवृत्ति मूलक नहीं, प्रवृत्ति मूलक है। इसीलिए कवि उसे स्पष्ट भी कर देता है:- हुआ प्रकाश तमोमय जग में मिला मुझे तू तत्क्षण जग में तेरा बोध हुआ पग पग में खुला रहस्य महान। कविता लेखन के साथ ही गद्य लेखन भी समान गति से चल रहा था। इस बीच एक घटना घटी, उनके किसी मित्र ने ऐसी भंग खिलाई कि उसकी खुमारी आज भी दिलों-दिमाग को बैचेन कर बैठती है। जन्म कुंडली में किसी उत्कली ज्योतिषी ने चित्त विभ्रम और हिन्दी -भाषी ज्योतिषी ने 'चित्तक्षत' लिखा था। यह घटना 1918 की है जो सन् 1923 में चरम सीमा में पहुंच गयी। मानसिक अशान्ति से साहित्य - साधना एकदम से छिन्न-भिन्न हो गई। शोध-प्रबन्धों ने गलत - सलत बातें लिखीं। कतिपय सज्जनों ने उन आलोचकों को मुह-तोड़ जवाब भी दिया, लेकिन कवि ने उन्हें क्षमा कर दिया। "बात यह थी कि सन् 1923 के लगभग मुझे एक मानसिक रोग हुआ था। मेरी साहित्यिक साधना छिन्न भिन्न हो गयी, तब किसी ने मुझे स्वर्गीय मान लिया हो तो वह एक प्रकार से ठीक ही था। वह मुझ पर दैवी प्रकोप था, कोई देव - गुरु - शाप या कोई अभिचार था। यह मेरे जीवन का अभी तक एक रहस्य ही बना हुआ है।" पांडेय जी ने मानसिक अशान्ति के इन्हीं क्षणों में "कविता "और "छायावाद" जैसे युगांतरकारी लेख और "कुररी के प्रति" जैसे अमर रचनाएँ लिखीं। पंडित मुकुटधर पांडेय संक्रमण काल के सबसे अधिक सामथ्यर्वान कवि हैं। वे व्दिवेदी युग और छायावाद युग के बीच की ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी हैं जिनकी काव्य-यात्रा को समझे बिना खड़ीबोली के दूसरे-तीसरे दशक तक के विकास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता, उन्होंने व्दिवेदी-युग के शुष्क उद्यान में नूतन सुर भरा तथा बसन्त की अगवानी कर युग प्रवर्तन का ऐतिहासिक कार्य किया। वे जीवन की समग्रता के कवि हैं।उनके काव्य में प्रसन्न और उदास दोनों भावों के छाया चित्र हैं। उन्हें प्रकृति के सौंदर्य में अज्ञात सत्ता का आभास मिलता है, उसके प्रति कौतूहल उनमें हर कहीं विद्यमान है। यदि एक ओर उनके काव्य में अन्तर-सौंदर्य की तीव्र एवं सूक्ष्मतम अनुभूति , समर्पण और एकान्त साधना की प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति है तो दूसरी ओर व्दिवेदी युगीन प्रासादिकता और लोकहित कि आदर्श। सन् 1915 के आस पास स्वच्छन्दतावादी काव्य-धारा चौड़ा पाट बनाने में लगी थी, व्दिवेदी युगीन तट -कछार उसमें ढहने लगे थे। इस धारा के सबसे सशक्त हस्ताक्षर थे जयशंकर प्रसाद और मुकुटधर पांडेय । इसके समानांतर सन् 1920 तक व्दिवेदी युग भी संघर्षरत रहा कहा जा सकता है, उसका प्रभाव सन् 1935 तक रहा। मुकुटधर पांडेय में स्वच्छन्दतावादी और व्दिवेदी -युगीन काव्य की गंगा-जमुनी धारा यदि एक साथ प्रवाहित दिखे तो आश्चर्य नहीं। लेकिन तय है उस युग के काव्य का प्रवर्तन उन्हीं से होता है। उन्हीं की प्रगीत रचनाओं से होकर छायावादी कविताएं यात्रा करती हैं, और उन्होंने ही सर्वप्रथम उस युग की कविताओं को व्दिवेदी युग से अलग रेखांकित किया। "कविता" (हितकारिणी1919) तथा "छायावाद" (श्रीशारदा 1920) जैसी सशक्त लेखमाला व्दारा ही उस युग की कविता की पहचान होती है। इस कविता धारा को सांकेतिक शैली के अर्थ विशेष में पांडेय जी ने "छायावाद" नाम दिया था। वैसे छायावाद का प्रथम प्रयोग श्रीशारदा की लेखमाला के प्रकाशन के पूर्व मार्च 1920 की हितकारिणी में प्रकाशित उनकी कविता "चरण प्रसाद" में हुआ है:- भाषा क्या वह छायावाद है न कहीं उसका अनुवाद मेरे विचार से यह छायावाद की एक सुन्दर व्याख्या है। और इसका प्रयोग हिन्दी में आप्त वाणी जैसा ही हुआ है। स्वतः स्फूर्त और परम पूर्ण। कवि मुकुटधर पांडेय अपनी सहजात प्रवृत्तियों के साथ ही युग बोध से भी जुड़े, और यही वजह है कि वे आज भी प्रासंगिक हैं। उनके रचना संसार में व्दिवेदी युग और छायावाद के काव्य संस्कार मौजूद हैं। इसी अर्थ में मैंने उन्हें संक्रमण काल का कवि कहा है। वे सन् 1909 से 1923 तक अत्यधिक सक्रिय रहे। हिन्दी प्रदेश के वे शायद अकेले निर्विवाद और.