स्व. कौशल प्रसाद दुबे जी की मीरा का केवल पाठ करना इस कृति के साथ संपूर्ण न्याय नहीं कर पायेगा;स्व. दुबे जी की "मीरा" एक अलौकिक आध्यात्मिक अनुभूति की ओर पाठक की चेतना को अग्रसर करती है। परम पूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी का कथन है-एकाकार को जानने से अच्छा है हमारी यह विरह व्याकुलता;क्योकि उससे मिलने के बाद तो अंत हो जाता आदमी।उसकी आशा में बैठे; उसके विश्वास में बैठे; जो हमारी प्रतीक्षा है यह हमारा बड़ा ही कल्लोल्मय ; आंनदमय ; बड़ा ही बच्चो की किलकारियो़ की तरह मुग्ध -मुग्ध कर देने वाला समय होता है। "मीरा" - एक अनंत प्रतीक्षा" इसी प्रतीक्षा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। स्व. कौशल प्रसाद दुबे जी की "मीरा" को शास्त्रीय काव्य सिघ्दांतों के आधार पर वर्गीकृत करने के लिए बड़ी रोचक बहस हो सकती है कि मुक्त छंद में रची गयी यह कृति गेयता के गुण के अभाव के बावजूद भावनाओं की त्वरा एंव प्रेम तथा करूणा की अंतधारा के कारण गीति काव्य के रूप में वर्गीकृत किये जाने के योग्य है अथवा नहीं । इसी प्रकार इसके खण्डकाव्यात्मक आकार को लेकर भी बुघ्दि विलास किया जा सकता है। किन्तु इन चर्चाओं से "मीरा" के मूल तत्व की उपेक्षा ही होगी। स्व. कौशल प्रसाद दुबे जी की " मीरा" ;मीरा के जीवन और रचना संसार का उनका अपना पाठ है। भक्ति परम्परा में साख्य भाव हिन्दू धर्म की अद्वितीय विशेषता है।जहाँ विश्व के अनेक धर्मों मेें ईश्वर एवं मनुष्य के मध्य दास एवं स्वामी के सम्बन्ध को प्रधानता दी गयी है; अपवाद स्वरूप अमेरिकन कवियित्री एमिली डिकिन्सन (१८३०-१८८६) का उल्लेख यहा पर अनिवार्य हो जाता है जिन्होंने क्राइस्ट को पति के रूप में पूजा था एवं ब्राइडल पोयम्स की रचना की थी जिन्हें पढ़कर अनायास ही मीरा का स्मृति हो अाती है। जब स्व. कौशल प्रसाद दुबे जी की "मीरा" को पढ़ रहा था तो अनायास एमिली की पंक्तियां मन में कौंध जाती थी ।इस समानता का एक ही कारण हो सकता है। विश्व के सारे घर्म उस अज्ञात -अविनाशी के अस्तित्व को मानते है जो दुनिया का संचालन करता है। जब उसकी आराधना के लिए भक्त निकलता है तो देश-काल और साधना पघ्दति चाहे जो हो वह आध्यात्मिक अनुभूति समान होती है। स्व.कौशल जी की मीरा विभिन्न युगों की यात्रा पल भर में कर लेती है; मार्ग में जो कुछ दिखता है- यथार्थ भी हो सकता है और कल्पना भी - किन्तु वह जिसमनोदशा में है उसके लिए एेसे भेद गौण और महत्वहीन है। उस अलौकिक जगत के रंग;गंध और ध्वनियाँ शाब्दिक रूप से व्यक्त करने में कठिन हैं, फिर भी जहाँ तक भाषा जा सकती है वहाँ तक स्व. कौशल जी गए हैं। जब तक जरा-व्याधि-मरण की सीमाओं से बंधा हुआ मनुष्य आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील रहेगा, तब तक कृष्ण और क्राइस्ट अपनी अपार करूणा और प्रेम की वर्षा करते रहेंगे और विरहिणी मीरा की अनंत यात्रा जारी रहेगी। समीक्षक- डाँ. राजू पाण्डेय,हंडी चौक रायगढ़ ४९६००१छत्तीसगढ़ -- Sent from Fast notepad