मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

कविता:सिसरिंगा की घाटियाँ (कवि:डाँ. बलदेव)

सिसरिंगा की घाटियाँ
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 बीजा - साजा साल की 
छाँव में चितकबरे शशक शावक - सी
 लुक - छिप कई मोड़ माँद नदी तक छलांगती 
नील गाय सी बग टूट कहीं पर भागती 
चढ़ती ऊँची चट्टानों पर 
उतरती नीची ढलानों पर 
सिसरिंगा की घाटियाँ 
 सूर्य - मुखी जूड़े में घोंसे
 इठलाती आती चमचमाती सिसरिंगा की घाटियाँ
 कभी आगे कभी पीछे से 
लहरा क़र तेजी से लिपट जाती
 पथिक के पाँव में 
 मनुहार करती क्षणभर विलम जाने को 
करील - कुंज की छाँव में 
 इसे रूक जरा बाँह में गह लो
इसे आँख में भर लो
इसे गाओ 
इसे जिओ यह तुम्हें भी उरावों की गंध भीगी बालियों में गाएगी़ 
 तलहटियों के गाँव में ले जाएगी। 
 पलाशों की सिन्दुरिया माला पहिनाएगी 
 हँस- हँसकर बतराएंगी
इसकी सहेलियाँ गोंड़ महकूल और बैगा की बिटियाँ दोनों भर मधु में पगे चिरोंजी तुम्हें खिलाएंगी 
जी भर अंजुरियों से प्यास बुझाएगी
 वह तुमसे एक बार मिलने का वादा लेकर ही
 नन्दन झरिया या स्वप्निल झरने का पता बताएगी । सिंघनपुर की आदिम गुफाएँ या कबरा की पहाड़ियों के पाषाण चित्रों तक सहर्ष ले जाएगी, 
पहाड़ियों पर उतरते बादलों को देखकर इस उन्मत्त मयूरी के कर्मा नृत्य की लय में तुम जरा झूमो 
इनकी सतरंगी गहराइयों में उतरो 
 डूब- तिरो 
इसे साँस से छुओ 
यह हमेशा के लिए याद में 
महुए की गंध सी बसन्त सी छा जाएगी। 
 यदि तुम कहीं ठुकराओगे 
आहत प्यार इसका झूमकर डस लेगा तुम्हें
 यदि कहीं दोगे धोखा 
चूड़ियाँ तोड़कर मर्दाना कलाइयाँ इसकी बेधड़क गंडासा गर्दन पर ले जाएगी 
जरा चूको हजारों फीट गहरी दलदली खाइयों में बेहिचक धकेल देगी 
और उलझोगे तो शेेरनी सी गुर्राएगी ।
 जब यह उमड़ती है दहाड़ इसकी मीलों फैल जाती है
 जर्रा ज़र्रा चौधियाता चीखकर भड़क उठता है 
बस या बुलेट पर हो ........ रूको , जरा हुजूर को पहले सलामी दो 
तब बढ़ो आगे दबेे पाँव पीछा कर रही है 
जबड़ा खोलेे लार टपकाती 
मादा रीछ सी रूमाल हिलाकर 
बुलाती मखमली वादियाँ मदमाती सिसरिंगा की घाटियाँ ।

 डाँ बलदेव 
रायगढ़, छत्तीसगढ़
प्रस्तुति:-बसन्त राघव