लोकप्रिय कवि थे, जो उस समय की प्रायः सभी साहित्यिक पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ में ससम्मान स्थान पाते रहे। पं. मुकुटधर पांडेय की कविताएं सन् 1909 से 1983 तक फैली हुई हैं। उन्होंने बारह वर्ष की उम्र में लिखना शुरू किया था। इकहत्तर वर्षों की प्रदीर्घ साधना को कुछ पृष्ठों में मुद्रित नहीं किया जा सकता। पूजा-फूल में कुल 74कविताएं हैं। तीन पं. मुरलीधर पांडेय की तथा इकहत्तर मुकुटधर पांडेय जी की। यह महज संयोग है कि इतनी ही रचनाएँ इस संकलन में अनजाने आ गयी हैं। पुस्तक का शीर्षक उनकी प्रसिद्ध कविता "विश्वबोध"के नाम पर रखा गया है, कोई आग्रह नहीं आखिर एक शीर्षक ही तो देना था। पं. मुकुटधर पांडेय जी की करीब तीन सौ कविताएं मेरे पास संकलित हैं। पिछले एक दशक से मैं साहित्य मनीषी पं. मुकुटधर पांडेय"शीर्षक एक स्वतंत्र पुस्तक लिख रहा था, इसी दौरान ये कविताएँ पुरानी पत्र-पत्रिकाओं, कुछ पुस्तकों और कुछ पांडेय जी से प्राप्त हो गयी, उन्हीं में से यह चयन है। कविता के नीचे विवरण दे दिया गया है। अतः अलग से उल्लेख करना औपजारिकता ही है। क्रमांक चार से अठारह "पूजा फूल" से ली गयी है। जीवन साफल्य "काल की कुटिलता"और शोकांजलिक कविता-कुसुम माला में भी संकलित है। व्दिवेदी युग में वे अनुवादक के रुप में लोकप्रिय थे। अंग्रेजी और बंगला की अनूदित रचनाओं ने खड़ी बोली कविता धारा को प्रभावित किया हो तो आश्चर्य नहीं, यहां बंगला की चार अनूदित रचनाएँ भी शामिल हैं। अन्तिम ग्यारह कविताएं सन् 60 के बाद की है। कविताएं एक क्रम में है ताकि कवि.के विकास क्रम को देखा-परखा जा सके। और अन्त में , इस संकलन के लिए पांडेय जी ने जिस औदार्य से अनुमति दी, इस आभार को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। हिन्दी के नये पुराने पाठकों तक पांडेय जी की अन्य रचनाएं भी मैं पहुँचा सकूँ यह मेरी एकान्त कामना है। डाँ०बलदेव रायगढ़:-दिनांक19/11/83 कविता ******* मुकुटधर पांडेय कविता सुललित पारिजात का हास है, कविता नश्वर जीवन का उल्लास है । कविता रमणी के उर का प्रतिरूप है, कविता शैशव का सुविचार अनूप है। कविता भावोन्मतों का सुप्रलाप है, कविता कान्त -जनों का मृदु आलाप है। कविता गत गौरव का स्मरण- विधान है, कविता चिर-विरही का सकरुण गान है। कविता अन्तर उर का बचन-प्रवाह है, कविता कारा बध्द हृदय को आह है। कविता मग्न मनोरथ का उद्गार है, कविता सुन्दर एक अन्य संसार है। कविता वर वीरों का स्वर करवाल है, कविता आत्मोध्दरण हेतु दृढ़ ढाल है। कविता कोई लोकोत्तर आल्हाद है, कविता सरस्वती का परम प्रसाद है। कविता मधुमय -सुधा सलित की है घटा, कविता कवि के एक स्वप्न की है छटा। चन्द्रप्रभा,1917 ( बिश्वबोध कविता संग्रह से पृ.9 ) चरण-प्रसाद ********** कण्टक- पथ में से पहुँचाया चारु प्रदेश धन्यवाद मैं दूँ कैसे तुझको प्राणेश! यह मेरा आत्मिक अवसाद? हुआ मुझे तब चरण-प्रसाद । छोड़ा था तूने मुझपर यह दुर्ध्दर-शूल, किन्तु हो गया छूकर मुझको मृदु-फूल यह प्रभाव किसका अविवाद? आती ठीक नहीं है याद। जी होता है दे डालूँ तुझको सर्वस्व, न्यौछावर कर दूँ तुझ पर सम्पूर्ण निजस्व। उत्सुकता या यह आह्वाद? अथवा प्रियता पूर्ण प्रमाद ? लो निज अन्तर से मम आन्तर -भाषा जान, लिख सकती लिपि भी क्या उसके भेद महान। भाषा क्या वह छायावाद, है न कहीं उसका अनुवाद। * * हितकारिणी, मार्च1920 (विश्वबोध कविता संग्रह पृ. 40) -- फास्ट Notepad से भेजा गया